commit 30b2fcb7513645c97a8c9ffdce62aeee0777add1 Author: Gourab <19bcs118@iiitdwd.ac.in> Date: Thu Jun 17 19:11:03 2021 +0530 Added words to match ben-hin diff --git a/.DS_Store b/.DS_Store new file mode 100644 index 0000000..f9f8af9 Binary files /dev/null and b/.DS_Store differ diff --git a/apertium-hin.hin.dix b/apertium-hin.hin.dix index 124d07c..331a43a 100644 --- a/apertium-hin.hin.dix +++ b/apertium-hin.hin.dix @@ -1647,9 +1647,10 @@
- + सिवा बकौल + अगला ज़रीए हेतु सिवाय @@ -1673,7 +1674,9 @@ लिये उपरसे केउपर - केविरुद्ध + केबावजूद + केविरुद्ध + विरुद्ध केविरूद्ध केखिलाफ केअन्तर्गत @@ -1921,6 +1924,7 @@ लाख करोड़ अरब + @@ -8246,7 +8250,7 @@ अम्ल-प्रक्षालन - अभय + अभय आदित्य अजित आकाङ्क्षा @@ -9468,8 +9472,8 @@ पाकिस्तान अफगानिस्तान - -बलुआ + इमारतें + बलुआ उम्मत फ़ौज सन्दूक @@ -9635,6 +9639,7 @@ मौलव दैनिक + इमारतें मायन शहंशाह हिन्दुस्तान diff --git a/texts/wiki_hin.txt b/texts/wiki_hin.txt new file mode 100644 index 0000000..31984d8 --- /dev/null +++ b/texts/wiki_hin.txt @@ -0,0 +1,80237 @@ + +मुखपृष्ठ: + +आओ भूगोल सीखें: +यह भूगोल विषय का प्रारंभिक परिचय कराने वाली पुस्तक है। + +हिंदू धर्म-संस्कृति सार/चौसठ कलाएँ: +भारतीय साहित्य में 64 कलाओं का वर्णन है, जो इस प्रकार हैं - +1- गानविद्या +2- वाद्य : भांति-भांतिके बाजे बजाना +3- नृत्य +4- नाट्य +5- चित्रकारी +6- बेल-बूटे बनाना +7- चावल और पुष्पादिसे पूजा के उपहार की रचना करना +8- फूलों की सेज बनान +9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना +10- मणियों की फर्श बनाना +11- शय्मा-रचना +12- जलको बांध देना +13- विचित्र सििद्धयां दिखलाना +14- हार-माला आदि बनाना +15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना +16- कपड़े और गहने बनाना +17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना +18- कानों के पत्तों की रचना करना +19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना +20- इंद्रजाल-जादूगरी +21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना +22- हाथ की फुतीकें काम +23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना +24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना +25- सूई का काम +26- कठपुतली बनाना, नाचना +27- पहली +28- प्रतिमा आदि बनाना +29- कूटनीति +30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी +31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना +32- समस्यापूर्ति करना +33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना +34- गलीचे, दरी आदि बनाना +35- बढ़ई की कारीगरी +36- गृह आदि बनाने की कारीगरी +37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा +38- सोना-चांदी आदि बना लेना +39- मणियों के रंग को पहचानना +40- खानों की पहचान +41- वृक्षों की चिकित्सा +42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति +43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना +44- उच्चाटनकी विधि +45- केशों की सफाई का कौशल +46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना +47- म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना +48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान +49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना +50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना +51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना +52- सांकेतिक भाषा बनाना +53- मनमें कटकरचना करना +54- नयी-नयी बातें निकालना +55- छल से काम निकालना +56- समस्त कोशों का ज्ञान +57- समस्त छन्दों का ज्ञान +58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या +59- द्यू्त क्रीड़ा +60- दूरके मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण +61- बालकों के खेल +62- मन्त्रविद्या +63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या +64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या + +गणित के खेल/9 से गुणा: +अगर आप किसी सन्ख्या को ९ से गुना करना चाहते हैं +9×1=9=9 +9×2=18=9 +9×3=27=9 +अब ११ से करने पर १८ होंगे +9×11=99=18 +9×12=108=18 +२१ से करने पर २७ +9×21=189=27 + +प्रश्नोत्तर रूप में सन् १८५७ का स्वातंत्र्य समर: +प्रकाशकीय. +1857 के स्वातंत्र्य समर की 150 वीं वर्षगांठ पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ +के द्वारा करणीय कार्यों की सूची में दो कार्य निश्चित हुए। प्रथम इस विषय पर समाज के सभी +वर्गों के विचारणीय प्रज्ञा पुरुषों को इसकी सम्यक जानकारी प्रदान करने के लिए जिलाश: गोष्ठियाँ +आयोजित करना तथा दूसरा विद्यालयीन एवं महाविद्यालयीन विद्यार्थियों को इस विषय पर पुस्तक +उपलब्ध कराकर स्पर्धात्मक भाव से विषय को समझने का अवसर देकर प्रान्तश: प्रतियोगिता +आयोजित करने का लक्ष्य रखा गया। इस प्रकार का सुझाव रा.स्व.संघ के अ.भा.प्रचार प्रमुख +माननीय अधीश कुमार जी ने अपने कैंसर के इलाज के दौरान हुई भेंट के समय रखा। जिसे +राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ ने स्वीकार कर उसको क्रियान्वित कर रहे हैं। आज मा. अधीश कुमार +जी अपने मध्य नहीं हैं परन्तु उनकी प्रेरणादायी स्मृति हमें सदैव स्फुरित करेगी, ऐसा विश्वास है। +1857 का स्वातंत्र्य समर भारतीय समाज की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी ऐसा कहना +युक्तियुक्त होगा। 1857 के स्वातंत्र्य समर को 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण भारतीय +समाज आज इसका स्मरण कर उन वीर योद्धाओं के अप्रतिम त्याग, शौर्य और बलिदान को +चिरस्मरणीय बनाये रखने वाली तरूणाई के समक्ष देश, धर्म की रक्षार्थ किये गये इस महासंग्राम +का एक स्वर्णिम पृष्ठ सामने हो तथा वे इसे आज़ादी के दीवानों के अतुलनीय प्रयास की गाथा +को सदैव अपने पास संजो कर रखे। +इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्री हनुमान सिंह राठौड़, व्याख्याता, कृषि ने हमारे आग्रह +को स्वीकार कर अपनी अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद '1857 का स्वातंत्र्य समर: प्रश्नोत्तर +रूप में' लिखकर अतिशीघ्र हमें उपलब्ध करा दी। हम उनके इस प्रयास से अभिभूत हैं तथा उन्हें +साधुवाद देते हैं। +इस पुस्तक का बहुरंगा आवरण पृष्ठ को आकल्पित करने वाले पत्रकार एवं सामाजिक +कार्यकर्ता श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी हैं, उन्हें कोटिश: धन्यवाद। अजमेर के पेस प्रिन्टर्स ने प्रभावी अक्षर +संयोजन किया है तथा प्रीमियर प्रिन्टर्स, जयपुर ने आकर्षक मुद्रण कर पुस्तक हमें समय पर +उपलब्ध करा दी। हम इन सभी के आभारी हैं। +सुधी पाठकों के हाथों में '1857 का स्वातंत्र्य समर: प्रश्नोत्तर रूप में' पुस्तक देते हुए +हमें हर्ष है। आशा है सभी को यह पुस्तक पसन्द आयेगी। देश के आज़ादी की लड़ाई में शहीद +हुए हुतात्माओं की क़ुर्बानी का थोड़ा भी श्रद्धा भाव नवीन पीढ़ी को प्रदान करने में सफल होने +पर ही पुस्तक की सार्थकता सिद्ध होगी। जय स्वरा…य, जय स्वधर्म। +-- प्रकाशन समिति +सार वाक्. +भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र की सुदीर्घ ऐतिहासिक परम्परा में स्वाभाविक रूप से जय +के जयमाल तो पराजय के प्रसंग भी आए हैं और पराजय को पराभूत करने की विजिगिषु +वृत्ति की दृष्टि से हमारा इतिहास सतत् संघर्ष का इतिहास है। 1857 का स्वातंत्य समर भी +इसी शृंखला में होने के कारण 'प्रथम' तो नहीं पर विश्व में अप्रतिम अवश्य है। इसमें +लगभग तीन लाख सैनिकों व नागरिकों ने बलिदान दिया, भयंकर नरसंहार लोमहर्षक +उत्पीडऩ तथा अपार धन राशि की लूटमार हुई। हजारों गाँवों को भस्मीभूत किया गया, +अनेक नगर वीरान हो गए तथा किले खण्डहर बना दिए गए। सम्पूर्ण देश एक युद्घ क्षेत्र बन +गया था। +हमारे राष्ट्र जीवन में 1857 का स्वातंत्र्य समर एक ऐसा प्रसंग था जब इस पुरातन +राष्ट्र ने पुन: अपना तेजोमय स्वरूप विश्व के सामने प्रकट किया। 'यत्र द्रुमोनास्ति तत्रऽरंडो +द्रुमायते' की उक्ति के अनुसार जहाँ अनेक देश इतिहास की अपनी छोटी से छोटी घटना में +प्रेरणा का उत्स ढूँढकर महिमा मंडन करते हैं, वहाँ अपने यहाँ, अंग्रेजों का 1857 के +स्वातंत्र्य समर पर लिखने का दृष्टिकोण तो क्षम्य है, मार्क्स-मैकाले पुत्रों ने इस प्रसंग को +महत्वहीन बनाने की पूरी कोशिश की- +अनेक प्रकार से साहित्यिक-ऐतिहासिक वामाचार किया गया। 1857 के उस महासमर की 150 वीं वर्षगाँठ ने हमें उक्त भ्रम एवं विसंगतियों के +परिमार्जन तथा अपने गौरवमयी इतिहास एवं इतिहास-पुरुषों के स्मरण का अवसर प्रदान किया है। अपनी मातृभूमि पर अवैध रूप से कब्जा जमाए बैठे विदेशी अंग्रेजों के विरुद्घ उठ खड़ा होना 'विद्रोह' कैसे हो गया? विदेशी को बाहर निकालने का प्रयत्न तो स्वतंत्रता +संग्राम ही कहलाएगा चाहे इसका प्रारम्भ एक जवान करे या किसान, नृप करे या फकीर। +कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि मुस्लिम भी तो इस देश में विदेशी थे और अपनी खोई +सत्ता को पुन: प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को साथ रखना चाहते थे, अत: उनकी भाषा, +शब्दावली, दृष्टिकोण में कृत्रिम परिवर्तन आया। परन्तु इसका सकारात्मक पक्ष भी था - +ठ्ठ मुस्लिमों के मन में हिन्दुओं एवं उनकी परम्पराओं एवं अपने मूल पूर्वजों के प्रति +अनुकूल परिवर्तन आया। वह एक सुखद अवसर था जब जिहाद और जाजिया के +बल पर मजहब का झंडा लेकर चलने वाले राष्ट्रीयता का पैगाम और शहादत की +प्रेरणा लेकर भारतीय होने का गर्व महसूस करने की प्रक्रिया में स्वप्रेरणा से गुजर रहे +थे। 1857 में पहली बार भारत की राष्ट्रीयता के अखिल भारतीय सांस्कृतिक आधार +के प्रति उन्होंने समर्पण के भाव को प्रत्यक्ष रूप से दिखाया था। इसका एक उदाहरण +दिल्ली से प्रकाशित 'पयामे आजादी' के पहले अंक (8 फरवरी 1857) में +प्रकाशित गीत है। इसकी कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं - +"आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा। +तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा॥" +प्रतिष्ठित रूप में किया गया। +में भारत को 'मादरे वतन' (मातृभूमि) कहा है। सह अस्तित्व व अतुष्टिकारक +सहयोग के उदाहरण उपलब्ध हैं। बाद के समय में मुस्लिम तुष्टीकरण ही देश +विभाजन का कारण बना था। +तथा उल्लंघन करने वाले को मृत्युदंड या हाथ-पैर काटने की सजा का प्रावधान +किया था। +घोषणा की थी कि श्री राम जन्मभूमि पर भव्य मन्िदर बनना चाहिए। उक्त समझौता +करने वाले अयोध्या के बाबा रामचरण दास और अमीर अली को अंग्रेजों ने फाँसी दे +दी। +स्वाभाविक केन्द्र था इसलिए बहादुर शाह को दिल्ली सम्राट के नाते नेतृत्व दिया +था, मुगल सम्राट के नाते नहीं। बहादुर शाह की यह घोषणा दृष्टव्य है - +"मेरे शासन के स्थान पर जो भी व्यक्ति भारत को स्वरा…य और स्वाधीनता प्रदान +कराने के लिए संकल्पबद्घ हो मैं उसको ही सम्राट पद समर्पित कर देने के लिए +सहर्ष सिद्घ हूँ।" (1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर : वीर सावरकर; पृष्ठ 311) +बहादुर शाह जफर ने अपने हाथों से ही राजपुताने के राजाओं को पत्रों में लिखा - +"मेरी यह उत्कट अभिलाषा है कि अंग्रेजों की दासता की श्रंखला टूक-टूक होते +देखूँ। ...यदि आप सब शासनाधिपतिगण स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए किए जाने +वाले इस युद्घ में अपनी तलवारें हाथों में सम्भालकर आगे आने को तैयार हों तो मैं +स्वे‘छा और प्रसन्नता सहित अपने सम्पूर्ण अधिकार ऐसे किसी भी रा…यमंडल को +समर्पित कर दूँगा और ऐसा करने में मुझे आनन्द भी प्राप्त होगा।" (मेटकाफ कृत +'टू नेटिव नेरेटिव्ह्स; पृ. 226') +चर्बी वाले कारतूसों के कारण क्रान्ति का समय पूर्व अकस्मात् विस्फोट अवश्य हो +गया किन्तु क्रान्ति का यही एकमात्र कारण नहीं था बल्कि यह तो क्रान्ति की विफलता का +कारण बना। इस समय पूर्व विस्फोट से अंग्रेजों को सम्भलने का अवसर मिल गया। +क्रान्ति केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं थी। गौमुख में उत्स पर जो गंगा की +धारा क्षीण होती है वही मैदान में आकर विशालकाय हो जाती है, उसी प्रकार स्वातंत्र्य समर +का प्रारम्भ उत्तर भारत में होगा पर इसका व्याप अखिल भारतीय था। दक्षिण भारत में +स्वतंत्रता संग्राम की व्यापकता डॉ. वा.द. दिवेकर की शोध पूर्ण पुस्तक 'साउथ इंडिया इन +1857 : वार ऑफ इन्िडपेंडेंस' के अध्ययन से स्पष्ट है। 1857 में अंडमान में निर्वासित +800 लोगों में से 250 से अधिक दक्षिण भारत के थे। बंगाल, मुम्बई तथा मद्रास में कोर्ट +मार्शल की कुल संख्या क्रमश: 1954, 1213 तथा 1044 थी। यह संख्या ही अखिल +भारतीय व्याप तथा क्रान्ति की समान तीव्रता को बताने के लिए पर्याप्त है। +पंजाब का 'ब्लैक होल' कहलाने वाले अजनाला की घटना कौन विस्मरण कर +सकता है? पंजाब की तत्कालीन शासकीय रिपोर्टों से ज्ञात होता है कि स्वतंत्रता संग्राम के +दौरान 386 क्रान्तिकारियों को फाँसी दी गई, 2000 लोग मारे गए व अनेक बंदी बनाए गए। +यह उस पंजाब का वृत्त है जिसके लिए कहा जाता है कि 1857 में पंजाब निर्लिप्त रहा। +यह भी असत्य है कि इस युद्घ में वे ही रजवाड़े शामिल हुए जिनके रा…य अंग्रेजों +ने अधिग्रहित कर लिए थे। युद्घ में ये भी थे पर ये ही शामिल नहीं थे। ग्वालियर और टोंक +के शासक युद्घ के विरोध में थे पर दोनों स्थानों की जनता व सेना ने तात्या टोपे का साथ +दिया। जगदीशपुर के कुँवर सिंह, रूइया गढ़ी के नरपत सिंह, आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह +का तो अंग्रेजों से रा…य का झगड़ा नहीं था। जोधपुर सेना के सेनापति अनाड़ सिंह की युद्घ +में मृत्यु पर शोक स्वरूप 'नौबत' नहीं बजी पर पॉलिटिकल एजेंट मैसन के मारे जाने पर +'नौबत' बजाना स्थगित नहीं किया। यह निर्णय उस जोधपुर नरेश का है जिसे अंग्रेज +समर्थक माना जाता है। +स्वातंत्र्य युद्घ का वास्तविक कारण क्या था? वीर सावरकर के शब्दों में "राम- +रावण संघर्ष में सीता हरण भी तो निमित्त मात्र ही था" उसी प्रकार उत्तराधिकार कानून, देशी +रा…यों का अधिग्रहण, चर्बी लगे कारतूस, आर्थिक शोषण आदि तो निमित्त कारण थे। +वस्तुत: 1857 के इस स्वातंत्र्य संग्राम को प्रदीप्त करने वाले दिव्य तत्व थे - स्वधर्म व स्वराज्…य। +स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - "भारत के राष्ट्रीय जीवन का मूलाधार धर्म है। +यदि कहीं तुमने इस मर्मस्थल को छेड़ दिया, तो सावधान! तुम सर्वनाश को निमंत्रण दे +दोगे।" 1813 ई. में ब्रिटिश संसद में सरकारी स्तर पर भारत में ईसाई मत के प्रचार का +कानून बनाकर अंग्रेजों ने भारत की इस सनातन चेतावनी को नजर अंदाज किया था और इसी +का एक अवश्यम्भावी परिणाम 1857 की क्रान्ति था। 1850 तक भारत के 260 प्रमुख +स्थानों पर अड्डे बनाकर ईसाईकरण के लिए लगभग एक हजार पादरी सक्रिय थे। सैनिक +छावनियों में उ“ा पद व वेतन पर पादरी रखे हुए थे। बैरकपुर छावनी के कर्नल ह्वीलर जैसे +अंग्रेज सैन्य अधिकारी भी इस कार्य में लगे थे। मेजर एडवर्ड ने अपनी डायरी में लिखा है +- "भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।" +दिल्ली के सम्राट ने जो घोषणा पत्र प्रस्तुत किया था उससे क्रान्ति की मूल प्रेरणा +का बोध होता है - +'हे हिन्दभूमि के सपूतों, यदि हम संकल्प कर लेंगे तो शत्रु को क्षण भर में नष्ट कर +सकते हैं। हम शत्रुओं का नाश कर अपने प्राण प्रिय धर्म एवं स्वदेश को पूर्णरूपेण भयमुक्त +कर लेने में सफलता प्राप्त कर लेंगे।' (लेकी कृत 'फिक्शन एक्सपो…ड') +स्वधर्म के अभाव में स्वरा…य भी त्या…य है और स्वरा…य के न होने पर स्वधर्म भी +बलहीन होता है। स्वरा…य और स्वधर्म के साधन और साध्य का यह तत्व 1857 ई. के इस +क्रान्ति युद्घ में भी अभिव्यक्त हुआ था। समर्थ गुरू रामदास ने मराठों को यही आह्वान दिया +था - +"धर्मासाठी मरावें। मरोनी अवध्यांसि मारावें। +मारिता मारिता ध्यावें। रा…य आपुले॥" +(अपने धर्म के लिए प्राण दो। अपने धर्म के लिए शत्रुओं का वध करो, अन्तिम +साँस तक इसी प्रकार युद्घ करो और स्वरा…य की स्थापना करो) +इस स्वाधीनता संग्राम में पहली बार भारतीय समाज को बाँटने वाले तीन कारण +- मजहब, जाति और वर्ग - तिरोहित हो गए थे। यह ऐसा विलक्षण संग्राम था जिसने +सम्पूर्ण भारत को जगाया। कार्ल माक्र्स ने 1857 की घटनाओं पर उसी समय 'न्यूयॉर्क डेली +ट्रिब्यून' में अपने लेखों में सिद्घ किया है कि अंग्रेजी अत्याचारों के कारण सम्पूर्ण भारत +बारुद के ढेर पर बैठा हुआ था तथा 1857 भारत का स्वाधीनता संग्राम था। वीर सावरकर ने +1907 में ब्रिटिश दस्तावेजों के आधार पर ही '1857 च्या स्वातंत्र्य समरांचा इतिहास' +नामक कालजयी ग्रंथ लिखकर उक्त तथ्यों की पुष्टि की। +1857 का स्वातंत्र्य समर आकस्मिक घटना न होकर एक कुशल योजना तथा +संगठन का उदाहरण है। यह आश्चर्यजनक है कि इस योजना का एक भी मुखबिर अंग्रेजों +को नहीं मिला। मृत्यु भय या प्रलोभन से एक भी क्रान्ति सैनिक नहीं टूटा। +क्रान्ति के मूल कल्पक कौन थे? इस दृष्टि से विचार करने पर दो नाम ध्यान में +आते हैं - रंगो बापू जी गुप्ते और अजीमुल्ला खाँ। रंगो बापू जी गुप्ते छत्रपति शिवाजी के +वंशज, सतारा के अपदस्थ शासक प्रताप सिंह के वकील के रूप में 1840 में इंग्लैंड गए +थे तथा 14 वर्ष तक वहाँ रहे। वे अपने मूल कार्य में तो सफलता नहीं पा सके पर अंग्रेजों की +रीति-नीति व कुटिलता का सहज अध्ययन हो गया। इसी में से यह विचार पुष्ट हुआ कि +अंग्रेज विनय की भाषा नहीं समझते, इनसे मुक्ति का संगठित सशस्त्र उपाय आवश्यक है। +1854 में नाना साहब पेशवा का पक्ष रखने के लिए अजीमुल्ला खाँ इंग्लैंड गए। उनको भी +अंग्रेजों की कपट-नीति का ही साक्षात्कार हुआ। राजनीति के इन दो धुरंधरों की लंदन में +मुलाकात हुई तो 1857 के स्वातंत्र्य समर का बीज-वपन हो गया। +भारत आने के बाद आधुनिक चाणक्य रंगो बापू जी गुप्ते ने चन्द्रगुप्त की तलाश +प्रारम्भ की तो उनकी नजर नाना साहब पेशवा पर टिकी। रंगो बापू जी गुप्ते साधुवेश में तात्या +टोपे के साथ नाना साहब से मिले। तब तक रूस आदि देशों से सहायता का आश्वासन +लेकर अजीमुल्ला खाँ भी भारत आ गए। तीर्थाटन के बहाने पूरे देश में विचार विमर्श हुआ +और अन्तत: क्रान्ति के लिए 31 मई की तिथि तय की। इस योजना की स्तम्भित करने वाली +बातें क्या हैं? - +पहुँचाया गया? क्रान्ति के योजनाकारों के पास अंग्रेजों की तरह तो टेलीग्राफ +व्यवस्था नहीं थी। +मेरठ में 10 मई को हुए विस्फोट के बाद ही अंग्रेज कुछ जान पाए। +वास्तव में क्रान्ति की रचना कई चरणों में हुई थी - +बैंक में जमा अपने पाँच लाख पौंड दो वर्ष की अवधि में धीरे-धीरे +निकाल लिए। +जन-जागरण अभियान साधु-फकीरों के माध्यम से। +व्यवहार तीसरा चरण था। +तिथि तय करना। +तीर्थाटन, रक्त-कमल और रोटी, साधुओं-फकीरों का प्रवास, विशेष गूढ़ार्थ वाले +आल्हा और पवाड़े गायन के आयोजन आदि अनेक तरीके इस क्रान्ति की तैयारी में अपनाए +गए और अत्यन्त सोच-विचार कर 31 मई की तिथि तय की गई। 31 मई की तिथि क्यों तय +की गई? - +भेजने की तैयारी हो रही थी। रूस-तुर्की युद्घ में इंग्लैंड को अपार जन-धन हानि +हुई थी। +गर्मी को सहन नहीं कर सकते थे। +रहते हैं अत: उनकी असावधानी का लाभ उठाना। +अत्यन्त सुनियोजित पर दुर्भाग्य से समय पूर्व हुई क्रान्ति, परिणाम की दृष्टि से +स्थूल रूप से असफल रही। इसकी असफलता के कारणों में पंजाब, राजस्थान, ग्वालियर +जैसी अनेकों रियासतों के शासकों का असहयोग, उत्कृष्ट शस्त्रास्त्रों की कमी, कमजोर व वृद्घ +नेतृत्वकर्ता बहादुर शाह जफर का चयन, विद्रोही सैनिकों में अनुशासनहीनता, विश्व में +अंग्रेजों की अनुकूल स्थिति होना आदि गिना सकते हैं। किन्तु सफलता प्राप्ति पर यही सब +कारण गौण हो जाते। मूल रूप से असमय विस्फोट से अंग्रेजों को सम्भलने का मौका मिल +गया और हमारी सद्गुण विकृति का अंग्रेजों ने लाभ उठाया। क्रान्ति सैनिकों ने प्रत्येक +छावनी से अंग्रेज अधिकारियों को सकुशल जाने ही नहीं दिया बल्कि कई जगह तो पहुँचाने +की व्यवस्था की, मार्ग में उन्हें शरण ही नहीं दी बल्कि सब प्रकार से सहायता की। यदि +दुश्मन को प्रत्येक ग्राम-नगर में घ्ोरकर मार दिया होता तो पुन: उन्हीं के हाथों पराजय का +दुर्दिन नहीं देखना पड़ता। अंग्रेजों ने अपना अवसर आने पर यह दयालुता नहीं दिखाई। +मोंटगोमरी मार्टिन 'बोम्बे टेलीग्राफ' में लिखता है - "(दिल्ली के) एक-एक मकान में +चालीस-चालीस, पचास-पचास आदमी छिपे हुए थे। ये लोग विद्रोही न थे बल्कि नगर +निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता और क्षमाशीलता पर विश्वास था। मुझे खुशी है कि +उनका भ्रम दूर हो गया।" +"दिल्ली के बाशिन्दों के कत्लेआम का खुला ऐलान कर दिया गया, यद्यपि हम +जानते थे कि उनमें से बहुत से हमारी विजय चाहते थे।" +(ञ्जद्धद्ग ष्टद्धड्डश्चद्यड्डद्बठ्ठ'ह्य ठ्ठड्डह्म्ह्म्ड्डह्लद्ब1द्ग शद्घ ह्लद्धद्ग स्द्बद्गद्दद्ग शद्घ ष्ठद्गद्यद्धद्ब, +ह्नह्वशह्लद्गस्र ड्ढ4 ्यड्ड4द्ग.) +जय हो या पराजय, परिणाम प्रत्येक अवस्था में होता है। इस स्वतंत्रता संग्राम का +भी हुआ - अंग्रेजों पर, हम पर, विश्व पर। इस समर के ही परिणाम स्वरूप ईस्ट इंडिया +कम्पनी के शासन की समाप्ति हुई और भारतीय प्रशासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन आया - +गवर्नर जनरल वायसरॉय हो गया। 1861 की पील कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार सेना में +ब्रिटिश सैनिकों की संख्या बढ़ा दी तथा तोपखाने से भारतीय सैनिक हटा दिए गए। हिन्दू- +मुस्लिम वैमनस्य को जन्म देने वाली नीतियों को प्रश्रय दे अन्तत: देश विभाजन की +विभीषिका तक पहुँचाया, अपनी विस्तारवादी नीति को तीव्र आर्थिक शोषण की ओर मोड़ा। +भारत की दृष्टि से इस क्रान्ति का क्या प्रभाव हुआ? मध्यकाल में स्थानीय नेतृत्व +व छोटे रा…यों के कारण अखिल भारतीय भाव का लोप हो रहा था। इस समर के कारण नाना +साहब पेशवा, तात्या टोपे, महारानी लक्ष्मीबाई, रंगोबापू जी गुप्ते, अजीमुल्ला खाँ, बहादुर +शाह जफर, वीर कुँवर सिंह, मौलवी अहमद शाह जैसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान वाले प्रेरक +चरित्र सामने आए। इस प्रकार से अंग्रेजों के विरुद्घ प्रथम बार स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन +का सूत्रपात हुआ। इसी को ध्यान में रखकर वीर सावरकर ने जो पुस्तक लिखी वह बाद के +क्रान्तिकारियों के लिए क्रान्ति-गीता बन गई। चाहे संत रामसिंह कूका हो या वासुदेव +बलवन्त फड़के, लाला हरदयाल हो चाहे रासबिहारी बोस, भगतसिंह हो या चन्द्रशेखर +आजाद, सभी 1857 के स्वातंत्र्य समर से ही प्रेरणा लेकर आत्म बलिदान के पथ पर अग्रसर +हुए। +भारत के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भी स्वतंत्र होने +की ललक पैदा हुई थी। कई देशों के शासक मजबूरी में, कठोर ब्रिटिश अंकुश के कारण, +अंग्रेजों के साथ सहयोग एवं मित्रता दिखा रहे थे परन्तु वहाँ की जनता की भारतीय +क्रान्तिकारियों से सहानुभूति थी और उनसे सहायता भी प्राप्त हो रही थी। उदाहरणार्थ नेपाल +के राणा ईस्ट इंडिया कम्पनी से बँधे थे पर नाना साहब से उनका पत्र व्यवहार था तथा +हजरत महल व नाना साहब नेपाल में सुरक्षित रहे थे। उत्तर-पश्चिम में वहाबियों ने +आन्दोलन चला रखा था। अफगान कबीले अंग्रेजों के विरुद्घ वहाबियों की मदद कर रहे थे। +तिब्बत तथा भूटान में भी अंग्रेजों के प्रति असंतोष दिखाई देता था। वस्तुत: 1857 के +स्वातंत्र्य समर के आलोक में इन सब देशों की स्थिति तथा मानसिकता के सन्दर्भ में खोज +की आवश्यकता है। +1857 की 150 वीं वर्षगाँठ पर हमें एक और दृष्टि से भी विचार करना चाहिए। +दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक स्तर पर दुष्चक्र रचकर पाठ्यपुस्तकों व समाचार +माध्यमों से इस प्रकार का सुनियोजित वातावरण बनाने का प्रयत्न हुआ है कि आजादी के +वास्तविक प्रयत्न तो ए.ओ. ह्यूम द्वारा गठित कांग्रेस संगठन के बाद ही हुए तथा स्वतंत्रता +'बिना खड्ग, बिना ढाल' मिली है। स्वतंत्रता संग्राम के समस्त प्रयत्नों का Ÿोय एक परिवार +को प्रदान करने का यह षड्यंत्र है। +सन् 1857 के बाद तुष्टिकरण का जो खेल अंग्रेजों ने प्रारम्भ किया था, यहाँ के +तथाकथित सेकुलर नेता उनके दुष्चक्र में फँसते गए और राजनीतिक स्वार्थवश वह खेल +भारत विभाजन के बाद भी अभी तक रुका नहीं है। 1857 के अनुभव से साम्रा…यवादी +अंग्रेजों ने मुसलमानों को राष्ट्रीयता किंवा हिन्दुत्व के सांस्कृतिक प्रवाह से पृथक रखने के +लिए हिन्दू हित और मुस्लिम हित के बीच भेद करना शुरु किया था। इसीलिए 1871 में +हंटर कमीशन बनाया गया, जिसने मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक +आवश्यकताओं एवं हितों को राष्ट्रीय हितों से अलग स्थापित किया। यह भारत के विभाजन +का प्रथम आधार बना दस्तावेज था जिसका उपयोग अलगाववादी 1947 तक करते रहे। +दुर्भाग्य से, 1857 की 150 वीं जयन्ती पर हम अपने देश में उसी साम्रा…यवादी व्यवहार एवं +नीतियों का संचार होता देख रहे हैं। आज हंटर की जगह स“ार कमेटी बन गई है। इसके +निष्कर्ष, दार्शनिक आधार और मान्यताएँ वही हैं जो हंटर कमीशन की थीं। अत: स्वातंत्र्य +समर की 150 वीं जयन्ती पर हमें राष्ट्र की दशा एवं दिशा पर, हमारी नीतियों एवं नतीजों पर +विचार करना ही चाहिए। +स्वातंत्र्य समर की 150 वीं वर्षगाँठ का यह अवसर आज की युवा पीढ़ी को यह +बताने में उपयोगी हो सकता है कि हमारे क्रान्ति धर्मा पूर्वजों ने स्वतंत्रता की क्या कीमत +चुकाई है। दुर्भाग्य से, प्रेरणा के अभाव में, आज की युवा पीढ़ी भँड-नचैया और डाँड- +खिलैयाओं को अपना नायक (हीरो) बना बैठी है। उन्हें अपने राष्ट्र पुरुषों की बलिदानी +परम्परा का स्मरण करवाकर उनकी तेजस्विता जगाने का कार्य इस अवसर पर किया जा +सकता है। +भारतीय इतिहास के एक उ……वल स्वर्णिम पृष्ठ 'सन् सत्तावन' पर एक सौ पचासवें +वर्ष में दृष्टिपात करते समय उपरोक्त सभी बिन्दुओं को हमें याद रखना चाहिए। इस महासमर +की अनेक बातें अभी जनश्रुतियों में हैं तथा अनेक त‰यों की शोधपूर्ण गवेषणा अपेक्षित है। +अभी तक ज्ञात त‰यों का सिंहावलोकन करते हुए 'स्वातंत्र्य मन्िदर' में प्रतिष्ठापित राष्ट्र पुरुषों +की स्मृति-मूर्ति की परिक्रमा का प्रयत्न मात्र इस पुस्तिका में हुआ है। पुस्तिका का उद्देश्य +विस्तृत अध्ययन हेतु उत्प्रेरक का कार्य करना मात्र है। न यह पुस्तक अभिकारक है, न +उत्पाद। अभिकारक इस पुस्तक के अध्येता हैं, पुस्तक सकारात्मक समांगी उत्प्रेरक है और +उत्पाद हमारे युग नायकों के प्रति हृदय में श्रद्घा भाव का जागरण है। +पुस्तक शुष्क प्रश्नोत्तरी नहीं है। शैली ही प्रश्नोत्तर की है। प्रश्नों से भी कई प्रश्न +उपस्थित किए जा सकते हैं। प्रश्नों में प्रश्न उलझाए भी जा सकते हैं और प्रश्नों से प्रश्न +सुलझाए भी जा सकते हैं। प्रश्न अपने आप में एक त‰य का वक्तव्य है अत: लगेगा उत्तर तो +वस्तुनिष्ठ है और सामान्य व्यवहार के विपरीत प्रश्न उससे कई गुना बड़ा है। किन्तु यह +जानबूझकर किया गया है ताकि प्रश्नों के माध्यम से कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का बोध भी +हो जाए और प्रज्ञा-स्फुरण हित सही उत्तर का शोध भी हो जाए। आशा है प्रश्नोत्तरी का यह +नवीन प्रकार आपको रोचक व प्रेरक लगेगा। आपके आज के सुझाव पुस्तिका के भविष्य में +परिमार्जन के आधार बनेंगे। +"काल रात्रि व्यतीत हुई अब +उतिष्ठ! नव प्रयाण करें हम +क्षत आँचल को फिर से सँवरें +आओ, नव निर्माण करें हम॥" +- हनुमान सिंह राठौड़ +प्रश्नोत्तरी १ से १००. +1. 1857 की क्रान्ति 'स्वातंत्र्य समर' था, इस त‰य से हमारे इतिहास की किस +विशेषता का बोध होता है? +
उ. सतत् संघर्ष का इतिहास। +2. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक के लेखक का नाम बताइये। +
उ. स्वातंत्र्य वीर सावरकर। +3. वीर सावरकर का पूरा नाम बताइये। +
उ. श्री विनायक दामोदर सावरकर। +4. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक के साथ प्रकाशन क्षेत्र में विश्व +की कौनसी विलक्षण घटना जुड़ी हुई है? +
उ. प्रकाशन पूर्व ही जब्ती के आदेश। +5. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक की रचना तिथि बताइये। +
उ. 10 मई 1907। +6. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक की मूल पांडुलिपि किस +भाषा में थी? +
उ. मराठी। +7. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक को क्रान्तिकारियों ने क्या +विशेषण दिया? +
उ. क्रान्ति की गीता। +8. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ किस स्थान पर लिखा गया था? +
उ. लंदन। +9. 'जिस राष्ट्र को अपने अतीत के सम्बन्ध में ही वास्तविक ज्ञान न हो, उसका +कोई भविष्य भी नहीं होता।' यह उद्घरण '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' +पुस्तक के किस प्रकरण से लिया है? +
उ. प्रथम संस्करण की भूमिका। +10. 'तलवार' नामक पत्र का प्रकाशन किस संगठन द्वारा होता था? +
उ. अभिनव भारत। +11. 'तलवार' नामक पत्र का प्रकाशन किस स्थान से होता था? +
उ. पेरिस। +12. वीर सावरकर के 'तलवार' नामक पत्र में लिखे लेख का विषय क्या था? +
उ. ग्रन्थ लेखन का उद्देश्य बताना। +13. वीर सावरकर अपने ग्रन्थ के कुछ अध्यायों का अंग्रेजी अनुवाद अपने +भाषणों के माध्यम से रखते थे। यह बैठकें किस संगठन की होती थीं? +
उ. फ्री इंडिया सोसायटी। +14. प्रतिबंध की अवस्था में भी '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ +सर्वप्रथम कहाँ से प्रकाशित हुआ? +
उ. हॉलैंड से। +15. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ सर्वप्रथम किस भाषा में प्रकाशित +हुआ? +
उ. इंग्िलश। +16. प्रतिबंध काल में गुप्त रूप से '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तकों +का बक्सा भारत लाने वाले व्यक्ित का नाम बताइये जो बाद में पंजाब के +प्रधानमंत्री भी रहे। +
उ. सर सिकन्दर हयात खाँ। +17. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक की मूल पांडुलिपि 'जेवर +बैंक ऑफ पेरिस' में किसने सुरक्षित रखी? +
उ. मैडम कामा। +18. प्रथम विश्व युद्घ में फ्रांस को असुरक्षित जानकर '1857 का भारतीय +स्वातंत्र्य समर' पुस्तक की मूल पांडुलिपि अमेरिका कौन ले गये? +
उ. गोवा निवासी डॉ. कुटिनो। +19. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' पुस्तक से विधिवत प्रतिबंध किस सन् +में हटा? +
उ. 1945 में। +20. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ का तृतीय अंग्रेजी संस्करण 1929 +में गुप्त रूप से किस क्रान्तिकारी ने करवाया? +
उ. सरदार भगतसिंह ने। +21. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ में लेखक की जगह क्या लिखा +रहता था? +
उ. एन इंिडयन नेशनलिस्ट। +22. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' के सन् 1929 के तृतीय अंग्रेजी संस्करण +की क्या विशेषता थी? +
उ. सर्वप्रथम लेखक के रूप में वीर सावरकर का नामोल्लेख। +23. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ के प्रथम खंड से एक प्रसिद्घ +नारा सुभाषचन्द्र बोस ने दिया। वह नारा बताइये। +
उ. दिल्ली चलो। +24. '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर' ग्रन्थ का प्रारम्भ जिन सन्त के पद्य से +होता है, उनका नाम बताइये। +
उ. समर्थ गुरू रामदास। +25. 'क्रान्ति का अर्थ ही है मानव जाति के ऐतिहासिक जीवन की पुनव्र्यवस्था' +यह परिभाषा देने वाले प्रसिद्घ क्रान्तिकारी का नाम बताइये। +
उ. मैजिनी। +26. 'चर्बी वाले कारतूस और अवध के सिंहासन का हड़पा जाना तो क्रान्ति के +अस्थाई और निमित्त कारण थे।' इसे समझाने के लिए वीर सावरकर ने क्या +उपमा दी? +
उ. राम-रावण संघर्ष में सीता हरण तो निमित्त मात्र है। +27. वस्तुत: 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम को प्रदीप्त करने वाले दिव्य तत्व क्या थे? +
उ. स्वधर्म व स्वरा…य। +28. 'हम शत्रुओं का नाश कर अपने प्राण प्रिय धर्म एवं स्वदेश को पूर्णरूपेण +भयमुक्त कर लेने में सफलता प्राप्त कर लेंगे' दिल्ली सम्राट की इस घोषणा +का उद्घरण किस पुस्तक में मिलता है? +
उ. फिक्शन एक्सपोज्…ड। +29. 'यह (क्रान्ति) तो भारत पर आंग्ल सत्ता के विरुद्घ सैनिक कठिनाइयों, +राष्ट्रीय घृणा और धार्मिक कट्टरता का संयुक्त उभार था।' यह आकलन किस +प्रसिद्घ इतिहासकार का है? +
उ. जस्टिन मैकार्थी का। +30. 'जिस दिन अंग्रेजों ने इस हिन्दू भूमि पर अपनी दासता का पाश लादने के +लिए राक्षस सरीखा धावा बोला, उसी दिन हिन्दुओं और अंग्रेजों में होने वाले +युद्घ का भी निश्चय हो गया था।' उसका आरम्भ कैसे होगा? यह जिस +व्यक्ति के कारण निर्धारित हुआ उसका नाम बताइये। +
उ. लॉर्ड डलहौजी। +31. अंग्रेज इतिहासकारों ने 'साम्रा…य निर्माता' की संज्ञा किसे दी है? +

उ. डलहौजी को। +32. 'मैं भारत की भूमि को सपाट करके रख दूँगा।' यह साम्रा…यवादी गर्वोक्ति +किसने की थी? +

उ. लॉर्ड डलहौजी ने। +33. महाराजा रणजीत सिंह के नाबालिग पुत्र का नाम बताइये जिसे अंग्रेजों ने +ईसाई बना दिया? +

उ. दिलीप सिंह। +34. '... उसे बंगाल की सेना के एक सहायक कर्मचारी की देखरेख में रखा +गया, जिसके निर्देशन में सिख राजकुमार का विकास एक भद्र ईसाई, एक +अंग्रेज दरबारी के रूप में हुआ।' अंग्रेजों की इस कुटिल नीति को उजागर +करने वाले इतिहासकार का नाम बताइये। +
उ. केयी। +35. 1825 में कोटा तथा 1837 में ओरछा नरेश को दत्तक पुत्र की अनुमति दी +पर 1848 में औरस पुत्र उत्तराधिकारी न होने के आधार पर अंग्रेजों ने किस +रा…य को हड़प लिया? +
उ. सतारा। +36. वैध उत्तराधिकारी के अभाव में अंग्रेजों की रा…य हड़प नीति का विरोध +करने इंग्लैंड जाने वाले मराठा का नाम बताइये। +
उ. रंगो बापू जी गुप्ते। +37. 1826 में 'सतत् मैत्री' की संधि ईस्ट इंडिया कम्पनीऔर नागपुर के जिस +शासक के बीच हुई उनका नाम बताइये। +
उ. रघोजी भोंसले। +38. डलहौजी ने 'सतत् मैत्री' संधि का उल्लंघन कर किस सन् में नागपुर को +हड़प लिया? +
उ. सन् 1853 ई. में। +39. नाना साहब पेशवा के जन्म स्थान का नाम बताइये। +
उ. वेणु ग्राम। +40. नाना साहब पेशवा की माता का नाम बताइये। +
उ. गंगा बाई। +41. नाना साहब पेशवा के पिता का नाम बताइये। +
उ. माधवराव नारायण। +42. नाना साहब पेशवा का जन्म किस वर्ष में हुआ? +
उ. सन् 1824 ई. में। +43. बाजीराव द्वितीय ने नाना साहब को अपने दत्तक पुत्र के रूप में किस दिन +को ग्रहण किया? +
उ. 7 जून 1827 ई. को। +44. लक्ष्मी बाई का जन्म किस नगर में हुआ? +
उ. काशी में। +45. लक्ष्मी बाई के पिताजी का नाम बताइये। +
उ. मोरोपन्त तांबे। +46. लक्ष्मी बाई की माता का नाम बताइये। +
उ. भागीरथी बाई। +47. लक्ष्मी बाई की जन्मतिथि बताइये। +
उ. 19 नवम्बर 1835। +48. लक्ष्मी बाई का माता-पिता ने क्या नाम रखा था? +
उ. मनु बाई। +49. लक्ष्मी बाई को बचपन में किस Œयार के नाम से बोलते थे? +
उ. छबीली। +50. लक्ष्मी बाई का विवाह झांसी के किस राजा से हुआ? +
उ. महाराजा गंगाधर से। +51. 'यदि यह पेंशन सदैव के लिए टिकने वाली नहीं है तो फिर इस पेंशन के +बदले में दिया गया रा…य भी सदैव के लिए तुम्हारे पास किस प्रकार रह +सकता है।' यह प्रसिद्घ वाक्य किनका है? +
उ. नाना साहब पेशवा का। +52. नाना साहब ने कम्पनी सरकार के विरुद्घ लंदन में अपना पक्ष रखने के +लिए राजदूत के रूप में किसे भेजा? +
उ. अजीमुल्ला खाँ को। +53. नाना साहब का निवास किस नगर में था? +
उ. बिठूर में। +54. नाना साहब को प्रतिदिन अंग्रेजी समाचार पत्र पढ़कर सुनाने वाले अंग्रेज +का नाम बताइये। +
उ. टॉड। +55. 1853 में अपने पति की मृत्यु के बाद लक्ष्मीबाई ने दत्तक पुत्र के रूप में +किसे ग्रहण किया? +
उ. दामोदर राव को। +56. अंग्रेजों द्वारा झाँसी का अधिग्रहण करने के फैसले पर रानी ने गरजकर क्या +प्रतिक्रिया व्यक्त की? +
उ. 'मैं अपनी झाँसी किसी को भी नहीं दूँगी।' +57. अंग्रेजी सेना पर प्रति वर्ष सोलह लाख रुपये खर्च देने में असमर्थ रहने पर +अंग्रेजों ने अवध के नवाब का कौनसा क्षेत्र बलात् हड़प लिया? +
उ. रूहेलखंड। +58. 'मेरा यह सुदृढ़ विश्वास है कि यदि यह शिक्षा योजना सुचारू रूप से जारी +रही तो तीस वर्ष पश्चात् बंगाल में एक भी मूर्तिपूजक न रह जाएगा।' लॉर्ड +मैकाले ने यह पत्र 12 अक्टूबर 1836 को किसे लिखा था? +
उ. अपनी माँ को। +59. कम्पनी सरकार के सरकारी कागज-पत्रों में भारतवासियों का उल्लेख +किस शब्द से किया जाता था? +
उ. हीदन। +60. मिशनरियों ने सेना के ईसाईकरण का प्रयत्न किस उद्देश्य से प्रारम्भ किया +था? +
उ. सेना को राजभक्त बनाने के लिए। +61. 'मैं निरन्तर बीस वर्ष से सिपाहियों को ईसाई बनाने के कार्य में संलग्न हूँ। +इन मूर्तिपूजकों की आत्मा एक शैतान से सुरक्षित रहे, ऐसा करना मैं अपना +सैनिक कर्त्तव्य समझता हूँ।' यह कथन किसका है? +
उ. बंगाली सेना के कमांडर का। +62. अंग्रेजों द्वारा विवादास्पद कारतूस किस वर्ष से भारत में लाए जा रहे थे? +
उ. 1853 से। +63. चर्बी लगे कारतूसों के कपट का सैनिकों को पता किस सन् में लगा? +
उ. सन् 1857 में। +64. कारतूसों में किन जानवरों की चर्बी का मिश्रण था? +
उ. सूअर व गाय। +65. कारतूसों पर चर्बी लगाने का उल्लेख सरकारी प्रतिवेदन में सर्वप्रथम +किसने किया? +
उ. कर्नल टकर ने। +66. कारतूसों पर चर्बी के उल्लेख के सरकारी प्रतिवेदन की तिथि बताइये। +
उ. दिसम्बर 1853 ई.। +67. कारतूसों के लिए गाय की चर्बी आपूर्ति के लिए ठेकेदार से अनुबन्ध में +क्या दर तय हुई थी? +
उ. 2 पेन्स प्रति रतल। +68. भारत में चर्बी लगे कारतूस का निर्माण कारखाना कहाँ लगाया गया? +
उ. दमदम में। +69. 1857 की क्रान्ति की योजना का प्रमुख केन्द्र किस स्थान पर था? +
उ. बिठूर में। +70. 1857 की क्रान्ति में सहयोग की सम्भावना तलाशने के लिए इंग्लैंड से +लौटते हुए अजीमुल्ला खाँ किन दो देशों में गए थे? +
उ. रूस व तुर्की। +71. 1856 ई. के प्रारम्भ में ही भारत को युद्घ के लिए मानसिक व शारीरिक +रूप से तैयार करने का कार्य किन दो व्यक्तियों ने प्रारम्भ कर दिया था? +
उ. नाना साहब व अजीमुल्ला खाँ ने। +72. काली नदी पर हुए युद्घ में पकड़े गए एक भारतीय सैनिक से पूछा - +'हमारे विरुद्घ युद्घ में उतरने का साहस तुमने कैसे किया? सिपाही ने क्या +उत्तर दिया? +
उ. 'हिन्दुस्थानी सिपाही एक हो गए तो गोरा यहाँ कदापि नहीं ठहर पाएगा।' +73. मुसलमानी रा…यों विशेषकर अवध की सहायता प्राप्त करने के लिए बहादुर +शाह जफर ने कौनसा पंथ स्वीकार करने की घोषणा की थी? +
उ. शिया पंथ। +74. नाना साहब के पत्र के जवाब में सेना व धन से सहायता का आश्वासन देने +वाले जम्मू-कश्मीर के महाराजा का नाम बताइये। +
उ. महाराजा गुलाब सिंह। +75. 'राजमहलों के द्वारों के समीप बैठकर मुगल तथा अन्य लोग स्वातंत्र्य युद्घ +के सम्बन्ध में परामर्श किया करते थे।' दिल्ली बादशाह के जिस गृहमंत्री +की यह स्वीकारोक्ति है, उनका नाम बताइये। +
उ. मुकुन्दलाल। +76. अंग्रेज गुप्तचरों से बचने के लिए, क्रान्ति योजना के लिए परामर्श हेतु किन +स्थानों को चुना? +
उ. तीर्थ स्थल। +77. 1857 में एक क्रान्ति गीत लिखा गया तथा उसे गाने की राजाज्ञा प्रसारित +की गई। इसका उल्लेख करने वाले अंग्रेज लेखक का नाम बताइये। +
उ. ट्रेवेलियन। +78. गूढ़ संदेश प्रसारण तथा शौर्य जगाने के लिए गायकों ने सार्वजनिक स्थानों +पर कौनसे गीत गाना प्रारम्भ किया? +
उ. पवाड़े तथा आल्हा। +79. महिलाओं में क्रान्ति संगठन व योजना प्रचार के लिए भविष्यवक्ता व +औषधी देने वाली जिन महिलाओं का सहयोग लिया गया वे किस समुदाय +की थीं? +
उ. वैदू या जिŒसी। +80. मद्रास की दीवारों पर चिपके भिžिा-पत्रों में लिखा था - 'ये फिरंगी हमारे +देश को धूल-धूसरित करने पर तुल गए हैं। अब इनके अत्याचारों से मुक्ति +प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है, इनसे समरभूमि में युद्घ।' इन पत्रकों के +चिपकाने की तिथि बताइये। +
उ. जनवरी 1857। +81. 'रेजीमेंट में हमारे भाई का मत हमारे लिए मान्य है। कारतूसों के सम्बन्ध में +इसी के अनुरूप व्यवहार करो।' सातवीं रेजीमेंट ने यह पत्र कौनसी रेजीमेंट +को लिखा था? +
उ. अवध की 48 वीं रेजीमेंट को। +82. 'भाइयों! उठो, अत्याचारियों के विरुद्घ संघर्ष करो।' बैरकपुर के सिपाही +ने यह पत्र संदेश किस स्थान पर भेजा था? +
उ. स्यालकोट। +83. 1857 में क्रान्ति-संदेश के रूप में गाँव-गाँव में भेजे गए प्रतीक क्या थे? +
उ. रक्त कमल और रोटी। +84. क्रान्ति का प्रतीक चिह्न-कमल मिलने पर कौनसा रहस्यमयी कथन किया +जाता था? +
उ. सबकुछ लाल हो जाएगा। +85. क्रान्ति युद्घ के इतिहास में योजना की गोपनीयता के सम्बन्ध में '1857 के +स्वातंत्र्य समर' की क्या विलक्षणता है? +
उ. योजना की गोपनीयता कहीं भंग नहीं हुई। +86. क्रान्ति के लिए ललकारते हुए अपने साथी सिपाहियों से यह किसने कहा +- 'उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगन्ध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन +अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार कर दो'? +
उ. मंगल पांडे। +87. मंगल पांडे को बंदी बनाने का आदेश किसने दिया? +
उ. सार्जेंट मेजर ह्यूसन ने। +88. मंगल पांडे को बंदी बनाने के अंग्रेज सार्जेंट के आदेश का क्या परिणाम +हुआ? +
उ. एक भी सैनिक आगे नहीं आया। +89. मंगल पांडे की गोली से मरे अंग्रेज सैनिक अधिकारी का नाम बताइये। +
उ. सार्जेंट मेजर ह्यूसन। +90. मंगल पांडे ने तलवार के वार से जिस अंग्रेज सैनिक अधिकारी को +धराशायी किया, उसका नाम बताइये। +
उ. लैफ्टिनेन्ट बॉब्ह। +91. कर्नल ह्वीलर ने गोरे सैनिकों से मंगल पांडे को बंदी बनाने के लिए कहा +तो भारतीय सैनिकों ने क्या कहा? +
उ. 'मंगल पांडे को हाथ लगाने का कोई दुस्साहस न करे।' +92. अंग्रेजों के हाथ पडऩे से बचने के लिए मंगल पांडे ने क्या किया? +
उ. स्वयं को गोली मार ली। +93. 1857 की क्रान्ति का प्रथम विस्फोट किस तिथि को हुआ? +
उ. 29 मार्च 1857 को। +94. 1857 की क्रान्ति का प्रथम विस्फोट किस छावनी से हुआ? +
उ. बैरकपुर। +95. 1857 की क्रान्ति का प्रथम विस्फोट करने वाले क्रान्तिकारी का नाम +बताइये। +
उ. मंगल पांडे। +96. घायल मंगल पांडे को किस दिन प्राणदंड दिया गया? +
उ. 8 अप्रेल 1857 को। +97. मंगल पांडे से अंग्रेज इतने भयभीत थे कि स्वतंत्रता समर के प्रत्येक +सिपाही को ही उन्होंने एक सम्बोधन दिया जो क्रान्तिकारी का पर्यायवाची +बन गया। वह सम्बोधन क्या था? +
उ. पांडे। +98. रात्रि में गोरे सैनिक अधिकारियों के घरों में आग लगाकर बदला लेने का +तरीका सर्वप्रथम किस छावनी में अपनाया गया? +
उ. अम्बाला। +99. पुरस्कार के लालच के बाद भी कोई मुखबिर अंग्रेजों को प्राप्त न होता था। +निराश होकर गवर्नर जनरल को यह किसने लिखा - 'इट इज रियली स्ट्रेंज +दैट द इंसिदिअरीस शुड नेवर बी डिटेक्टेड'? +
उ. अंग्रेजों के प्रधान सेनापति एन्सन ने। +100. क्रान्ति समय पूर्व प्रारम्भ हो गई। पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की वास्तविक +तिथि क्या तय की गई थी? +
उ. 31 मई। +प्रश्नोत्तरी १०१ से २००. +101. 3 मई 1857 को चार सिपाही अंग्रेज अधिकारी के तम्बू में घुसे और बोले- +'व्यक्तिगत रूप से तो तुम्हारे प्रति हमारे मन में कोई द्वेष नहीं है, किन्तु तू +फिरंगी है अत: तुझे मरना ही चाहिए।' उस अंग्रेज अधिकारी का नाम क्या +था? +
उ. लैफ्टिनेंट मैशम। +102. 6 मई 1857 को मेरठ छावनी की घुड़सवार टुकड़ी के 90 सैनिकों में से +कितनों ने कारतूस छूने से भी मना कर दिया? +
उ. 85 सैनिकों ने। +103. जिन सैनिकों ने कारतूस छूने से मना किया उन्हें क्या सजा सुनाई गई? +
उ. 8 से 10 वर्ष कारावास। +104. जिन सैनिकों ने कारतूस छूने से मना किया, तोपखाने के पहरे में उनके +हथियार छीन लिये, वरदी फाड़ दी तथा हथकड़ी-बेडिय़ाँ डाल दी। इतना +ही नहीं, यह दृश्य देखने के लिए मेरठ छावनी के भारतीय सैनिकों को +विवश किया गया। यह घटना किस तिथि की है? +
उ. 9 मई 1857 की। +105. 'तुम्हारे भाई कारागारों में हैं और तुम यहाँ मक्िखयाँ मारते घूम रहे हो। +तुम्हारे जीवन पर शत् बार धिक्कार है।' बाजार में घूमते सैनिकों पर महिलाओं +के ताने कसने की यह घटना किस स्थान की है? +
उ. मेरठ। +106. मेरठ छावनी में क्रान्ति का बिगुल किस तिथि को बजा? +
उ. 10 मई को। +107. मेरठ छावनी का क्रान्ति घोष क्या था? +
उ. मारो फिरंगी को। +108. मेरठ छावनी में क्रान्ति का प्रारम्भ किस पलटन ने किया? +
उ. बीसवीं व अश्वारोही पलटन ने। +109. मेरठ छावनी के क्रान्तिकारी सिपाहियों ने सबसे पहला काम क्या किया? +
उ. जेल में बंदी साथियों को छुड़ाया। +110. यदि कोई अंग्रेज पर दया दिखाने का प्रयत्न करता तो क्रान्तिकारी बंदी +सिपाहियों की बेडिय़ों के निशान दिखाकर क्या कहते थे? +
उ. 'इसका प्रतिशोध अवश्य लो।' +111. मेरठ से दिल्ली की ओर प्रस्थान करते हुए क्रान्ति सैनिकों का नारा क्या +था? +
उ. 'दिल्ली चलो।' +112. 'हम कल पहुँच रहे हैं, आप लोग आवश्यक व्यवस्थाएँ कर लीजिये' यह +अन अपेक्षित और विचित्र संदेश कहाँ से कहाँ भेजा गया था? +
उ. मेरठ से दिल्ली। +113. मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों के प्रथम दल ने दिल्ली में किस दरवाजे से +प्रवेश किया था? +
उ. कश्मीरी दरवाजे से। +114. मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों के द्वितीय दल ने दिल्ली में किस दरवाजे से +प्रवेश किया था? +
उ. कलकत्ता दरवाजे से। +115. 'मेरे पास तो राजकोष में भी कुछ नहीं, फिर मैं तुम्हारा वेतन कहाँ से दे +पाऊँगा।' यह बात किसने कही? +
उ. बहादुर शाह जफर ने। +116. दिल्ली के शस्त्रागार का अधिकारी कौन था जिसने क्रान्तिकारियों के हाथ +पडऩे से पूर्व ही उसमें आग लगाकर आत्मबलि दे दी? +
उ. लैफ्टिनेंट विलोवी। +117. 'किसी ग्राम अथवा दिल्ली में एक भी ऐसी घटना नहीं घटित हुई जिसमें +किसी अंग्रेज महिला के पावित्र्य का भंग किया गया हो' अंग्रेजों द्वारा नियुक्त +जाँच-समिति की यह स्वीकारोक्ति भारतीय संस्कृति की किस विशेषता को +बताती है? +
उ. मातृवत् परदारेषु। +118. 'जहाँ तक मैंने जाँच की है, महिलाओं से छेड़छाड़ का कोई भी प्रमाण मुझे +नहीं मिला' यह स्वीकारोक्ति करने वाले गुप्तचर विभाग के प्रमुख का नाम +बताइये। +
उ. सर विलियम म्यूर। +119. मई 1857 में बैरकपुर से आगरा पर्यन्त 750 मील के क्षेत्र में अंग्रेजों की +एकमात्र रेजीमेंट कहाँ थी? +
उ. दानापुर में। +120. अंग्रेजों के सौभाग्य से किस देश से उनका युद्घ समाप्त होने के कारण वहाँ +की सेना को तुरन्त भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन को दबाने के लिए लाना +सम्भव हो पाया? +
उ. ईरान से। +121. लॉर्ड कैनिंग ने स्वतंत्रता युद्घ को दबाने के लिए किस देश से संघर्ष के +लिए प्रस्थान कर रही सेना को भारत में ही रोक लिया? +
उ. चीन से। +122. 'तुम्हारे धर्म अथवा जाति विषयक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप करने का +हमारा किंचित भी इरादा नहीं है। तुम यदि चाहते हो तो अपने हाथों से ही +कारतूसों का निर्माण कर सकते हो।' यह वक्तव्य किसने दिया? +
उ. लॉर्ड कैनिंग ने। +123. दिल्ली में क्रान्ति होने का समाचार प्रधान अंग्रेज सेनापति को किस स्थान +पर प्राप्त हुआ? +
उ. शिमला में। +124. अम्बाला छावनी से दिल्ली के बीच स्थित उन तीन देशी रा…यों के नाम +बताइये जिनके आचरण से क्रान्ति की सफलता या असफलता तय होने +वाली थी? +
उ. पटियाला, नाभा और जींद। +125. अम्बाला छावनी से दिल्ली के बीच स्थित तीन देशी रा…यों का अंग्रेजों के +लिए सामरिक दृष्टि से क्या महत्व था? +
उ. इनके सहयोग बिना दिल्ली पर आक्रमणकारी अंग्रेज सेना का पृष्ठ भाग +असुरक्षित हो जाता। +126. पटियाला के शासक ने अंग्रेज हित में किस मार्ग की सुरक्षा का दायित्व +लिया? +
उ. थानेसर मार्ग का। +127. अंग्रेजों के आग्रह पर पानीपत की रक्षा का भार किस देशी रा…य ने लिया? +
उ. जींद। +128. 'मैं अपराधियों के निर्दोष अथवा दोषी होने पर विचार न करता हुआ उन्हें +निश्चित रूप से मृत्युदंड ही दूँगा।' यह शपथ अंग्रेजों द्वारा क्रान्तिकाल में +स्थापित किन न्यायालयों के न्यायाधीशों को लेनी पड़ती थी? +
उ. सैनिक न्यायालय। +129. जहाँ बैठकर काले लोगों को सामूहिक मृत्युदंड का ही फैसला जिन +अंग्रेज पंचों को प्रतिज्ञापूर्वक करना था, उन आसनों को अंग्रेजों ने क्या नाम +दिया? +
उ. कोर्ट मार्शल। +130. पाँच तोपें अंग्रेजों के हाथ पडऩे से बचाने के लिए ग्यारहवीं पलटन के एक +सैनिक ने बारूद में आग लगाकर तोपों के साथ स्वयं का भी बलिदान दे +दिया। 30 मई 1857 का यह युद्घ किस स्थान पर हुआ? +
उ. हिंडन नदी के तट पर। +131. मेजर रीड के नेतृत्व में मेरठ की अंग्रेज सेना की सहायता किस देशी +पलटन ने की थी? +
उ. गोरखा पलटन ने। +132. दिल्ली के समीप किस स्थान पर अंग्रेज सेना व क्रान्तिकारियों के बीच +प्रथम युद्घ हुआ? +
उ. बुन्देलों की सराय। +133. दिल्ली के समीप अंग्रेज सेना व क्रान्तिकारियों के बीच प्रथम युद्घ किस +तिथि को हुआ। +
उ. 7 जून 1857 को। +134. दिल्ली के समीप अंग्रेज सेना व क्रान्तिकारियों के बीच प्रथम युद्घ में मारे +गये प्रमुख अंग्रेज अधिकारी का नाम बताइये। +
उ. कर्नल चेस्टर। +135. पंजाब के लोगों का निरस्त्रीकरण तथा सिखों को अंग्रेजी सेना में भर्ती कर +उनकी स्वातंत्र्य प्रवृžिा का दमन करने के षड्यंत्र में अग्रणी दो अंग्रेज +अधिकारियों में से किसी एक का नाम बताइये। +
उ. सर हेनरी लॉरेन्स तथा सर जॉन लॉरेन्स। +136. 'लोग शान्ति के युग को सदा ही Ÿोयस्कर मानते हैं। उनके कृषि कार्य में +जिन क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण व्यवधान पड़ता है उसमें योगदान +देना भी उन्हें नहीं सुहाता।' अंग्रेजों की कूटनीति का यह कुटिलतम सिद्घान्त +1857 में किस प्रान्त में पूर्णतया सफलतम सिद्घ दिखता है? +
उ. पंजाब। +137. 'साहब वे सब फिसाद की भावनाओं से भरे हुए हैं।' अंग्रेजों के एक +गुप्तचर ने यह बात किस छावनी के सैनिकों के सम्बन्ध में कही? +
उ. मीयां मीर छावनी, लाहौर। +138. मेरठ के समाचार तथा गुप्तचर की सूचना पर लाहौर के सेनाधिकारी रॉबर्ट +मोन्टगुमरी ने क्या कदम उठाया? +
उ. सेना का निरस्त्रीकरण। +139. अंग्रेजों ने क्रान्ति के बाद दिल्ली पर आक्रमण में सिखों का सहयोग प्राप्त करने के +लिए जिस भविष्यवाणी का योजनापूर्वक स्मरण उन्हें कराया, वह क्या थी? +
उ. 'जिस स्थान पर मुगल बादशाह ने सिख गुरूओं की हत्या की थी, उसी +दिल्ली पर बारह दिन खालसा वीर आक्रमण कर उसे धूल में मिला देंगे।' +140. 21 अक्टूबर 1857 ई. को किस अंग्रेज अधिकारी ने अपने पत्र में यह +लिखा था - 'यदि सिख हमारे विरुद्घ क्रान्तिकारियों के साथ मिल जाते तो +हमारी रक्षा करना मानवी शक्ति से परे था'? +
उ. सर जॉन लॉरेन्स। +141. बहादुर शाह जफर के विरुद्घ सिखों में रोष की …वाला भड़काने के लिए +अंग्रेजों ने क्या अफवाह उड़ाई? +
उ. बहादुरशाह ने प्रथम आदेश यह प्रसारित किया है कि जहाँ कहीं भी सिख +मिले, उसकी हत्या कर दी जाए। +142. पंजाब की किस छावनी में 13 मई को क्रान्ति का विस्फोट हुआ? +
उ. फिरोजपुर। +143. सैनिकों के हथियार रखवाने से क्षुब्ध अफसरों ने उनके पक्ष में अपने +पदक व पद का परित्याग कर दिया। यह घटना किस छावनी की है? +
उ. पेशावर। +144. 55 वीं पलटन के उस अंग्रेज अधिकारी का नाम बताइये जिसने पलटन +के नि:शस्त्रीकरण के अपमान से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली? +
उ. कर्नल स्पाटिस्वुड। +145. अपने अधिकारी की आत्महत्या का समाचार सुनकर क्रान्ति यज्ञ में कूद +पडऩे वाली 55 वीं पलटन पंजाब की किस छावनी में तैनात थी? +
उ. होतीमर्दान। +146. अपने प्रिय धर्म को छोडऩे की बजाय जिन वीरों ने तोप के मुँह पर बँधकर +मरना पसन्द किया, 55 वीं पलटन के उन सैनिकों की संख्या बताइये। +
उ. एक हजार। +147. अंग्रेजों की क्रूरता का बचाव अंग्रेजी इतिहासकारों ने क्या कहकर किया? +
उ. 'घड़ी भर की क्रूरता में सदैव के लिए मानवता का मंगल निहित था।' +148. पूर्व निर्धारित योजनानुसार जालंधर क्वींस रेजीमेंट ने किस दिन क्रान्ति का +शंखनाद किया? +
उ. 9 जून 1857 को। +149. पुराने कैदी सैनिकों की चौकसी से छुटकारा पाने तथा नए कैदियों के लिए +जगह करने के लिए अजनाला में कितने सैनिकों की हत्या की गई? +
उ. 282 सैनिकों ने। +150. 'अजनाला हत्याकांड' का हत्यारा कौन था? +
उ. कूपर। +151. 'अजनाला हत्याकांड' की तिथि बताइये। +
उ. 1 अगस्त 1857 के दिन। +152. 'सम्पूर्ण हिन्दुस्थान के सिपाही चाहे विद्रोह करें, किन्तु यह पलटन विद्रोह +में कदापि सहयोग नहीं देगी।' किस पलटन के सम्बन्ध में अंग्रेजों की यह +गर्वोक्ति थी? +
उ. अलीगढ़ की 9 वीं रेजीमेंट। +153. 'बन्धुओं! तुम देख रहे हो इस हुतात्मा ने रक्त से स्नान कर लिया है।' +क्रान्ति के संदेशवाहक को मृत्युदंड के बाद इस ललकार ने तुरन्त क्रान्ति +की आग सुलगा दी; यह पलटल कौनसी थी? +
उ. अलीगढ़ की 9 वीं रेजीमेंट। +154. क्रान्ति सेना ने किस तिथि को अलीगढ़ अंग्रेजों से मुक्त करा लिया? +
उ. 20 मई 1857 को। +155. इटावा के उस जिलाधीश का नाम बताइये जो क्रान्ति के बाद भारतीय +महिला का वेश बनाकर भाग गया। +
उ. एलेन ओ. ह्यूम। +156. 15 वीं व 30 वीं पलटन ने 28 मई 1857 को क्रान्ति का शंखनाद कर +दिया। यह घटना किस छावनी की है? +
उ. नसीराबाद। +157. रुहेलखंड की तात्कालिक राजधानी बरेली में किस तिथि को क्रान्ति +हुई? +
उ. 31 मई 1857 को। +158. काशी के निकट सैनिक छावनी किस स्थान पर थी? +
उ. सिक्रोली ग्राम। +159. 'भाग्य की विडम्बना देखिए कि वारेन हैस्टिंग्ज ने जिस चेतसिंह पर अपने +बूट की ठोकरों का प्रहार किया था उसी के वंशज अंग्रेजों के तलुए चाटने में +सौभाग्य का अनुभव करने लग गए थे।' यह कथन किस रा…य के लिए +किया गया है? +
उ. काशी। +160. 4 जून 1857 को किस स्थान पर क्रान्ति हुई? +
उ. काशी। +161. 'अनेक प्रमुख व्यापारियों एवं अन्य लोगों ने भी हमारे प्रति प्रचंड द्वेष +भावना अभिव्यक्त की। इतना ही नहीं, उनमें से अनेकों ने तो हमारे विरुद्घ +सक्रिय युद्घ में भी भाग लिया।' नील के इस पत्र में किन व्यापारियों का +उल्लेख है? +
उ. मारवाड़ी। +162. प्रयाग के क्रान्तिकारियों के नेतृत्वकर्ता का नाम लिखिये। +
उ. मौलवी लियाकत अली। +163. 'प्रतिदिन हम आठ-दस व्यक्तियों को तो निश्चित रूप से ही फँसाते थे। +... दंिडत अपराधी को उसके गले में फन्दा डालकर एक गाड़ी पर +चढ़ाकर वृक्ष से बाँध दिया जाता था। गाड़ी को आगे बढ़ाया कि उसकी देह +वृक्ष से झूल गई।' यह स्वीकारोक्ति करने वाले जाँच समिति के अध्यक्ष का +नाम बताइये। +
उ. चाल्र्स बॉल। +164. सम्पूर्ण हिन्दुस्थान में जितने अंग्रेजों की हत्या हुई उनसे अधिक संख्या में +भारतीयों की हत्या केवल प्रयाग में ही करवाने वाले अंग्रेज अधिकारी का +नाम बताइये। +
उ. जनरल नील। +165. 'तीन मास तक आठ शव ढोने वाली गाडिय़ाँ सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त +तक उन शवों को एकत्र करने के लिए चक्कर लगाती थीं, जो राजमार्गों और +बाजारों में लटकाए जाते थे। इस प्रकार लगभग छ: हजार व्यक्तियों को +प्राणदंड दिया गया।' यह घटना किस क्षेत्र की है? +
उ. कानपुर। +166. 'स्वदेश के लिए मैंने यह घोर अत्याचार किए हैं। परमात्मा मुझे क्षमा प्रदान +करेगा।' अपनी क्रूरता को इंग्लैंड हित में क्षम्य बताने वाले इस अंग्रेज +अधिकारी का नाम बताइये। +
उ. जनरल नील। +167. तात्या टोपे का जन्म-स्थान बताइये। +
उ. यवला (परगना पालोडा, जिला नगर) +168. तात्या टोपे का बचपन का नाम बताइये। +
उ. रघुनाथ/रामचन्द्र। +169. तात्या टोपे का जन्म किस सन् में हुआ? +
उ. सन् 1814 ई. में। +170. तात्या टोपे के पिताजी का नाम बताइये। +
उ. श्री पांडुरंग। +171. कानपुर में क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र स्थल किनका निवास स्थान +था? +
उ. सूबेदार टीकासिंह का। +172. गुप्त क्रान्ति कार्य में सहयोगी कानपुर की नर्तकी का नाम बताइये। +
उ. अजीजन बाई। +173. कानपुर की क्रान्तिकारी गतिविधियों को अपनी डायरी में लेखबद्घ करने +वाले अंग्रेजों के क्रीतदास वकील का नाम बताइये। +
उ. नानकचन्द। +174. कानपुर में क्रान्ति का शंखनाद किस तिथि को हुआ? +
उ. 4 जून 1857 रात्रि को। +175. 'हम अब आक्रमण करने वाले हैं, अत: आपको पूर्व सूचना दे रहे हैं।' 6 +जून 1857 को नाना साहब का यह पत्र किसे प्राप्त हुआ? +
उ. सर ओ. ह्वीलर को। +176. कानपुर की जिस गढ़ी में अंग्रेजों ने मोर्चेबन्दी कर रखी थी वहाँ, कितने +दिन तक घ्ोराबन्दी के साथ युद्घ चला? +
उ. 21 दिन। +177. कानपुर की गढ़ी से सहायता के लिए एक पत्र कबूतर के साथ लखनऊ +पहुँचाया गया जिसमें लिखा था - 'अविलम्ब सहायता प्रदान करो, शीघ्रता +करो, अन्यथा हमारी आशा त्याग दो' यह पत्र जिन तीन भाषाओं में लिखा +गया था, उनके नाम बताइये। +
उ. लैटिन, फ्रैंच और अंग्रेजी। +178. कानपुर की गढ़ी की अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण इमारतों को स्वाहा करने +के लिए नवीन विस्फोटक अस्त्र का आविष्कारक कौन था? +
उ. काने करीम अली का पुत्र। +179. क्रान्ति के समय लूटपाट व अराजकता पर नियंत्रण के लिए नाना साहब ने +किस संस्था का गठन किया? +
उ. न्याय सभा। +180. कानपुर की गढ़ी के अंग्रेजों ने किस तिथि को आत्मसमर्पण कर दिया? +
उ. 23 जून 1857 को। +181. कानपुर की गढ़ी के समर्पण करने वाले अंग्रेजों को सकुशल प्रयाग भेजने +के लिए कितनी नौकाएँ तैयार करवाई गई? +
उ. चालीस। +182. कानपुर में आत्मसमर्पण करने वाले अंग्रेजों को प्रयाग भेजने के लिए +नौकाएँ किस घाट पर लगाई गईं? +
उ. सती चौरा घाट। +183. कानपुर में आत्मसमर्पण करने वाले अंग्रेज, सकुशल प्रयाग पहुँ‘ाने के +आश्वासन पर नौकाओं में बैठे, तात्या टोपे ने हाथ हिलाकर विदाई दी तभी +बिगुल बजा और नौकाएँ डुबो दी गईं। यह घटना किस तिथि की है? +
उ. 27 जून 1857 की। +184. कानपुर में 7 जून को एक हजार अंग्रेज थे। 30 जून तक उनमें से कितने +बचे थे? +
उ. 525 अंग्रेज बचे थे। +185. कानपुर विजय के बाद नाना साहब का रा…याभिषेक किस तिथि को +सम्पन्न हुआ? +
उ. 1 जुलाई 1857 को। +186. झाँसी में तैनात 12 वीं रेजीमेंट में क्रान्तिकारी गतिविधियों के संचालन का +प्रमुख सूत्र कौन था? +
उ. लक्ष्मण राव। +187. झाँसी के दुर्ग पर चढ़ाई कर क्रान्तिकारियों ने विजय पताका फहराई। इस +घटना की तिथि बताइये। +
उ. 7 जून 1857 को। +188. 'झांसी के दुर्ग पर विद्रोहियों के आक्रमण का नेतृत्व करने वालों के नाम +बताइये'। +
उ. रिसालदार काले खां व तहसीलदार मुहम्मद हुसैन। +189. लखनऊ स्थित अंग्रेजों की सुरक्षा के लिए सर हेनरी लारेन्स ने किन दो +स्थानों का चयन किया? +
उ. म‘छी भवन, रेजीडेंसी रोड। +190. लखनऊ में क्रांति का विस्फोट किस तिथि को हुआ? +
उ. 30 मई 1857 को। +191. फैजाबाद के सिपाहियों ने दलीपसिंह के नेतृत्व में कारागृह पर आक्रमण +कर जिस क्रांतिकारी मौलवी को छुड़ाया, उनका नाम बताइये? +
उ. मौलवी अहमद शाह। +192. फैजाबाद की जेल से छूटने के बाद मौलवी ने सर्वप्रथम धन्यवाद का +सन्देश उस अंग्रेज अधिकारी के पास भेजा जिसने कारागार में हुक्का रखने +की अनुमति दी थी? +
उ. कर्नल लेनाक्स। +193. 9 जून 1857 को एक पत्र प्रकाशित कर अवध में किसके शासन की +पुनस्र्थापना की घोषणा की गई? +
उ. नवाब वाजिद अलीशाह। +194. अवध के जिन नरेशों ने अपनी शरण में आने वाले गोरों की प्राणरक्षा मात्र +ही नहीं की अपितु इनकी भली भांती आवभगत भी की ऐसे किसी एक +शरणदाता का नाम बताइये। +
उ. मानसिंह / बुलीसिंह / नजीम हुसैन खाँ। +195. 'इन्हें प्राणदान न दो, क्योंकि समय आने पर ये हमसे पुन: संघर्ष करने को +सिद्घ हो जायेंगे।' गोरों को शरण देने वालों से यह आग्रह किसने किया? +
उ. जनता ने। +196. 'हमने प्रजा के कल्याण की भावना से ही वाजिद अली को सिंहासन‘युत +किया है।' यह बात किसने कही थी? +
उ. लॉर्ड डलहौजी। +197. हेनरी लारेन्स के नेतृत्व में लखनऊ से चली सेना पर क्रांतिकारियों के +आक्रमण में 400 में से 150 गोरे मारे गये। यह युद्घ किस स्थान पर हुआ था? +
उ. चिनहट। +198. ग्वालियर के उस शासक का नाम बताइये जिसे जनता ने यह कहा- +'मातृभूमि को तुम मुक्त नहीं कराना चाहते तो तुम्हारे बिना ही, और यदि +समय आ जाए तो तुम्हारे विरोध को सहन करके भी हम अपने इस पावन +दायित्व का निर्वाह करेंगे।' +
उ. जयाजी शिन्दे। +199. 'हम अपने देश बांधवों के विरूद्घ हथियार उठाने को भी तैयार नहीं हैं।' +आगरा में क्रांतिकारियों से लडऩे के लिए भेजी किन रा…यों की सेनाओं ने +यह बात कही? +
उ. बितौली और भरतपुर। +200. भयभीत, अधीर, सन्तŒत अंग्रेजों ने हाउस ऑफ लॉर्डस में यह प्रश्न पूछा- +'क्या कानपुर के हत्याकांड के समाचार सही हैं?' यह प्रश्न किस तिथि को +पूछा गया था? +
उ. 14 अगस्त 1857 को। +प्रश्नोत्तरी २०१ से ३००. +201. '1857 के भारतीय स्वातंत्र्य समर में चार-पांच स्थानों में ही हुए हत्याकांडों +की क्रूरता पर आश्चर्य व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं' तो आश्चर्य +किस बात पर होना चाहिए? +
उ. हत्याकांडों की ये घटनाऐं इतनी कम क्यों हुई। +202. 'जिस अवध के सीने में अंग्रेजों ने अपनी खूनी कटार बडी गहराई तक +घोंप दी थी, उसी अवध के नागरिकों ने तितर-बितर होकर पलायन +करने वाले अंग्रेजों से नितांत ही उदारता का व्यवहार किया था।' यह +त‰य फारेस्ट द्वारा लिखित जिन दस्तावेजों में उपलब्ध है, उनका नाम +बताइये। +
उ. स्टेट पेपर्स। +203. नवाब को फांसी के तख्ते पर चढ़ाने से पूर्व उसके शरीर पर सूअर की +चर्बी का लेप करने की निर्ल”ा आज्ञा दी गई। यह नवाब कहां के थे? +
उ. फर्रुखाबाद। +204. 1857 में किसी को गाली देनी होती तो क्या कहते थे? +
उ. राजभक्त। +205. 'जो व्यक्ित गोवध करते मिल जाए, उसे तोप के गोले से उड़ा दिया जाए +या उसके हाथ पैर काट दिये जाएं।' हाथी पर बैठकर शहर में यह घोषणा +किसने करवायी थी? +
उ. बहादुरशाह जफर। +206. दिल्ली के परकोटे के एक द्वार के पास, यमुना नदि से चार मील की दूरी +तक फैली पहाड़ी,जिस पर अंग्रेजों ने मोर्चेबन्दी की थी, उसे अंग्रेजों ने क्या +नाम दिया? +
उ. रिज। +207. दिल्ली की क्रांतिकारी सेना का प्रधान सेनापति किसे नियुक्त किया गया? +
उ. बख्त खाँ को। +208. कानपुर पर आक्रमण करने आने वाली अंग्रेज सेना से युद्घ के लिए नाना +साहब ने किस नदी के तट पर मोर्चा लगाया? +
उ. पांडु नदी के। +209. जब अंग्रेजों ने फतेहपुर में आग लगा दी तो उसके प्रतिशोध में किस +बन्दीगृह को जलाने का निश्चय किया गया? +
उ. बीबी की कोठी। +210. कानपुर पर पुन: अंग्रेजों का अधिकार किस तिथि को हुआ? +
उ. 10 जुलाई 1857 को। +211. कानपुर पर आक्रमणकारी अंग्रेज सेना का प्रमुख कौन था? +
उ. जनरल हेवलॉक। +212. 'मुझे यह विदित है कि फिरंगी के रक्त का स्पर्श करने अथवा उसके दागों +को झाडू से धोने पर हिन्दू धार्मिक दृष्टि से पतित हो जाते हैं। किन्तु हमने +केवल इसलिए ऐसा नहीं किया, अपितु हम तो वध स्तम्भ पर लटकाने से +पूर्व उनकी सभी धार्मिक भावनाओं को पददलित करने के लिए ऐसा कर +रहे हैं, जिससे कि उनको मरने से पूर्व यह संतोष भी न मिल सके कि हम हिन्दू +रहते हुए ही प्राण दे रहे हैं।' यह स्वीकारोक्ित किस पुस्तक में उपलब्ध है? +
उ. रेड पेम्फलेट में। +213. हिन्दू मुसलमान अपनी धार्मिक वैर भावना को तिलांजलि दे चुके थे तो +चतुर फिरंगी ने कानपुर में 'छूत-अछूत' का नया विवाद खड़ा कर दिया। +यह कुटिल अंग्रेज अधिकारी कौन था? +
उ. नील। +214. कानपुर में छूत-अछूत का झगड़ा खड़ा करने के लिए कुटिल फिरंगी ने +किस सेना का गठन किया? +
उ. अछूत सेना। +215. 1857 के स्वातंत्र्य समर का एक मराठी ब्राह्मण प्रत्यक्षदर्शी था, उसका नाम +बताइये। +
उ. विष्णु भट्ट गोडसे। +216. 1857 के स्वातंत्र्य समर का आंखों देखा हाल एक मराठी ब्राह्मण ने जिस +पुस्तक में लिखा है, उसका नाम बताइये। +
उ. माँझा प्रवास। +217. 'हिन्दू धर्म और हिन्दू रा…य की स्थापनार्थ पुन: एक बार प्रयास हुआ है। +इसके करने में ईश्वर ने हमारे हाथों जो संकट आप लोगों को उठाने पडे हैं, +उनके लिए कृपा करके आप मुझे क्षमा करना।' कानपुर छोड़ते हुए जनता से +यह बात किसने कही? +
उ. श्रीमंत बाला साहब। +218. 1857 में मुसलमानों के बहावी नामक कट्टर पंथ का प्रधान केन्द्र कहां था? +
उ. पटना। +219. 1857 की क्रान्ति से भी 5 वर्ष पूर्व ही वहाबियों का एक विध्वंसक संगठन +विद्यमान था। इस त‰य को सिद्घ करने वाले अंग्रेज का नाम बताइये। +
उ. सर विलियम हन्टर। +220. 'जो परकीयों के चरणों का चुम्बन कर रहे हैं, गुरू गोविन्द सिंह के स“ो +सिख कदापि नहीं हो सकते' यह कहकर ग्रंथियों ने सिख सैनिकों को +गुरूद्वारे में प्रवेश नहीं करने दिया। यह गुरूद्वारा कौनसा था? +
उ. गुरूद्वारा पटना साहिब। +221. उस नेता का नाम बताइये जिसके निवास स्थान पर हुई क्रान्ति मंडल की +बैठक में पटना में विद्रोह का सम्पूर्ण कार्यक्रम निर्धारित किया गया? +
उ. पीर अली। +222. पटना में क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना बनाने की बैठक किस तिथि को हुई? +
उ. 3 जुलाई 1857 को। +223. पटना के प्रमुख क्रान्तिकारी नेता का व्यवसाय क्या था? +
उ. पुस्तक विक्रय। +224. 'मेरी मृत्यु के उपरान्त मेरे रक्त के प्रत्येक बिन्दु से सहस्रों वीर उठकर +खड़े होंगे और तुम्हारे रा…य को धूल में मिलाकर ही शान्ति प्राप्त करेंगे।' प्राण +दंड के समय यह साहसिक घोषणा करने वाले वीर का नाम बताइये। +
उ. पीर अली। +225. स्वरा…य के नेता वीर कुँवर सिंह कहाँ के शासक थे? +
उ. जगदीशपुर (शाहबाद जिला) के। +226. 1857 में वीर कुँवर सिंह की आयु कितनी थी? +
उ. 80 वर्ष। +227. दिल्ली में कुल कितने क्रान्ति सैनिक एकत्रित थे? +
उ. पचास हजार। +228. 'मेरी यह उत्कट अभिलाषा है कि अंग्रेजों की दासता की श्रंखला टूक- +टूक होते हुए देखूँ' यह हार्दिक इ‘छा प्रकट करने वाले कौन थे?, +
उ. बहादुर शाह जफर। +229. 'यदि आप सब शासनाधिपतिगण स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए किए जाने +वाले इस युद्घ में अपनी तलवारें हाथों में सम्भालकर आगे आने को तैयार हों +तो मैं स्वे‘छा और प्रसन्नता सहित अपने सम्पूर्ण अधिकार ऐसे किसी भी +रा…य मंडल को समर्पित कर दूँगा और ऐसा करने में मुझे आनन्द भी प्राप्त +होगा।' दिल्ली सम्राट द्वारा विभिन्न रा…यों को लिखे पत्रों का उद्घरण 'टू +नेटिव नेरेटिव्स' नामक जिस पुस्तक में मिलता है उसके लेखक का नाम +बताइये। +
उ. मेटकाफ। +230. अपनी छावनी के अहंकार व अनुशासनहीनता के कारण क्रान्ति सैनिक +साथ न लड़ सके और हम केन्द्रीय मोर्चा हार गए। यह केन्द्रीय मोर्चा कौनसा +था? +
उ. दिल्ली। +231. दिल्ली में अंग्रेजी सेना ने किस तिथि को प्रवेश किया? +
उ. 14 सितम्बर को। +232. अंग्रेजी सेना सर्वप्रथम किस मार्ग से दिल्ली में प्रविष्ट हुई? +
उ. कश्मीर बुर्ज की दरार से। +233. 'जब एक ही गली मेरे इतने वीर सैनिकों को निगल गई और दिल्ली पर +अधिकार कर लेने की मेरी आकांक्षा भी अतृप्त ही है, साथ ही सहस्रों +क्रान्तिकारी अभी भी युद्घ का आह्वान कर रहे हैं तो अब अपने सभी सैनिकों +को बलिदान का बकरा बनाकर चढ़ा देने की अपेक्षा तो पराजय और +अपयश का कलंक लगवाकर लौट जाना ही अधिक उचित है।' विलसन +किस गली की बात कर रहे हैं? +
उ. बर्न बुर्ज की। +234. 14 सितम्बर को दिल्ली में अंग्रेज सेना के कितने लोग मरे? +
उ. 66 अधिकारी और 1104 सैनिक। +235. क्रान्ति सैनिक दिल्ली में किस तिथि तक अंग्रेजों से निरन्तर लड़ते रहे? +
उ. 24 सितम्बर तक। +236. 'मैं यह समझता हूँ कि अब एक ही स्थान पर एकत्रित होकर युद्घ करने के +स्थान पर यदि हम बाहर निकलकर खुले प्रदेशों में शत्रु को थकाने में जुट +जाएँगे तो अन्तिम विजय हमारी ही होगी।' बहादुर शाह जफर को यह राय +किसने दी? +
उ. बख्त खाँ ने। +237. वार्धक्य से हताश, राजविलास से मतिमंद, पराजय से भयभीत बहादुर शाह +दिल्ली से बाहर जाकर संघर्ष जारी रखने का निर्णय न कर एक मकबरे में +छुप गया। यह मकबरा किसका था? +
उ. हुमायूँ का मकबरा। +238. अंग्रेजों के उस जासूस का नाम बताइये जिसने बहादुर शाह जफर को +आत्म समर्पण के लिए तैयार किया? +
उ. मिर्जा इलाहीबख्श। +239. 'शाहजादे तो अभी भी मकबरे में छुपे बैठे हैं।' यह सूचना देने वाले कौन +थे? +
उ. मिर्जा इलाहीबख्श और मुंशी रजब अली। +240. बहादुर शाह जफर के कितने पुत्रों को गोली मारी गई? +
उ. तीन। +241. बहादुर शाह जफर के पुत्रों को गोली मारने वाले अंग्रेज का नाम बताइये। +
उ. कैŒटन हडसन। +242. 'लूटमार करने में तो हमारी सेनाओं ने नादिर शाह को भी पीछे छोड़ +दिया।' यह स्वीकारोक्ति करने वाले लॉर्ड एल्फिन्सटन और जॉन लॉरेन्स की +पुस्तक का नाम बताइये। +
उ. लाइफ ऑफ लॉरेन्स। +243. दिल्ली ने अंग्रेजों के विरुद्घ कितने दिन तक अनवरत युद्घ किया? +
उ. 134 दिन। +244. दिल्ली की रक्षा में शहीद होने वाले क्रान्तिकारियों की अनुमानित संख्या +कितनी थी? +
उ. 5-6 हजार। +245. नवाब वाजिद अली शाह अंग्रेजों द्वारा किस स्थान पर कैद किए गए थे? +
उ. कलकत्ता। +246. नवाब वाजिद अली शाह की अनुपस्थिति में उनके जिस पुत्र को अवध +का नवाब बनाया गया, उसका नाम बताइये। +
उ. बर्जिस कादर। +247. बहादुर शाह जफर की वृद्घावस्था के कारण दिल्ली का वास्तविक शासन +किसके हाथ में था? +
उ. बेगम जीनत महल। +248. नवाब वाजिद अली शाह का पुत्र अल्पवयस्क होने के कारण शासन का +सम्पूर्ण भार उसकी माँ पर था। उसका नाम बताइये। +
उ. बेगम हजरत महल। +249. 28 जुलाई को लखनऊ के किस स्थान पर एकत्रित हुए अंग्रेजों पर आक्रमण +का निर्णय लिया गया? +
उ. लखनऊ रेजीडेंसी। +250. अचूक निशानेबाज लखनऊ के हब्शी हिंजड़े से आतंकित अंग्रेजों ने +उसका उल्लेख किस नाम से किया? +
उ. ऑथेल्लो। +251. अंग्रेजों ने अनेक राजनिष्ठ दूत लखनऊ से अन्य प्रदेशों में भेजे थे। किन्तु +उनमें से केवल एक वापस लौटने में सफल हुआ। उसका नाम बताइये। +
उ. अंगद। +252. हेवलॉक एक सप्ताह में क्रान्तिकारियों को गोमती तक तो क्या हटा पाता, +वह तो स्वयं ही स्थानबद्घ सा होकर रह गया। हेवलॉक कहाँ स्थानबद्घ होकर +रह गया? +
उ. गंगा तट पर। +253. 'उस दिन हेवलॉक की सेना की जब गिनती हुई तो उसे विदित हुआ कि +1500 के स्थान पर अब उसके केवल 850 सैनिक ही रह गए हैं।' यह +गणना अवध के किस युद्घ के बाद हुई थी? +
उ. बशीरगंज। +254. 'कम से कम हमें अवध प्रान्त के लोगों द्वारा किए गए संघर्ष को तो +स्वातंत्र्य संग्राम के रूप में ही मान्यता देनी पड़ेगी।' यह लिखने वाले +इतिहासकार का नाम बताइये। +
उ. अन्नेस। +255. लखनऊ पर आक्रमण करने वाली सेना का नेतृत्व हताश हेवलॉक से +छीनकर किसे दिया गया? +
उ. आउट्रम को। +256. 'लखनऊ का घ्ोरा तोडऩे हेतु आज तक जिस व्यक्ति ने महान शौर्य और +धैर्य का प्रदर्शन किया है और कष्ट सहन किए हैं, मुख्य सेनापति होते हुए भी +मैं वीर हेवलॉक को ही अपने पद का अधिकार समर्पित करता हूँ और मैं +स्वयं एक स्वयंसेवक के नाते उनके अधीन कार्य करूँगा।' आउट्रम ने 15 +सितम्बर को यह घोषणा किस स्थान पर की थी? +
उ. कानपुर। +257. 23 सितम्बर 1857 को लखनऊ के समीप किस स्थान पर हेवलॉक व +क्रान्तिकारी सेना में युद्घ प्रारम्भ हुआ? +
उ. आलम बाग। +258. लखनऊ की रेजीडेंसी पर कितने दिन अहर्निश संग्राम चला? +
उ. 87 दिन। +259. हेवलॉक के, लखनऊ रेजीडेंसी तक पहुँचने में, कितने सैनिक मारे गए? +
उ. 722 सैनिक। +260. हेवलॉक के सेना सहित लखनऊ में प्रवेश करते ही क्रान्तिकारियों ने +रेजीडेंसी को पुन: घ्ोर लिया। इस घटना की तिथि बताइये। +
उ. 25 सितम्बर 1857 को। +261. 'हेवलॉक हमारे लिए क्या लाया है, मुक्ति या सहायता?' यह व्यंग्योक्ति +लखनऊ रेजीडेंसी के अंग्रेजों ने कब की? +
उ. क्रान्तिकारियों द्वारा पुन: घ्िारने पर। +262. 13 अगस्त 1857 को अंग्रेजों का नया सेनापति कलकत्ता पहुँचा। उसका +नाम बताइये। +
उ. सर कॉलिन केम्पबेल। +263. कुँवर सिंह के सैनिकों ने काजवा नदी के तट पर अंग्रेज नौ सेना पर +छापामार आक्रमण कर उसके कर्नल को मार दिया। उस कर्नल का नाम +बताइये। +
उ. कर्नल पावेल। +264. कुछ क्षण के अन्तर से, अपनी गाड़ी पुन: मोड़ लेने के कारण, केम्पबेल +कुँवर सिंह के सैनिकों की नजर से बच गया। यह घटना किस स्थान की है? +
उ. शेर घाटी की। +265. लखनऊ रेजीडेंसी में आत्मरक्षा की क्या व्यवस्था है, यह जानने के लिए +एक गोरा अपने मुँह पर काला रंग पोतकर, पहरेदारों को धोखा दे वहाँ प्रवेश +पाने में सफल हो गया। उस गोरे का नाम क्या था? +
उ. केव्हेना। +266. केम्पबेल ने लखनऊ पर आक्रमण की कौनसी तिथि तय की? +
उ. 14 नवम्बर 1857 +267. सिकन्दर बाग पर 16 नवम्बर को अंग्रेजों के हमले का भीषण प्रतिकार +क्रान्तिकारियों ने किया। इस युद्घ में कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए? +
उ. 2000 क्रान्तिकारी शहीद हुए। +268. लखनऊ रेजीडेंसी तक पहुँचने में अंग्रेजों को कितने दिन संघर्ष करना +पड़ा? +
उ. 10 दिन (14 नवम्बर से 23 नवम्बर तक) +269. कानपुर के बाद तात्या टोपे ने क्रान्ति का केन्द्र जिस कालपी को बनाया +वह किस नदी के किनारे है? +
उ. यमुना। +270. ग्वालियर के सैनिकों को साथ लेकर तात्या टोपे कालपी किस तिथि को +पहुँचे? +
उ. 9 नवम्बर 1857 को। +271. 'मु_ी भर अंग्रेजों को भी तीर के समान एशियाई सैनिकों के विशाल समूह +पर टूट पडऩा चाहिए और विजय श्री का वरण करना ही चाहिए।' इस +ब्रिटिश युद्घ सिद्घान्त के अनुसार एक अंग्रेज सेनापति ने तात्या टोपे पर +आक्रमण कर दिया पर ऐसी मार पड़ी कि वह कानपुर ही जाकर रुका। उस +अंग्रेज सेनापति का नाम क्या था? +
उ. विंडहम। +272. तात्या टोपे के आक्रमण से अंग्रेज सेना तम्बू तक छोड़कर भाग गई। +कानपुर में यह घटना किस तिथि को घटित हुई? +
उ. 26 नवम्बर 1857 को। +273. 6-9 दिसम्बर तक सतत् संघर्ष के बाद कानपुर पर अंग्रेजों का पुन: +अधिकार हो सका। तात्या टोपे से निर्णायक युद्घ किस स्थान पर हुआ? +
उ. शिवराजपुर। +274. पूरा नगर खाली था किन्तु एक भवन से होती गोलीबारी ने पूरी अंग्रेज सेना +को तब तक रोके रखा जब तक अंग्रेजों ने भवन को बारुदी सुरंग से न उड़ा +दिया। इटावा की इस घटना में कितने वीर शहीद हुए? +
उ. 25 वीर शहीद हुए। +275. इटावा के जिस मकान से क्रान्तिकारी प्राणान्त तक गोलीबारी करते रहे उसे +सुरंग से उड़ाने वाले इंजीनियर्स के नाम क्या थे? +
उ. स्केचली व बोशीर्क। +276. इटावा के एक मकान से कुछ क्रान्तिकारियों ने गोलीबारी कर अंग्रेज सेना +को कितने घंटे तक रोके रखा। +
उ. तीन घंटे। +277. घाघरा नदी के पार उस स्थान का नाम बताइये जहाँ केवल 34 क्रान्तिकारियों +का दस्ता था पर अन्तिम क्रान्तिकारी के शहीद होने तक उन्होंने गोरों की +सेना को एक कदम भी आगे नहीं रखने दिया? +
उ. अंबरपुर। +278. अगर हमारी नवीन मालगुजारी पद्घति से नाराज होकर राजाओं ने विद्रोह +किया जो चंदा, वैंजा और गोंड के राजाओं ने ऐसा क्यों किया? यह कथन +किसका है? +
उ. लॉर्ड कैनिंग (गवर्नर जनरल) का। +279. कारागार से मुक्त करने के बाद जब उससे युद्घ की स्थिति के सम्बन्ध में +प्रश्न किया गया तो उसने उत्तर दिया कि 'स्वर्ण अवसर तो हम हाथ से खो +बैठे हैं, अब तो मुझे सर्वत्र ढिलाई ही प्रतीत हो रही है, फिर भी कर्त्तव्यपालन +मात्र के लिए तो संग्राम करना ही होगा।' यह कथन किसका है? +
उ. मौलवी अहमदशाह का। +280. 16 जनवरी 1858 को प्रात: 10 बजे से सूर्यास्त तक अंग्रेज सेना से जूझने +वाले अवध के वीर का नाम बताइये। +
उ. विदेही हनुमान। +281. 14 मार्च 1858 को फिरंगी सेना लखनऊ के राजमहल में प्रविष्ट हो गई। +मॉलेसन ने इस विजय का Ÿोय किसे दिया है? +
उ. सिख सैनिक व दसवीं पलटन को। +282. कॉलिन की सेनाओं ने अवध में प्रवेश करते ही कत्लेआम शुरु कर दिया। +अंगेजों ने विद्रोही किसे माना? +
उ. 5 से 80 वर्ष की आयु तक के लोगों को। +283. अवध में अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध क्रान्ति सैनिकों ने बेगम से अंग्रेज +बंदी सौंपने को कहा। बेगम ने किनको मारने से मनाकर उनकी प्राण रक्षा +की? +
उ. अंग्रेज स्त्रियों की। +284. लॉर्ड कैनिंग ने ढिंढोरा पीटा 'जो भी इस विद्रोह में शामिल होगा उसकी +सम्पूर्ण सम्पžिा, भूमि आदि जब्त कर ली जाएगी और जो इसमें भाग नहीं +लेगा, उसे माफ कर दिया जाएगा।' इस घोषणा का परिणाम क्या हुआ? +
उ. एक भी क्रान्तिकारी ने आत्मसमर्पण नहीं किया। +285. 'प्रतीत होता है कि यह सैनिकों का साधारण सा विद्रोह नहीं, यह विŒलव +है, क्रान्ति का विस्फोट है। यही कारण है इसके दमन में हमें थोड़ा ही यश +मिला पाता है और प्रतीत हो रहा है कि यह शीघ्र दबने वाला भी नहीं है।' +इस उद्घरण के लेखक का नाम बताइये। +
उ. डॉक्टर डफ। +286. 'ऐसा कहीं भी हमें अनुभव नहीं हो पाता कि हम शत्रुओं का समूलो‘छेद +कर देने में सफल हो गए हैं और न ही हमारी विजयों से लोगों में भय उत्पन्न +होता दिखाई पड़ता है।' यह उद्घरण जिस पुस्तक का है उसका नाम बताइये। +
उ. इण्िडयन रिबेलियन। +287. कुँवर सिंह किस युद्घ पद्घति के तज्ञ थे? +
उ. वृक युद्घ पद्घति (छापामार) +288. इलाहाबाद और कलकत्ता का सम्बन्ध तोडऩे के लिए कुँवर सिंह ने कहाँ +आक्रमण किया? +
उ. बनारस। +289. जनरल लुगार्ड को आजमगढ़ में नजरबंद अंग्रेजों को छुड़ाने जाने से रोकने +के लिए कुँवर सिंह ने एक टुकड़ी किस नदी के पुल पर मोर्चेबंदी के लिए +भेजी? +
उ. तानू नदी। +290. कुँवर सिंह ने आजमगढ़ रक्षा के लिए सेना तैनाती का दिखावाकर वंचिका +देते हुए जगदीशपुर मुक्त कराने के लिए हमला कर दिया। कुँवर सिंह की +इस योजना की मॅलेसन ने क्या कहकर प्रशंसा की है? +
उ. सैन्य संचालन की अद्भुत दूरदर्शिता। +291. वर्ष भर अंग्रेजों ने कुँवर सिंह के विरुद्घ जो किया वह स्वत: नष्ट हो जाएगा +तथा अंग्रेजों को अपना सम्पूर्ण कार्यक्रम फिर से प्रारम्भ करना पड़ेगा। इस +योजना से कुँवर सिंह ने कहाँ पहुँचने की सफल व्यूह रचना की थी? +
उ. जगदीशपुर के जंगल में। +292. प्रदेश भर में यह अफवाह फैला दी कि कुँवर सिंह हाथियों से गंगा पार +करेगा। गंगा पार करने का स्थान कहाँ बताया गया? +
उ. बलिया। +293. कुँवर सिंह ने अंग्रेजों को चकमा देकर रातों-रात किस घाट से गंगा पार +होने की योजना क्रियान्िवत की? +
उ. शिवपुर घाट। +294. अन्तिम नौका गंगा पार जाने को थी कि अंग्रेज सैन्य अधिकारी को, जो +सात मील दूर मोर्चा लगाए था, भनक लग गई। उस अंग्रेज सैन्य अधिकारी +का नाम क्या था? +
उ. डगलस। +295. अन्तिम नौका में कुँवर सिंह सवार थे। नौका मझधार में थी कि उनको +गोली लगी। गोली कौनसे हाथ में लगी थी? +
उ. बायें हाथ की कलाई पर। +296. हाथ में गोली लगी, जहर फैलने का डर था अत: कुँवर सिंह ने क्या +किया? +
उ. कुहनी तक का हाथ काट दिया। +297. कुँवर सिंह ने जगदीशपुर की सुरक्षा का जिम्मा अपने छोटे भाई को सौंपा, +उनका नाम क्या था? +
उ. अमर सिंह। +298. 23 अप्रेल 1858 को चार सौ गोरे सैनिक व दो तोपें लेकर लेग्रांद ने +जगदीशपुर पर हमला कर दिया। हमले का परिणाम क्या हुआ? +
उ. सेनापति लेंग्राद सहित 110 गोरे सैनिक मारे गए। +299. अंग्रेजी में लिखे सरकारी कागजों को नष्ट करने पर उतारू क्रान्तिकारियों +से यह बात किसने कही - 'अंग्रेजों के भारत से चले जाने पर, जिन +कागजातों के आधार पर लोगों के वंश, वारिसदारी के अधिकार तथा लोगों +के आपसी लेन-देन का प्रमाण हमें मिलेगा, इन कागजों को जलाकर जब +यह सब आप नष्ट कर देंगे जो आपको नहीं करना चाहिए'? +
उ. कुँवर सिंह ने। +300. शरीर में जहर फैल जाने के कारण कुँवर सिंह को वीरगति प्राप्त हुई। वह +तिथि कौनसी है? +
उ. 26 अप्रेल 1858 को। +प्रश्नोत्तरी ३०१ से ४००. +301. जंगल काटकर सड़क व चौकियाँ बना लीं। ब्रिगेडियर डगलस ने सात +तरफ से जगदीशपुर पर आक्रमण की योजना की किन्तु वीर अंग्रेजी चक्रव्यूह +भेदकर सेना सहित निकल गया। उस वीर का नाम बताइये। +
उ. वीर अमरसिंह। +302. वीर कुँवर सिंह के परिवार की स्त्रियों ने जब बचाव का कोई मार्ग नहीं +देखा तो स्वयं को तोपों के मुँह से बाँधकर बलिदान दे दिया। इस बारुदी +जौहर में कितनी ललनाओं ने बलिदान दिया? +
उ. 150 ललनाओं ने। +303. 'प्रतिपक्षी की प्रबल सेना से खुले मैदान में सामना मत करो। सैन्य शक्ति, +अनुशासन और तोपें आदि युद्घ सामग्री में वह तुमसे …यादा परिपूर्ण हैं। अब +उसकी योजनाओं, गतिविधियों पर निगरानी रखो; नदी के घाटों पर चौकसी +रखो, शत्रु की डाक काटो, रसद रोको और चौकियाँ तोड़ दो। उसके पड़ाव +के इर्द-गिर्द मंडराते रहो, फिरंगी को चैन मत लेने दो।' रूहेलखंड के +क्रान्तिकारियों द्वारा प्रसारित इस घोषणा को उद्धृत करते हुए अपनी डायरी +में यह किसने लिखा कि 'इस घोषणा पत्र ने दूरदर्शिता तथा चातुर्य का +परिचय दिया है'? +
उ. डब्ल्यू. एच. रसेल ने। +304. लखनऊ के निकट रूइया के जमींदार का नाम बताइये जिसने वॉलपोल +की फिरंगी सेना को परास्त किया? +
उ. नरपत सिंह। +305. रूइया के किले पर आक्रमण के समय मरे उस अंग्रेज सैन्य अधिकारी का +नाम बताइये जिसके लिए कहा गया कि 'उस साहसी वीर की मृत्यु से +अंग्रेजी राष्ट्र को इतना धक्का लगा कि जो सैंकड़ों सैनिकों के मारे जाने से भी +नहीं लगता।' +
उ. होप ग्रंट। +306. केवल पचास हजार के पुरस्कार के लिए मौलवी अहमद शाह का सिर +काटने वाले का नाम क्या था? +
उ. पोवेन राजा जगन्नाथ का भाई। +307. मौलवी अहमद शाह का सिर अंग्रेजों ने द्वार पर लटकवा दिया। यह +कौनसा स्थान था? +
उ. शाहजहाँपुर। +308. अब तक की खोज में ज्ञात उन लोगों की संख्या बताइये जिन्हें 1857 में +काला पानी की सजा हुई? +
उ. 800 संख्या। +309. 1857 में जिन लोगों को अंडमान निर्वासित किया गया उनमें दक्षिण भारत +के कितने लोग थे? +
उ. 250 से अधिक। +310. 'साउथ इंडिया इन 1857 : वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस' के लेखक का नाम +बताइये। +
उ. श्री वासुदेव दत्तात्र्ोय दिवेकर। +311. बंगाल, मुम्बई व मद्रास के 1857-58 के कोर्ट मार्शल अभियोगों की +संख्या क्रमश: बताइये। +
उ. 1954, 1213 तथा 1044 अभियोग। +312. भारत सरकार द्वारा अनुमोदित सुरेन्द्रनाथ सेन की रचना में सम्पूर्ण मुम्बई +प्रान्त का 1857 से सम्बन्िधत वर्णन कितने वाक्यों में है? +
उ. पाँच। +313. सुरेन्द्रनाथ सेन 1857 के सम्बन्ध में लिखते हैं - 'यह विलक्षण है कि +सतारा में विŒलव के उठने की आवाज मराठा सरदार से नहीं उठी बल्कि +एक हिन्दुस्थानी चपरासी से उठी।' यहाँ उन्होंने चपरासी के रूप में किनका +उल्लेख किया है? +
उ. क्रान्ति के योजनाकार रंगो बापू जी गुप्ते का। +314. 1856 में जिस सतारा पुलिस प्रमुख ने ब्रिटिश सत्ता नाश के लिए रोहिलों +की सेना लाने की योजना की, उसका नाम क्या है? +
उ. अन्ताजी राजे शिर्के। +315. 12 जून 1857 को सतारा छावनी में विद्रोह कराने के आरोप में पकड़े गए +उस व्यक्ति का नाम बताइये जो स्थानीय न्यायाधीश की अदालत में +संदेशवाहक का कार्य करता था। +
उ. मानसिंह परदेशी। +316. सतारा छावनी में विद्रोह फैलाने के आरोप में पकड़े गए राजपूत युवक को +जनसाधारण के समक्ष किस तिथि को फाँसी दी गई? +
उ. 20 जून 1857 को। +317. रंगो बापू जी गुप्ते सतारा के किस अपदस्थ शासक के वकील के रूप में +इंग्लैंड गए थे? +
उ. प्रताप सिंह। +318. रंगो बापू जी गुप्ते सतारा के वकील के रूप में कितने समय तक इंग्लैंड में +रहे? +
उ. 1840 से 1853 तक (14 वर्ष)। +319. रंगो बापू जी गुप्ते ने अपने दो भतीजों के नेतृत्व में 500 मावलों की एक +फौज 1857 में दिल्ली भेजी। उनके भतीजों के नाम बताइये। +
उ. यशवन्तराव देशपांडे और वामनराव देशपांडे। +320. रंगो बापू जी गुप्ते द्वारा बनाई गई क्रान्ति की योजना का पता कब लगा? +तिथि बताइये। +
उ. 11 जून 1857 को। +321. रंगो बापू जी की क्रान्ति योजना का पता लगने पर उन्हें गिरफ्तार कर कहाँ +भेज दिया गया? +
उ. ग्वालियर। +322. रंगो बापू जी ने जेल से भागने की योजना की और वे उसमें सफल हुए तथा +फिर कभी पकड़े नहीं जा सके। उनके जेल से पलायन की तिथि बताइये। +
उ. 5 जुलाई 1857 को। +323. 12 जून 1857 को हैदराबाद अश्वारोही सैन्य दल ने विद्रोह कर दिया। यह +पलटन किस स्थान पर तैनात थी? +
उ. औरंगाबाद। +324. वह तिथि बताइये जब हैदराबाद की जनता ने स्वस्फूर्त ब्रिटिश प्रतिनिधि +निवास पर हमला कर दिया। +
उ. 17 जुलाई 1857 के दिन। +325. 18 अप्रेल 1858 में नाना साहब पेशवा की ओर से भेजे गए एक पत्र में +क्रान्ति संगठन के लिए किन दो लोगों को अधिकृत किया था? +
उ. नारखेड़ के रत्नाकर पागे और हैदराबाद के सोनाजी पंत। +326. नाना साहब के व्यक्तिगत पत्र दाढ़ी बनाने वाले शीशे के पृष्ठ भाग में +छिपाकर गंतव्य तक ले जाने वाले व्यक्ति का नाम बताइये। +
उ. रंगाराव रत्नाकर पांगे। +327. डेविडसन ने एक राजद्रोहात्मक पत्र पकड़कर मद्रास सरकार को अग्रेसित +किया था। इस पत्र के लेखक का नाम क्या था? +
उ. झनुलबदीन। +328. मैसूर में 1857 की क्रान्ति के प्रमुख नेता का नाम बताइये। +
उ. कृष्ण शास्त्री मल्हार। +329. उस राजा का नाम क्या था जिसके नेतृत्व में आंध्र की पहाड़ी जाति के +लोगों ने 1845-1848 तक अंग्रेजों के विरुद्घ युद्घ किया? +
उ. चिन्न भूपति। +330. 28 फरवरी 1857 को विजयनगरम् की स्थानीय पलटन ने कूच की आज्ञा +मानने से मना कर दिया। उन्हें कहाँ कूच करने की आज्ञा मिली थी? +
उ. कर्नूल। +331. जुलाई 1857 में विजयनगरम्, अलीपुर, बंगलौर आदि के बाजारों में विद्रोह +हुआ। इस विद्रोह को क्या नाम दिया गया है? +
उ. अन्न विद्रोह। +332. चिन्न भूपति और उसके भतीजे सन्यासी भूपति के नेतृत्व में 1858 में +किस क्षेत्र में ब्रिटिश विरोधी क्रान्ति हुई? +
उ. गोलकुंडा। +333. गंजम के सवारा ग्राम के प्रधान का नाम बताइये जिसे 1857 की क्रान्ति में +फाँसी की सजा हुई? +
उ. राधाकृष्ण डंडसेन। +334. तमिलनाडु के तिरुनेवेली क्षेत्र के पालिगरों के प्रमुख नेता का नाम बताइये +जो अठारहवीं सदी के अन्त तक अंग्रेजों से लड़ता रहा। +
उ. पांडयम् कोट्टावोम्मन। +335. तमिलनाड़ के तिरुनेवेली क्षेत्र के स्वातंत्र्य वीर को अठारहवीं सदी के +अन्त तक अंग्रेजों के विरुद्घ सतत् संघर्ष के कारण सरेआम फाँसी दी गई। +उसकी फाँसी की तिथि बताइये। +
उ. 16 अक्टूबर 1799 को। +336. जुलाई 1852 में मद्रास में एक सभा का गठन हुआ, उसका नाम क्या था? +
उ. मद्रास नेटिव एसोसिएशन। +337. दिसम्बर 1858 में मद्रास के किस स्थान पर झगड़े में ईसाईयों ने 10 +हिन्दुओं की हत्या कर दी व 19 को घायल कर दिया? +
उ. तिरुनेवल्ली। +338. ईसाईयों द्वारा मद्रास में हिन्दुओं के हत्याकांड के विरुद्घ स्मरण पत्र देने के +लिए मद्रास नेटिव एसोसिएशन ने आम सभा किस तिथि को बुलाई? +
उ. अप्रेल 1859 में। +339. मद्रास के चिंगलपेट क्षेत्र में विद्रोह का नेतृत्व करने वाले दो नेता कौन थे? +
उ. अन्ना गिरि और कृष्णा गिरि। +340. एक सरकारी परिपत्र में कहा गया कि फकीर, वैरागी तथा पंडों और +संदिग्ध चरित्र वालों के जिलों में प्रवेश पर सूक्ष्मता से निरीक्षण हो। मद्रास +की ब्रिटिश सरकार का यह परिपत्र किस तिथि को जारी हुआ था? +
उ. 10 जुलाई 1857 को। +341. 26 जनवरी 1852 को दीपू जी रांो के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन कहाँ +प्रारम्भ हुआ? +
उ. गोआ। +342. दीपू जी रांो के साथ पुर्तगाली सरकार को संधि के लिए बाध्य होना पड़ा। +इस संधि से ग्राम पंचायतों के सभी अधिकार पुनर्जीवित हो गए, ईसाई मत +के निर्देश का क्रियान्वयन वापस लिया गया। यह संधि किस तिथि को हुई? +
उ. 2 जून 1855 को। +343. पुर्तगाली सरकार द्वारा संधि का पालन न करने पर दीपू जी रांो ने अपना +संघर्ष किस सन् में पुन: प्रारम्भ कर दिया? +
उ. 1856 में। +344. दीपू जी रांो की गिरफ्तारी के बाद नवम्बर 1858 में उन्हें कहाँ निष्कासित +कर दिया गया? +
उ. इंडोनेशिया। +345. दीपू जी रांो का वंश मूलत: किस प्रान्त से सम्बद्घ था? +
उ. राजस्थान। +346. पुंो में 1857 के किस माह में अंग्रेजों के विरुद्घ एक विŒलव का प्रयत्न +हुआ किन्तु वह असफल हो गया? +
उ. जून मास में। +347. अगस्त 1857 में खुफिया पुलिस की सूचना के अनुसार ब्रिटिश सरकार के +विरुद्घ चर्चा का पुंो शहर में प्रमुख केन्द्र कौनसा था? +
उ. सार्वजनिक वाचनालय। +348. सितम्बर 1857 में पेशवा सरकार की घोषणा के अनुसार ब्रिटिश गवर्नर को +समाप्त करने वाले को कितना पारितोषिक मिलता? +
उ. पाँच हजार। +349. 'हमें व्यक्तिगत पत्र के आधार पर ज्ञात हुआ है कि दक्षिण में नाना साहब +आयेंगे और दशहरा के दिन पेशवा सरकार की गद्दी सम्भालेंगे।' अगस्त +1857 में यह समाचार प्रकाशित करने वाले सरकारी लिपिक कौन थे? +
उ. बालकृष्ण चिमन जी। +350. अगस्त 1857 में नाना साहब पेशवा के दक्षिण में आने का समाचार +सरकारी लिपिक ने किसमें दिया? +
उ. ज्ञान प्रकाश पुंो के अंक में। +351. बलवन्तराव बाबाजी भोंसले, शनिवार पेठ, पुंो का 22 मार्च 1858 का +खुफिया पत्र किसे सम्बोधित था? +
उ. दादा साहब भोंसले, कोल्हापुर को। +352. बलवन्तराव बाबाजी भोंसले के 22 मार्च 1858 के खुफिया पत्र में प्रमुख +बात क्या थी? +
उ. यहाँ पलटनें पूर्णत: हमारे साथ हैं और शपथ ले चुकी हैं। +353. बलवन्तराव बाबाजी भोंसले के 22 मार्च 1858 के खुफिया पत्र में धनाभाव +का जिक्र कर एक व्यक्ति का नाम लिखा है जो 25,000 रुपये दे रहा है। उस +व्यक्ति का नाम क्या लिखा है? +
उ. नग्गा रामचन्द्र मारवाही। +354. जून 1857 और उसके आगे उत्तरी कर्नाटक में क्रान्ति संगठन करने वाले +जमखिंडी के राजा का नाम बताइये। +
उ. रामचन्द्र राव (उपाख्य अŒपा साहब पटवर्धन) +355. जमखिंडी के राजा के प्रमुख सहयोगी जो जमखिंडी का किलेदार था, +उसका नाम क्या था? +
उ. छोटू सिंह। +356. जमखिंडी के एक कुएँ में क्रान्ति के लिए युद्घ सामग्री का विशाल +भंडार जमा किया गया था। वह कुआँ किस नाम से प्रसिद्घ था? +
उ. अŒपा साहब बान्ची विहिर। +357. 4 नवम्बर 1857 को बीजापुर के जिस व्यक्ति के घर से सत्तरह मन बारुद +पकड़ा गया उसका नाम क्या था? +
उ. ठोंधरी। +358. क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए होने वाली बैठकों में भाग लेने वाले +बीजापुर की बाईसवीं पलटन के हवालदार का नाम क्या था? +
उ. शेख अली। +359. बेलगाँव विद्रोह के कारण जिसे 14 अगस्त 1857 को फाँसी पर चढ़ाया +गया उस वीर का नाम बताइये। +
उ. महीपाल सिंह। +360. 1857 के शेख पीर शाह और कृष्णामाचारी को आंध्र प्रदेश के किस क्षेत्र में +विद्रोह भड़काने के आरोप में पकड़ा गया था? +
उ. कड़Œपा। +361. नेलौर में विŒलव की सम्भावना समाप्त करने के लिए बड़ी संख्या में +संदिग्ध सैनिक व नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह घटना कब +की है? +
उ. दिसम्बर 1857 की। +362. अगस्त 1857 में तमिलनाड़ के किस क्षेत्र में नरसिम्हादास, दामोदरदास +तथा निर्गुणदास नामक साधुओं को क्रान्ति के संदेह में पकड़ा गया था? +
उ. उत्तरी अर्काट। +363. अगस्त 1857 में तमिलनाड़ में पकड़े गए साधु वेश में क्रान्तिकारी +नरसिम्हादास, दामोदरदास तथा निर्गुणदास मूलत: कहाँ के रहने वाले थे? +
उ. बंगाल के। +364. नवम्बर 1858 में तमिलनाडु के किस स्थान पर सैनिक विद्रोह में केŒटन +हार्ट और जेलर स्टफर्ड मारे गए? +
उ. वेल्लोर। +365. 1 अगस्त 1857 को एक विशाल भीड़ अय्यम प्रमलाचारी की घोषणा पर +एकत्रित हो गई कि भारतीय सैनिक आयेंगे तथा ब्रिटिश ध्वज का पतन हो +जाएगा। यह घटना तमिलनाडु में किस स्थान की है? +
उ. पुतनूल गली, सेलम। +366. कोयम्बटूर के निकट उस औद्योगिक नगर का नाम बताइये जहाँ 1857 में +एक मठम् के स्वामी ब्रिटिश विरोधी संगठन के लिए उपदेश देते थे। +
उ. भवानी। +367. 1857 में कोयम्बटूर के पास एक औद्योगिक नगरी में ब्रिटिश विरोधी +संगठन के लिए उपदेश देने वाले मठम् के स्वामी का नाम क्या था? +
उ. मुलबागल स्वामी। +368. सितम्बर 1857 में ब्रिटिश सरकार के विरुद्घ भड़काने के आरोप में तेलीचरी +की गली से गिरफ्तार क्रान्तिकारी का नाम बताइये। +
उ. बानाजी कुदरत कुँजी मायाँ। +369. ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के कारण 1857 में कुनी मोई नामक व्यक्ति +को कहाँ से पकड़ा गया था? +
उ. मालाबार से। +370. 17 जुलाई 1857 को हैदराबाद छावनी आवास भवन पर आक्रमण के लिए +उसके निकट के दो भवन मोर्चेबंदी के हेतु लिए थे, वे जिन साहूकारों के थे +उनके नाम बताइये। +
उ. अव्वन साहब और जयगोपाल दास। +371. राजामुन्दरी जिले के करतूर निवासी उस व्यक्ति का नाम क्या था जो +ब्रिटिश संस्थानों पर आक्रमण का प्रमुख था? +
उ. करकोन्दा सुब्बाराव रेड्डी। +372. 10 जुलाई 1857 को सिविल लाइन्स के खुले मैदान में आजादी का झंडा +फहराया गया जिस पर हिन्दुस्थानी में लिखा था - 'सभी अंग्रेजों को खत्म +कर दो।' यह घटना किस स्थान की है? +
उ. मछलीपट्टम। +373. अंग्रेजों की रैय्यतवारी प्रथा, कठोर कराधान व वसूली के निर्मम तरीकों के +विरोध में 1859 में भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड स्टेनले को ज्ञापन देने +वाली संस्था का नाम क्या था? +
उ. मद्रास नेटिव एसोसिएशन। +374. जुलाई 1857 में मद्रास में चिंगलपुट के निकट स्थित दो मन्िदर-क्रान्ति +केन्द्र थे। ये मन्िदर किन स्थानों पर स्थित थे? +
उ. मनिपकम और पल्लवरम। +375. 27 जुलाई 1857 की रात्रि को चिंगलपुट के दक्षिण में स्थित एक तालाब के +निकट लगभग 600 क्रान्तिकारी एकत्रित हुए। उस तालाब का नाम क्या था? +
उ. वमगोलुम। +376. 27 जुलाई 1857 की रात्रि को चिंगलपुट में एकत्रित लगभग 600 क्रान्तिकारियों +ने प्रथम कार्य क्या किया? +
उ. टेलीग्राफ व्यवस्था ध्वस्त करना। +377. 2 फरवरी 1858 की रात्रि को फोंद सावन्त के पुत्र राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में +सम्मिलित होने के लिए गोवा से निकलकर आने के बाद किसके नेतृत्व में +क्रान्ति कार्य में लगे? +
उ. बाबा देसाई। +378. तीन फडणवीस भाई करतार, सूपा और बिदी के जंगलों में क्रान्तिकारियों +का नेतृत्व कर रहे थे। तीनों के नाम बताइये। +
उ. राघोवा, चिन्तोबा व शान्ताराम फडणवीस। +379. 31 जुलाई 1857 को कोल्हापुर की 27 वीं स्थानीय पैदल सेना में क्रान्ति के +प्रमुख का नाम क्या था? +
उ. रामजी शिरसाट। +380. कोल्हापुर की 27 वीं पलटन में 31 जुलाई 1857 से सम्बन्िधत कितने +लोगों का कोर्ट मार्शल हुआ? +
उ. 165 लोगों का। +381. 31 जुलाई 1857 को कोल्हापुर की 27 वीं पलटन के विद्रोह में आरोपियों +के सम्बन्ध में यह किसने लिखा - 'सभी ने अपने रहस्य बताने से मना कर +दिया और धैर्य के साथ मृत्यु का सामना किया'? +
उ. मेजर जनरल जैकब। +382. 23 नवम्बर 1857 को मुम्बई के आयुक्त को लिखे अपने पत्र में यह किसने +लिखा कि 'संक्षेप में स्पष्टत: कोई भी दूसरा व्यक्ति असंतोष और राजद्रोह +फैलाने में उससे अधिक उपयुक्त संदेशवाहक नहीं हो सकता'? +
उ. रत्नागिरि के मजिस्टे्रट ने। +383. 23 नवम्बर 1857 को मुम्बई के आयुक्त को एक मजिस्टे्रट ने लिखा - +'संक्षेप में स्पष्टत: कोई भी दूसरा व्यक्ति असंतोष और राजद्रोह फैलाने में +उससे अधिक उपयुक्त संदेशवाहक नहीं हो सकता।' इस पत्र में किस +व्यक्ति का उल्लेख है? +
उ. रामाचार्य पुराणिक का। +384. 21 नवम्बर 1857 में कोल्हापुर से लिखे एक पत्र में यह किसने लिखा - +'पूरे रा…य में अंग्रेजी रा…य के प्रति बड़ी घृणा की भावना है और किसी +विपरीत अवस्था में यह सक्रिय संघर्ष का रूप ले सकता है'? +
उ. मेजर जनरल ल-ग्राड जैकब ने। +385. नाना साहब पेशवा पुन: शीघ्र आयेंगे, 1857 में इस विश्वास को बनाए +रखने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले मुम्बई से प्रकाशित दो अखबारों के नाम +बताइये। +
उ. वर्तमान सार और वृत्त सार। +386. 31 जुलाई 1857 की फौजी क्रान्ति और 6-7 दिसम्बर 1857 की कोल्हापुर +जन क्रान्ति के प्रमुख प्रेरक कौन थे? +
उ. चीमा साहब (बुवा साहब) +387. अंग्रेजों ने चीमा साहब को गिरफ्तार कर किस स्थान पर स्थानबद्घ रखा? +
उ. कराची। +388. चीमा साहब की मृत्यु किस तिथि को हुई? +
उ. 15 मई 1869 को। +389. चीमा साहब का स्मारक किस स्थान पर है? +
उ. कराची में लिहारी नदी के तट पर। +390. 'जब कोल्हापुर केम्प ने विद्रोह किया था आप ने कुछ भी नहीं किया, +लेकिन अब आप ऐसी व्यवस्था करें कि पुन: विद्रोह हो। आप महान व्यक्ित +हैं, इसे आप हृदयस्थ कर लें।' नाना साहब की प्रेरणा से 13 सितम्बर 1857 +को यह पत्र कोल्हापुर के राजा को किसने लिखा? +
उ. जगन्नाथ वासुदेव थत्ते। +391. सितम्बर 1857 में लोगों को डराने-धमकाने के लिए मुम्बई पुलिस आयुक्त +कार्यालय के समक्ष बड़ी सूली खड़ी करवाने वाले अंग्रेज अधिकारी का +नाम क्या था? +
उ. फोरजेन्ट। +392. मुम्बई की भारतीय पलटन का विद्रोह की योजना पर कौन से दो स्थानों से +पत्र व्यवहार चल रहा था? +
उ. कोल्हापुर तथा अजमेर। +393. 'ऐसा आभास होता है कि तीन महीनों से भी अधिक समय से पलटन के +देशी व्यक्ित मुम्बई के किसी अज्ञात भाग में, सेना निवास के निकट विद्रोही +बैठकों में जाने लगे हैं।' यह पत्र किस तिथि को लिखा गया था? +
उ. 31 अक्टूबर 1857 को। +394. 'ऐसा आभास होता है कि तीन महीनों से भी अधिक समय से पलटन के +देशी व्यक्ित मुम्बई के किसी अज्ञात भाग में, सेना निवास के निकट विद्रोही +बैठकों में जाने लगे हैं।' यह पत्र लिखने वाले अंग्रेज अधिकारी का नाम +बताइये। +
उ. ब्रिगेडियर जे.एम.श्रोट। +395. मुम्बई स्थित जिस सिपाही के घर पर क्रांति योजना हेतु नियमित गोपनीय +बैठकें होती थीं, उसका नाम क्या था? +
उ. गंगा प्रसाद। +396. मुम्बई के भारतीय फौजियों ने अक्टूबर 1857 में जिस दिन अंग्रेजों के +विरुद्घ क्रान्ति का निश्चय किया, उस दिन कौनसा त्यौहार था? +
उ. दीपावली का। +397. मुम्बई में अक्टूबर में तय क्रान्ति योजना का सुराग अंग्रेजों को लग गया। +उन्होंने क्रान्ति योजना प्रमुखों को गिरफ्तार कर उनमें से दो प्रमुख सैयद हुसैन +व मंगल को सरेआम तोप से उड़ा दिया। यह दिन कौनसा था? +
उ. दीपावली का (15 अक्टूबर 1857) +398. मुम्बई क्रान्ति योजना में पकड़े गए सैयद हुसैन व मंगल को अंग्रेजों ने +ऐसŒलेनेड मैदान में तोप से उड़ाया था। इस मैदान का वर्तमान नाम क्या है? +
उ. आजाद मैदान। +399. मुम्बई क्रान्ति योजना में पकड़े गए सैयद हुसैन व मंगल को अंग्रेजों ने +ऐसŒलेनेड मैदान में तोप से उड़ाया था। इसके प्रत्यक्षदर्शी सर डी. ई. वा‘छा +ने इस घटना का अपनी जिस आत्मकथा में विवरण दिया है, उस पुस्तक का +नाम बताइये। +
उ. मुम्बई की रेत की सीपें। +400. ब्रिटिश शासन ने निशस्त्रीकरण कानून किस तिथि को पारित किया? +
उ. 11 सितम्बर 1857 को। +प्रश्नोत्तरी ४०१ से ५००. +401. कर्नाटक में ब्रिटिश सरकार के निशस्त्रीकरण कानून का सशस्त्र विरोध +कहाँ हुआ? +
उ. हलगली ग्राम में। +402. ब्रिटिश सरकार के निशस्त्रीकरण कानून के विरुद्घ सशस्त्र विरोध खड़ा +करने वाले प्रमुख व्यक्ति का नाम क्या था? +
उ. बाबाजी निम्बालकर। +403. ब्रिटिश सरकार के निशस्त्रीकरण कानून का विरोध करने वाले लोग +प्रमुखत: किस समुदाय के थे? +
उ. बेदर। +404. 27 नवम्बर 1857 को बीजापुर की घुड़सवार सेना के आक्रमण को रोकने +वाला वीर भीमंणा किस सुरक्षा चौकी पर तैनात था? +
उ. पदगट्टी। +405. बीजापुर की घुड़सवार सेना से भीमंणा एक हाथ कटने के बाद भी +अकेला लड़ता रहा। एक भुजा से लडऩे के कारण उसका कौनसा नाम +प्रसिद्घ हो गया? +
उ. मंडगै भीमंणा। +406. काजी सिंह और भीमा नाइक किस क्षेत्र के स्वातंत्र्य प्रेमी भीलों के नायक थे? +
उ. खानदेश। +407. 'विभिन्न दलों के इतनी बड़ी संख्या में एकत्रित होकर लूट मचाने से यह +सिद्घ होता है कि सारी भील आबादी विद्रोही हो गई है।' 2 नवम्बर 1857 को +अपने पत्र में यह बात लिखने वाले जिला मजिस्टे्रट का नाम क्या था? +
उ. एस. मेन्सफील्ड। +408. 11 अप्रेल 1858 को कौनसे युद्घ में काजी सिंह का एकमात्र पुत्र मारा गया? +
उ. अम्बापानी का युद्घ। +409. 11 अप्रेल 1858 को युद्घ में मारे गए काजी सिंह के एकमात्र पुत्र का नाम +क्या था? +
उ. पोलाद सिंह। +410. 1830 से अंग्रेजों के विरुद्घ सतत् संघर्षरत दक्षिण नासिक व उत्तर अहमदनगर +की दो पहाड़ी जातियाँ कौनसी थीं? +
उ. कोल व भील। +411. महाराष्ट्र का कौनसा वर्तमान जिला खानदेश कहलाता था? +
उ. जलगाँव। +412. काजी सिंह ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन में किस पहाड़ी क्षेत्र में सक्रिय थे? +
उ. सतपुड़ा। +413. नासिक-अहमदनगर क्षेत्र की सतमाला पहाडिय़ों में 1857 की क्रान्ति के +नेतृत्वकर्ता का नाम क्या था? +
उ. भागोजी नाइक। +414. नासिक जिले की पेठ रियासत के राजा का नाम बताइये जिन्हें नाना साहब +से पत्र व्यवहार के कारण 4 जनवरी 1858 को अंग्रेजों द्वारा फाँसी दी गई? +
उ. भगवन्त राव। +415. नासिक के निकट किस जगह स्थित ब्रिटिश कचहरी और खजाने पर 5 +दिसम्बर 1857 की रात में भीलों और ठाकुरों के दल का आक्रमण हुआ? +
उ. त्र्यम्बकेश्वर। +416. 5 दिसम्बर 1857 को नासिक के निकट ब्रिटिश खजाने व कचहरी पर +आक्रमणकारी भीलों व ठाकुरों के दल का प्रमुख कौन था? +
उ. वासुदेव भगवन्त जोगलेकर। +417. अजन्ता क्षेत्र की उस जागीर का नाम बताइये जिसके प्रमुख गोविन्द +काशीराज देशपांडे ने क्रान्ति हेतु भीलों के संगठन में सक्रिय सहयोग दिया। +
उ. वैजापुर। +418. 1857 में दक्षिण भारत में क्रान्ति का प्रमुख केन्द्र शोरापुर आजकल कहाँ +स्थित है? +
उ. जिला गुलबर्गा (कर्नाटक) +419. धारवाड़ जिले के पुलिस पटेल के घर से 1 अक्टूबर 1857 को ब्रिटिश +अधिकारियों द्वारा विद्रोह से सम्बन्िधत दो पत्र पकड़े गए। इन्हें लिखने वाले +आनन्द राव कहाँ के थे? +
उ. शोरापुर के। +420. दक्षिण भारत के प्रमुख क्रान्ति केन्द्र शोरापुर के 1857 के तत्कालीन राजा +का नाम क्या था? +
उ. वैंकटŒपा नाईक। +421. 'नहीं कोई सामान्य से सामान्य 'वेदूर' भी बन्दी बनकर जीना नहीं चाहेगा +- क्या राजा होकर मैं ऐसा करूँगा? जब वे मुझे तोप से बाँध देंगे तो भी मैं +नहीं थर्राऊँगा, मुझे फाँसी पर मत चढ़ाने देना। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है +कि मुझे डाकू की तरह फाँसी पर लटकाया जाए।' शोरापुर के राजा ने अपने +बाल्यकाल के अभिभावक जिस अंग्रेज से यह बात कही उसका नाम +बताइये। +
उ. मीडोल टेलर। +422. शोरापुर का राजा जो ब्रिटिश कैद में रहना या फाँसी पर चढऩा नहीं चाहता +था, मौका पाकर लेफ्टिनेंट पिक्टर की रिवॉल्वर से स्वयं को गोली मार ली। +यह घटना किस तिथि की है? +
उ. 11 मई 1858 की। +423. धारवाड़ जिले के नरगुन्द रा…य के प्रमुख का नाम बताइये। +
उ. भास्कर राव उपाख्य बाबा साहब भावे। +424. ब्रिटिश सरकार के निशस्त्रीकरण अभियान के तहत 7 मई 1858 को +नरगुन्द की सभी तोपें, बारुद और शोरे के भंडार कहाँ पहुँचा दिए गए? +
उ. धारवाड़। +425. नरगुन्द के शासक ने स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग के लिए किस रा…य के +शासक को पत्र में लिखा कि 'अपमान से मृत्यु अधिक Ÿोयस्कर है'? +
उ. रामदुर्ग। +426. नरगुन्द पर आक्रमण के लिए सेना के साथ मैनसन चला। सुरेबान में डेरा +डाले मैनसन पर जब नरगुन्द के शासक ने आक्रमण किया तो मैनसन कहाँ +छिप गया? +
उ. मारुति मन्िदर में। +427. नरगुन्द की सेना के जिस व्यक्ति ने 29 मई 1858 को सुरेबान में पराजित +मैनसन का सिर काटा, उसका नाम बताइये। +
उ. विष्णु हिरेकोप (विष्णु कृष्ण कुलकर्णी)। +428. नरगुन्द के शासक को दक्षिणी मराठा शासकों में सबसे बुद्घिमान समझा +जाता था। उसके व्यक्तिगत संग्रह में संस्कृत के कितने ग्रन्थ थे? +
उ. 4000 ग्रंथ। +429. नरगुन्द के शासक का व्यक्तिगत पुस्तकालय अंग्रेजों ने कब नष्ट कर +दिया? +
उ. 1-2 जून 1858 के आक्रमण में। +430. नरगुन्द के शासक की माता यमुना बाई तथा पत्नी सावित्री बाई ने अंग्रेजों +के अपमान से बचने के लिए साँगला के समीप जिस नदी में जल समाधि ले +ली उसका नाम बताइये। +
उ. मलप्रेमा। +431. भीमराव मुंडर्गी ने 1857 में उत्तरी कर्नाटक की किन दो नदियों के बीच +के क्षेत्र में अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए क्रान्ति की योजना बनाई? +
उ. कृष्णा और तुंगभद्रा। +432. भीमराव मुंडर्गी ने जन क्रान्ति की तारीख 27 मई 1858 निश्चित की थी, +पर बिना तैयारी के उससे पूर्व ही सशस्त्र संघर्ष किस तारीख को प्रारम्भ हो +गया? +
उ. 24 मई 1858 को। +433. उस गाँव का नाम बताइये जहाँ भीमराव मुंडर्गी के सहयोगी कंचन गौड़ा +के किलेबंद मकान से ब्रिटिश दल को युद्घ सामग्री का भंडार मिला। +
उ. हम्मिगी। +434. भीमराव मुंडर्गी ने ब्रिटिश रक्षा दल पर आक्रमण कर जब्त युद्घ सामग्री +तथा साथी कंचन गौड़ा को छुड़ा लिया। इस घटना की तिथि क्या थी? +
उ. 24 मई 1858 को। +435. भीमराव मुंडर्गी ने कोŒपल के किले को किस तिथि को जीता? +
उ. 30 मई 1858 को। +436. भीमराव मुंडर्गी द्वारा जीता गया कोŒपल का किला वर्तमान में कहाँ स्थित +है? +
उ. बेलारी जिला (कर्नाटक) +437. हैदराबाद का ब्रिटिश प्रतिनिधि 15 मार्च 1859 को निजाम के दरबार में +ब्रिटिश गवर्नर जनरल की ओर से धन्यवाद पत्र लेकर उपस्थित हुआ। +कार्यक्रम के बाद टहलते हुए प्रतिनिधि पर एक पठान ने कारबाइन से +हमला कर दिया। यह ब्रिटिश प्रतिनिधि कौन था? +
उ. कर्नल सी. डेविडसन। +438. सतारा के उन अपदस्थ राजा का नाम बताइये जो साधु बन गए तथा +जिन्होंने 1859 में बीड़ क्षेत्र में क्रान्ति की योजना को क्रियान्िवत किया। +
उ. बालाजी गोसावी। +439. बीड़ के उस व्यक्ति का नाम बताइये जिसने अपना मकान 2000 रुपये में +गिरवी रखकर प्राप्त पैसों से अंग्रेजों के विरुद्घ फौज खड़ी की। +
उ. तात्या मुदगल। +440. मार्च 1862 में निजाम की रियासत में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए +आए नाना साहब पेशवा के भतीजे का क्या नाम था? +
उ. राव साहब पेशवा। +441. निजाम के रा…य में अंग्रेजों के विरुद्घ एक साथ विभिन्न स्थानों पर जन +आन्दोलन की योजना भेद खुलने से विफल हो गई। इसके आरोपियों पर +अभियोग किस कांड के नाम से प्रसिद्घ है? +
उ. बेगम बाजार कांड। +442. सतारा के छत्रपति शाहू के भांजे रामराव ने 1867 में बीदर जिले की किस +गढ़ी को जीतकर भगवा ध्वज फहराया? +
उ. अष्ठी गढ़ी। +443. कर्नाटक के भीमराव मुंडर्गी के सामान में नाना साहब पेशवा द्वारा दक्षिणी +भारत के लिए 1858 में जारी घोषणा पत्र की कितनी प्रतियाँ मिली? +
उ. बारह। +444. नरगुन्द किले के उस द्वार का नाम बताइये जिस पर सी. जे. मैनसन का +सिर लटकाया गया था। +
उ. केम्पगसी (लाल फाटक) +445. 'विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि पुंो के समीप तीन संस्थानों की +वार्षिक सहायता, जिनके नाम त्र्यम्बकेश्वर, परशुराम तथा पासन हैं, ईस्ट +इंडिया कम्पनी की सरकार के द्वारा समाप्त कर दी गई है।' 21 दिसम्बर +1857 को यह समाचार पुंो के किस समाचार पत्र में छपा था? +
उ. ज्ञान प्रकाश। +446. '... मुन्नी बाई ने नित्य प्रति की पूजा के लिए धूप बत्ती जलाकर देवी और +देवताओं से प्रार्थना की- वर्तमान शासन समाप्त हो जाए और नाना साहब +विजयी हों...' यह किस अभियोग से सम्बन्िधत प्रपत्र का अंश है? +
उ. कोयम्बटूर अभियोग। +447. 1857 की क्रान्ति के लिए दंिडत अंडमान स्थित व्यक्तियों में अन्तिम +जीवित व्यक्ति का नाम बताइये जिसे 1907 में मुक्त किया गया था। +
उ. मुसाई सिंह। +448. भारतीय समाज को बाँटने वाले तीनों कारणों का 1857 में अतिक्रमण हो +गया। ये तीन बाँटने वाले कारण क्या थे? +
उ. मजहब, जाति और वर्ग। +449. 1857 पर सबसे पहली पुस्तक जॉन केयी ने लिखी। उसका नाम क्या है? +
उ. 'ए हिस्टरी ऑफ द सिपॉय वॉर इन इंडिया'। +450. जॉन केयी के आकस्मिक निधन के बाद जॉर्ज मालेसन ने 1857 पर जो +अगले खंड प्रकाशित किए उनका नाम क्या रखा? +
उ. 'हिस्टरी ऑफ इंिडयन म्यूटिनी'। +451. जॉन केयी के ही कार्य को आगे बढ़ाने वाले जॉर्ज मालेसन ने पुस्तक के +शीर्षक में क्या मूलभूत परिवर्तन कर दिया? +
उ. केयी ने जिसे 'वॉर' कहा, मालेसन ने उसे 'म्यूटिनी' बना दिया। +452. न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून में छपे अपने लेखों में किसने स्पष्ट लिखा कि 1857 +भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था? +
उ. कार्ल माक्र्स ने। +453. वीर सावरकर द्वारा 1857 पर लिखित पुस्तक का मराठी शीर्षक क्या था? +
उ. 1857 ‘या स्वातंत्र्य समरांचा इतिहास। +454. 'यह सत्य है कि ब्रिटिश साम्रा…य पर कभी सूर्य अस्त नहीं होता, लेकिन +यह भी सत्य है कि उसके साम्रा…य में खून की नदियाँ कभी नहीं सूखती' +यह कथन जिस लंदनवासी प्रसिद्घ लेखक का है, उनका नाम लिखिये। +
उ. अर्नेस्ट जोंस। +455. दिल्ली में 1857 की घटनाओं पर 'दस्तंबू' नामक डायरी के लेखक का +नाम बताइये। +
उ. मिर्जा गालिब। +456. '1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव' इस शोध ग्रन्थ +के लेखक का नाम बताइये। +
उ. डॉ. भगवानदास माहौर। +457. ब्रिटिश संसद में सरकारी स्तर पर भारत में ईसाई मत का प्रचार करने का +कानून किस सन् में बना? +
उ. 1813 ई. में। +458. 'भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।' +यह वाक्यांश किस अंग्रेज अधिकारी की डायरी का है? +
उ. मेजर एडवर्ड। +459. अंग्रेजों ने एक कानून बनाया कि गोद लिए ब“ो को पैतृक सम्पžिा में +अधिकार नहीं होगा। पर इसके लागू न होने का क्या प्रावधान था? +
उ. ईसाई बनने पर। +460. 1857 के क्रान्ति यज्ञ में कितने लोगों की आहुति हुई? +
उ. लगभग तीन लाख। +461. अंग्रेजों की कुल सेना में कितने प्रतिशत भारतीय थे? +
उ. 84 प्रतिशत। +462. भारत में अंग्रेजों की कुल सेना कितनी थी? +
उ. 2,83,000 अंग्रेज सैनिक। +463. दिल्ली पर स्वतंत्रता सेनानियों का कब्जा होने के बाद भागने वाले ईस्ट +इंडिया कम्पनी के अधिकारियों में पंिडत जवाहरलाल नेहरु के दादा भी +थे। उनका नाम क्या है? +
उ. पंिडत गंगाधर नेहरु। +464. 1857 के सभी मुस्लिम नेताओं ने अपने लेखों, भाषणों, घोषणाओं में भारत +को क्या सम्बोधन दिया है? +
उ. मादरे वतन। +465. 1857 के स्वातंत्र्य समर के समय अवध प्रान्त के अमीर अली और बाबा +रामचरण दास के मध्य क्या समझौता हुआ? +
उ. अयोध्या में राम मन्िदर निर्माण का। +466. अयोध्या के बाबा रामचरण दास व अमीर अली को अंग्रेजों ने फाँसी पर +लटका दिया। उनकी फाँसी की तिथि बताइये। +
उ. 18 मार्च 1858 के दिन। +467. पंजाब की तत्कालीन प्रशासकीय रिपोर्टों के अनुसार 1857 के स्वतंत्रता +संग्राम के दौरान कितने लोगों को फाँसी दी गई व हत्या की गई? +
उ. फाँसी - 386 तथा हत्या - 2000 की गई। +468. मंगल पांडे को फाँसी लगने से कुछ दिन पहले चित्तौडग़ढ़ के एक +चित्रकार उनसे जेल में मिले और उनका चित्र बनाया था। उस चित्रकार का +नाम क्या है? +
उ. प्रेम जी। +469. जन साधारण से संवाद स्थापित करने के लिए अजीमुल्ला खाँ द्वारा निकाले +गए समाचार पत्र का नाम क्या था? +
उ. पयामे आजादी। +470. अजीमुल्ला खाँ को कितनी भाषाओं का ज्ञान था? +
उ. छ: (अंग्रेजी, फ्रैंच, अरबी, फारसी, हिन्दी, संस्कृत)। +471. रूस के तत्कालीन जार ने अंग्रेजों के विरुद्घ भारतीय स्वातंत्र्य योद्घाओं की +सहायता का वचन अजीमुल्ला खाँ को दिया था। किन्तु मार्च 1855 में उनका +निधन होने से सहायता नहीं मिली। रूस के उस जार का नाम क्या है? +
उ. जार निकोलस। +472. 'वस्तुत: इस गीत में उन सभी आक्षेपों का करारा उत्तर है जो 1857 के +स्वतंत्रता संग्राम को कुछ धर्मान्ध सिपाहियों का निरा गदर या सामन्ती +प्रतिक्रियावादियों की एक प्रतिक्रान्ति का प्रयास प्रतिपादित करने का प्रयास +कर रहे थे।' इस गीत के लेखक कौन थे? +
उ. अजीमुल्ला खाँ। +473. 1857 के स्वातंत्र्य समर के समय लिखा गया झंडा गीत या प्रयाण गीत +सर्वप्रथम किसमें प्रकाशित हुआ? +
उ. पयामे आजादी नामक पत्र में। +474. जानिमी कावा किसे कहते हैं? +
उ. छापामार या वृक युद्घ पद्घति को। +475. तात्या टोपे का 'टोपे' नाम किस कारण से जुड़ा? +
उ. पेशवा बाजीराव (द्वितीय) द्वारा भेंट रत्नजडि़त टोपी के कारण। +476. तात्या टोपे अंग्रेजों की प्रचंड शक्ति से किस अवधि तक सतत् संघर्ष +करते रहे? +
उ. जून 1858 से अप्रेल 1859 तक (दस माह)। +477. ग्वालियर के जयाजीराव सिंधिया ने तात्या टोपे पर आक्रमण के लिए जो +सेना भेजी, उसका परिणाम क्या हुआ? +
उ. सारी सेना तात्या टोपे के साथ हो गई। +478. मानसिंह की चतुराई से अंग्रेजों ने किसे तात्या टोपे समझकर बन्दी बना +लिया? +
उ. नारायण राव भागवत को। +479. अंग्रेज सेना को उलझाकर लक्ष्मीबाई को झाँसी से निकालने में सहायता के +लिए महारानी का वेश बनाकर प्राणान्त तक लडऩे वाली वीरांगना का नाम +बताइये। +
उ. झलकारी बाई। +480. लक्ष्मीबाई को रातोंरात झाँसी से कालपी पहुँचाकर घोड़े ने दम तोड़ दिया। +घोड़े की पीठ पर रानी ने एक रात में कुल कितना सफर किया था? +
उ. 102 मील। +481. महारानी लक्ष्मीबाई की सेना की महिला तोपची का नाम बताइये। +
उ. जूही। +482. उस नाले का नाम बताइये जिसे पार करते हुए महारानी लक्ष्मीबाई का नया +घोड़ा अड़ गया और उसी समय अंग्रेज सैनिक ने पीछे से वार कर महारानी +के मस्तक का दायाँ भाग काट दिया। +
उ. स्वर्ण रेखा नाला। +483. महारानी लक्ष्मीबाई का अन्तिम संस्कार किस स्थान पर किया गया? +
उ. बाबा गंगादास की कुटिया पर। +484. महारानी लक्ष्मीबाई के साथ ही उनकी एक प्रिय सहेली का अन्तिम +संस्कार किया गया। सहेली का नाम बताइये। +
उ. मुंदर। +485. महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस बताइये। +
उ. 18 जून 1858 का दिन। +486. महारानी लक्ष्मीबाई के पास अन्तिम समय पर कौन दो लोग थे? +
उ. रघुनाथ सिंह व रामचन्द्र राव देशमुख। +487. महारानी लक्ष्मीबाई की बलिदान के समय आयु कितने वर्ष थी? +
उ. 23 वर्ष। +488. 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी' इस प्रसिद्घ कविता को +जिसने लिखा उसका नाम बताइये। +
उ. सुभद्राकुमारी चौहान। +489. उस व्यक्ति का नाम बताइये जिसे वीर सावरकर ने स्वातंत्र्य समर के समय +का राष्ट्रीय संत कहा है। +
उ. मौलवी अहमदशाह। +490. पूरे रुहेलखंड में स्वातंत्र्य समर के लिए गुप्त संगठन बनाने वाले व्यक्ति +का नाम बताइये। +
उ. खान बहादुर खान। +491. वयोवृद्घ कुँवर सिंह लगातार कितने माह तक युद्घ के मैदान में रहे? +
उ. नौ माह। +492. बहादुर शाह जफर को कैद करके किस जगह भेजा गया था? +
उ. रंगून। +493. बहादुर शाह जफर की मृत्यु कब हुई? +
उ. 7 नवम्बर 1862 को। +494. 'गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग +हिन्दुस्थान की।' बहादुर शाह जफर ने किसके व्यंग्य बाणों के प्रत्युत्तर में +यह कविता कही। +
उ. मेजर हडसन। +495. नाना साहब पेशवा की उस छोटी सी पुत्री का नाम बताइये जिसे अंग्रेजों ने +जिन्दा जला दिया। +
उ. मैना। +496. रामगढ़ की उस रानी का नाम बताइये जिसने अंग्रेज सेनापति वाडिंगटन +को खैर नामक स्थान पर परास्त किया। +
उ. रानी अवन्ती बाई। +497. गोंडा की लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्घ वीरांगना कौन है? +
उ. तुलसीपुर की रानी ईश्वरी कुमारी। +498. जिसने अकेले लड़ते हुए घंटों अंग्रेजी सेना को लखनऊ के सिकन्दर बाग +में प्रवेश नहीं करने दिया उस वीर माता का नाम बताइये। +
उ. ऊदा देवी। +499. राजस्थान में अंग्रेजों की कितनी सैनिक छावनियाँ थीं? +
उ. छ: (नसीराबाद, नीमच, ब्यावर, देवली, एरिनपुरा तथा खैरवाड़ा) +500. राजस्थान में क्रान्ति का विस्फोट किस तिथि को हुआ? +
उ. 28 मई 1857 को। +प्रश्नोत्तरी ५०१ से ६००. +501. राजस्थान में क्रान्ति का प्रारम्भ किस छावनी से हुआ? +
उ. नसीराबाद। +502. राजस्थान में क्रान्ति का आरम्भ करने वाली सेना की कौनसी पलटन थी? +
उ. 15 वीं नेटिव इन्फेन्ट्री। +503. राजस्थान में क्रान्ति का आरम्भ करने वाले सैनिकों का नेतृत्वकर्ता कौन था? +
उ. बख्तावर सिंह। +504. नीमच छावनी में सैनिकों ने किस तिथि को अंग्रेजों के विरुद्घ शस्त्र उठा +लिए? +
उ. 3 जून 1857 को। +505. नीमच के क्रान्तिकारियों ने अपना कमांडर किसे नियुक्त किया था? +
उ. सूबेदार गुरेसराम को। +506. नीमच से आने वाले सैनिकों का मेवाड़ के एक ठिकाने के नरेश ने स्वागत +व सहयोग किया। उस ठिकाने का नाम बताइये। +
उ. शाहपुरा। +507. कोटा में मौजूद भारतीय सैनिकों तथा जनता में आजादी की प्रबल अग्िन +प्र……वलित करने वाले देशभक्तों के दो मुखियाओं के नाम बताइये। +
उ. लाला जयदयाल और मेहराब खान। +508. 15 अक्टूबर 1857 को कोटा रा…य की दो पलटनों के सभी सैनिकों ने जिस +अंग्रेज मेजर को घ्ोरकर मार दिया, उसका नाम बताइये। +
उ. मेजर बर्टन। +509. 15 अक्टूबर 1857 को कोटा रा…य की जिन दो पलटनों ने क्रान्ति की, +उनके नाम लिखिये। +
उ. नारायण पलटन तथा भवानी पलटन। +510. 17 सितम्बर 1860 को कोटा एजेंसी के बंगले के पास उसी स्थान पर दो +लोगों को फाँसी दी गई जिस जगह मेजर बर्टन का वध हुआ था। फाँसी के +फँदे को चूमने वाले उन दो वीरों के नाम बताइये। +
उ. लाला जयदयाल तथा मेहराब खान। +511. जोधपुर रा…य प्रतिवर्ष अंग्रेजों को कितना धन देता था? +
उ. सवा लाख रुपया। +512. जोधपुर रा…य के खर्च पर अंग्रेजों ने एरिनपुरा छावनी में एक सेना रखी थी। +उस सेना का नाम क्या था? +
उ. जोधपुर लीजन। +513. नसीराबाद के क्रान्तिकारी सनिकों को दबाने के लिए भेजी गई जोधपुर की +सेना ने क्रान्तिकारियों के विरुद्घ लडऩे से मना कर दिया। इस सेना के प्रमुख +का नाम क्या था? +
उ. कुशलराज सिंघवी। +514. अगस्त 1857 में एरिनपुरा छावनी में सैनिकों की एक टुकड़ी को रोवा +ठाकुर के विरुद्घ अनादरा भेजा गया था। इस टुकड़ी का नायक कौन था? +
उ. हवलदार गोजन सिंह। +515. रोवा ठाकुर के विरुद्घ अनादरा भेजी गई एरिनपुरा छावनी की सैनिक +टुकड़ी ने सौंपा गया कार्य करने की बजाय फिरंगियों पर हमला कर क्रान्ति +का शंखनाद कर दिया। फिरंगियों पर यह आक्रमण किस स्थान पर हुआ +था? +
उ. आबू पर्वत (माउंट आबू) +516. एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने किस तिथि को फिरंगियों पर आक्रमण +किया था? +
उ. 21 अगस्त 1857 को। +517. एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने अपना मुखिया किसे बनाया? +
उ. मेहराब सिंह को। +518. 1857 में क्रान्ति का प्रतीक बना 'आउवा' राजस्थान के किस जिले में है? +
उ. पाली। +519. 'आउवा' के क्रान्तिकारी ठाकुर का नाम क्या था? +
उ. ठाकुर कुशाल सिंह। +520. अंग्रेजों के विरुद्घ आउवा में एकत्रित फौजों में लगभग कितने ठिकानों की +फौजें थीं? +
उ. 10 (आसोप, गूलर, आलनियावास, लाम्बिया, बन्तावास, रूदावास, सलूम्बर, +रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द) +521. आउवा की क्रान्ति को दबाने के लिए गई जोधपुर की विशाल सेना के +प्रमुख का नाम क्या था? +
उ. अनाड़ सिंह। +522. आउवा पर आक्रमण के लिए कूच करने वाली जोधपुर की सेना के साथ +अंग्रेज अपनी सेना के साथ आ मिला। इस अंग्रेज सेनानायक का नाम क्या था? +
उ. हीथकोट। +523. 8 सितम्बर 1857 को स्वरा…य के सैनिकों ने जोधपुर की सेना पर आक्रमण +कर दिया। यह युद्घ किस स्थान पर हुआ? +
उ. बिथौड़ा। +524. 8 सितम्बर 1857 को जोधपुर सेना व स्वरा…य सैनिकों के मध्य युद्घ का +परिणाम क्या रहा? +
उ. अनाड़ सिंह मारा गया, हीथकोट भाग गया। +525. 18 सितम्बर को जॉर्ज लॉरेंस ब्यावर से विशाल सेना लेकर आउवा की +तरफ चला। स्वातंत्र्य सैनिकों से इसका युद्घ किस स्थान पर हुआ? +
उ. चेलावास। +526. जॉर्ज लॉरेंस की युद्घ में सहायता के लिए जोधपुर का पॉलिटिकल एजेन्ट +भी था। क्रान्तिकारियों ने उसका सिर काटकर शव आउवा किले के दरवाजे +पर उल्टा टांग दिया। उस पॉलिटिकल एजेन्ट का नाम बताइये। +
उ. मॉक मेसन। +527. दिल्ली में क्रान्तिकारियों की स्थिति कमजोर होने का समाचार आउवा +पहुँचने पर सबने मंत्रणा कर क्रान्ति सेना का बड़ा हिस्सा दिल्ली के लिए +रवाना कर दिया। इस फौज की कमान किसे सौंपी गई? +
उ. आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह को। +528. फौज का बड़ा हिस्सा दिल्ली भेजने तथा किलेदार के विश्वासघात के +कारण अन्तत: आउवा की पराजय हो गई। इस युद्घ की तिथि बताइये। +
उ. 20 जनवरी 1858 के दिन। +529. आउवा की पराजय के बाद कर्नल होम्स किले की एक प्रसिद्घ देवी +प्रतिमा उठा लाया। यह प्रतिमा किस देवी की है? +
उ. महाकाली की। +530. कर्नल होम्स द्वारा आउवा से लाई गई देवी प्रतिमा इस समय कहाँ है? +
उ. राजकीय संग्रहालय, अजमेर। +531. मासिक 'चाँद' का नवम्बर 1928 के अंक का नाम बताइये जिसे प्रकाशन +पूर्व प्रतिबंधित कर दिया गया? +
उ. फाँसी अंक। +532. मासिक 'चाँद' के नवम्बर 1928 के अंक में 1857 पर एक लेख किस +शीर्षक से छपा था? +
उ. सन् 57 के कुछ संस्मरण। +533. 'ये लोग विद्रोही न थे, बल्कि नगर निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता और +क्षमाशीलता पर विश्वास था। मुझे खुशी है उनका भ्रम दूर हो गया।' बोम्बे +टेलीग्राफ में एक पत्र में दिल्ली के कत्लेआम और लूट को जायज ठहराने +वाले अंग्रेज अधिकारी का नाम बताइये। +
उ. मोंटगोमरी मार्टिन। +534. 'जिस कविता को लिखने के कारण हम लोगों को मृत्युदंड दिया जा रहा +है, हम लोग मृत्यु से पूर्व वह कविता सुनाना चाहते हैं।' गढ़ मंडला के उन +पिता-पुत्र कवियों के नाम बताइये। +
उ. राजा शंकर शाह तथा रघुनाथ शाह। +535. गढ़ मंडला के पिता-पुत्र कवियों को क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण तोप +के मुँह पर बाँधकर उड़ा दिया गया। उनके बलिदान की तिथि बताइये। +
उ. 18 सितम्बर 1858 के दिन। +536. सेठ लाला मटोलचंद अग्रवाल ने स्वाधीनता के संघर्ष हेतु अपना सारा खजाना +बहादुर शाह जफर को भेंट कर दिया। इन सेठजी का निवास स्थान कहाँ था? +
उ. डासना (गाजियाबाद)। +537. दिल्ली के गुड़वाला सेठ का पूरा नाम बताइये जिन्होंने बहादुर शाह जफर +की आर्थिक सहायता की पर अंग्रेजों को धन देने से मना कर दिया। +
उ. सेठ रामजीदास गुड़वाला। +538. दिल्ली के गुड़वाला सेठ द्वारा अंग्रेजों को धन देने से मना करने पर अंग्रेजों +ने अपनी क्रूरता दिखाते हुए सेठजी को एक गड्ढे में कमर तक गाड़कर +शिकारी कुत्ते छोड़े तथा अन्तत: फाँसी पर लटका दिया। दिल्ली का वह +प्रसिद्घ स्थान कौनसा है जहाँ उन्हें फाँसी दी गई? +
उ. चाँदनी चौक। +539. ग्वालियर के सेठ अमरचन्द बाँठिया मूलत: कहाँ के रहने वाले थे? +
उ. बीकानेर (राजस्थान)। +540. सेठ अमरचन्द बाँठिया ने ग्वालियर का सारा राजकोष किस स्वातंत्र्य योद्घा +को भेंट कर दिया? +
उ. महारानी लक्ष्मीबाई। +541. सेठ अमरचन्द बाँठिया पर राजद्रोह का आरोप लगा तब यह बात उन्होंने +किस अंग्रेज अधिकारी से कही - 'तुम हमारे देश के दुश्मन हो और दुश्मन +के प्रति द्रोह करना अपने देश के प्रति वफादारी है'? +
उ. ब्रिगेडियर नेपियर। +542. कंदर्पेश्वर सिंह और मनीराम दत्त ने किस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन को +उखाडऩे की तैयारी की? +
उ. असम। +543. नाथद्वारा में तात्या टोपे को श्रीनाथ जी के दर्शन कराने वाले मन्िदर के मुख्य +पुजारी जी का नाम बताइये। +
उ. गोस्वामी तिलकायत जी। +544. मेरठ छावनी के उस अंग्रेज अधिकारी का नाम बताइये जो क्रान्ति सैनिकों +की ओर से लड़ा। +
उ. रिचर्ड विलियम्स। +545. डॉ. वाकणकर के अनुसार अम्बाजी का मन्िदर किसने बनवाया, जिनका +साधुवेश में चित्र उसी मन्िदर में लगा है? +
उ. तात्या टोपे। +546. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने स्वरचित जीवन चरित्र में 1857-1859 +की अवधि में किस क्षेत्र में रहने का उल्लेख किया है? +
उ. नर्मदा तट पर। +547. नरसी महता के प्रसंग में 1857 में अंग्रेजों द्वारा मन्िदर की मूर्ति तोडऩे तथा +बाघ्ोर लोगों द्वारा उसे बचाने के लिए वीरता दिखाने का उल्लेख स्वामी +दयानन्द सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' के किस समुल्लास में किया है? +
उ. ग्यारहवाँ समुल्लास। +548. 'वत्स! भारत देश से विदेशी शासन को उखाड़ फैंकने के लिए नर्मदा तट +पर सन्त वर्ग एक रूपरेखा तैयार कर रहा है। वह सर्वथा गुप्त है। समस्त देश +में निश्चित तिथि को नियत समय पर उसका विस्फोटन होगा।' कनखल +हरिद्वार में स्वामी दयानन्द सरस्वती से यह बात किसने कही? +
उ. महात्मा सम्पूर्णानन्द जी ने। +549. नाना साहब पेशवा स्वामी दयानन्द सरस्वती से विचार विमर्श करने के +लिए आए थे। यह विवरण 12 जनवरी 69 के जिस साप्ताहिक पत्र में छपा है +उसका नाम बताइये। +
उ. सार्वदेशिक। +550. आर्य समाज द्वारा जुटाए गए विवरण के अनुसार नाना साहब पेशवा की +समाधि नेपाल में नहीं है। तो उनके अनुसार उनकी समाधि कहाँ स्थित है? +
उ. मोरवी (गुजरात) के शंकर आश्रम में। +551. नीमच छावनी में कर्नल एबॉट ने सैनिकों द्वारा ली गई वफादारी की शपथ +का स्मरण कराया तो यह किसने कहा - 'अंग्रेजों ने स्वयं ने अपनी शपथ का +पालन नहीं किया है, क्या आपने अवध का अपहरण नहीं किया? इसलिए +भारतीय भी अपनी शपथ का पालन करने को बाध्य नहीं हैं।' +
उ. मोहम्मद अली। +552. नीमच छावनी से भयभीत होकर भागे अंग्रेज परिवारों के 40 सदस्यों को +मेवाड़ के डूँगला गाँव के एक किसान ने शरण प्रदान की। उस किसान का +नाम बताइये। +
उ. रूँगाराम। +553. टोंक की जनता व सेना क्रान्तिकारियों के साथ थी तथा यहाँ से 600 +स्वातंत्र्य योद्घा दिल्ली गए थे। यह सूचना जिस डायरी से प्राप्त होती है, उसके +लेखक का नाम बताइये। +
उ. मुंशी जीवनलाल। +554. टोंक नवाब के मामा का नाम बताइये जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार +का खुला विरोध किया था? +
उ. मीर आलम खाँ। +555. मोहम्मद मुजीब के उस नाटक का नाम बताइये जिसमें 1857 की क्रान्ति +में टोंक की स्त्रियों के भी भाग लेने का उल्लेख है। +
उ. आजमाइस। +556. अंग्रेजों को आउवा के किले से कितने शस्त्रास्त्र मिले? +
उ. 6 पीतल, 7 लोहे की तोप, तीन टन बारुद, तीन हजार राउंड तोप के +गोले। +557. अंग्रेजों ने आउवा से प्राप्त तोपें कहाँ भेजी? +
उ. अजमेर। +558. अंग्रेजों ने आउवा से प्राप्त बारुद का उपयोग किस कार्य में किया? +
उ. गढ़ को ध्वस्त करने में। +559. 'ठाकुर कुशाल सिंह के सहयोगी समरथ सिंह द्वारा मारवाड़ व मेवाड़ के +सामन्तों को अंग्रेजों के विरुद्घ संगठित करने का प्रयत्न हो रहा था।' यह बात +जिस पत्र से ज्ञात होती है वह किसने लिखा था? +
उ. देवगढ़ (मेवाड़) के रावत रणजीत सिंह ने। +560. 'ठाकुर कुशाल सिंह के सहयोगी समरथ सिंह द्वारा मारवाड़ व मेवाड़ के +सामन्तों को अंग्रेजों के विरुद्घ संगठित करने का प्रयत्न हो रहा था।' कार्तिक +कृष्णा-13 संवत् 1914 को लिखे गए जिस पत्र से यह बात ज्ञात होती है वह +पत्र नीमच छावनी में नियुक्त किस व्यक्ति को लिखा गया था? +
उ. मेहता शेरसिंह को। +561. आउवा से पराजित होकर लौटते समय जॉन लॉरेंस की सेना को रसद और +आश्रय देने से मना करने वाले ठाकुर कौन थे? +
उ. बगड़ी ठाकुर। +562. आउवा से आए विद्रोही सैनिकों को अपने गढ़ में आश्रय देने वाले और +इसके लिए अंग्रेजों की सेना से युद्घ करने वाले ठाकुर कहाँ के थे? +
उ. सिरियारी के। +563. 1857 में अजमेर के खजाने की सुरक्षा के लिए जोधपुर से भेजी गई सेना +का पड़ाव किस स्थान पर था? +
उ. आनासागर के किनारे। +564. 1857 में जोधपुर से अजमेर भेजी गई सेना को लेफ्टिनेंट कारनेल ने +वापस क्यों भेजा? +
उ. सैनिकों ने भूतपूर्व ए.जी.जी. सदरलैंड की प्रतिमा पर पत्थर फैंके थे। +565. नसीराबाद एवं नीमच के क्रान्तिकारियों का पीछा करने के लिए जोधपुर से +एक सेना भेजी गई। इस सेना ने पीछा तो किया पर उन्हें रोकने या टकराने +का प्रयत्न नहीं किया। इस सेना का नेतृत्व कौन कर रहा था? +
उ. केप्टन हार्ड केसल। +566. मरवाड़ की सेना की क्रान्तिकारियों से सहानुभूति थी अत: युद्घ में उनके +व्यवहार से खिन्न होकर यह किसने लिखा - 'मारवाड़ी सैनिक विद्रोहियों +के समक्ष अर्दली की भाँति नृत्य करने के अभ्यस्थ हैं'? +
उ. जॉर्ज लौरेंस (ए.जी.जी.)। +567. आउवा में संघर्ष किस सन् तक चलता रहा? +
उ. 1861 ई. तक। +568. 1857 की क्रान्ति के समय जोधपुर सम्भाग में ब्रिटिश विरोधी भावना सर्वत्र +व्याप्त थी। यह बात जॉर्ज लॉरेंस को 16 मई 1858 को लिखे पत्र में किसने +स्वीकार की? +
उ. जोधपुर के कार्यवाहक पॉलिटिकल एजेंट मोरीसन ने। +569. जोधपुर के बारुद भंडार में विस्फोट किस तिथि को हुआ था? +
उ. 10 अगस्त 1857 को। +570. जोधपुर किले में बारुद भंडार किस जगह स्थित था? +
उ. गोपाल पोल के पास। +571. जोधपुर किले के बारुद भंडार की विशालता का अनुमान इस बात से +होता है कि विस्फोट के बाद चारमन का पत्थर कितनी दूर पहुँचा। +
उ. छ: मील। +572. केप्टन मेसन की हत्या का समाचार उसकी पत्नी एवं ब“ाों को देने के +लिए जोधपुर महाराजा ने मेहता विजयमल और सिंघवी समरथ राज को +उनके आवास पर भेजा। जोधपुर में उसका आवास कहाँ था? +
उ. सूर सागर। +573. केप्टन मेसन की आउवा में हत्या के बाद भी जोधपुर किले में शोकस्वरूप +'नौबत' बजाना नहीं रुका जबकि जोधपुर सेना के एक सेनापति के आउवा +में मारे जाने पर 'नौबत' नहीं बजी। उस सेनापति का नाम बताइये। +
उ. अनाड़ सिंह पँवार। +संदर्भ ग्रंथ. +1. 1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर, विनायक दामोदर सावरकर, +हिन्दी संस्करण, 1993 +2. 1857 के स्वाधीनता संग्राम में दक्षिण भारत का योगदान : डॉ. +वा.द.दिवेकर, हिन्दी संस्करण, 2001, भारतीय इतिहास संकलन +समिति, आगरा। +3. 1857 का स्वातंत्र्य समर : एक पुनरावलोकन, डॉ. सतीश चन्द्र +मित्तल, अ.भा. इतिहास संकलन योजना। +4. राजस्थान का स्वाधीनता संग्राम : डॉ. प्रकाश व्यास, संस्करण +1985, पंचशील प्रकाशन, जयपुर। +5. आधुनिक राजस्थान का वृहत इतिहास : भाग-2। +6. पाथेय-कण, अप्रेल 2007। +7. आँखों देखा गदर (विष्णु भट्ट गोडशे कृत 'माझा प्रवास' का हिन्दी +अनुवाद) अनुवादक : अमृतलाल नागर, राजपाल एंड सन्स, 1990 संस्करण। +8. 1857 का संग्राम : वि. स. तालिंबे। अनुवादक : विजय प्रभाकर, +नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, संस्करण 2006। +9. रानी लक्ष्मीबाई : वृन्दावन लाल वर्मा, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, +उन्तीसवीं आवृत्ति, 2006। +10. उन्नीसवीं शताब्दी का अजमेर : डॉ. राजेन्द्र जोशी, राजस्थान +हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, संस्करण 1972। +11. अट्ठारह सौ सत्तावन और स्वामी दयानन्द : वासुदेव शर्मा, प्रथम +संस्करण : 1970, भारतीय लोक समिति, नई दिल्ली। +12. पाञ्चजन्य : 6 मई 2007। + +प्राचीन आर्य इतिहास का भौगोलिक आधार: +परिचय. +भारतीय आर्यों के प्राचीन इतिहास तथा भूगोल का अज्ञान, या तो हमारे आलस्य के कारण या हमारी बहुमूल्य ऐतिहासिक पुस्तकों के शत्रुओं द्वारा नष्ट हो जाने के कारण, अभी तक हमें पूर्ण निश्चय के साथ यह उद्घोषित करने का अवसर नहीं देता कि हमारी प्राचीन आर्य संस्कृति किस श्रेणी तक उस समय पहुंच चुकी थी, जिस समय आधुनिक नव्य-सभ्य राष्ट्रों का उदय तो कौन कहे, नाम व निशान भी नहीं था ! अवश्य ही हमारे प्राचीन इतिहास के अनुशीलन में योरपीय विद्वानों ने जो सहायता पहुंचायी है, वह बहुमूल्य है। विदेशी होकर भी आज तक उन लोगों ने जो कुछ किया, वह आशातीत और हमारी आंखें खोलने के लिये पर्याप्त है। हमारा इतिहास कुछ ख्रीष्टाब्द या विक्रमाब्द से मर्यादित नहीं; यह तो सृष्टि-सनातन और आधुनिक विद्वानों के मस्तिष्क रूपी अनुवीक्षण यन्त्र की दृष्टि से बाहर है। सच पूछा जाय, तो आर्यों का इतिहास ही विश्व का इतिहास है। आज तक यह कोई भी ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि आर्यों का सम्पूर्ण इतिहास विश्व की विद्वन्मण्डली को कब दृष्टिगोचर होगा। योरपीय विद्वानों ने अन्धकार से निकलने की युक्ति हमें बता दी है। अब तो हमारा कर्तव्य है कि अपने इतिहास का देदीप्यमान चित्र विश्व के सामने रख दें। पाश्चात्य विद्वानों की प्रायः यह धारणा रही है और है कि भारतवासी आर्य इतिहास लिखना या सुरक्षित रखना नहींजानते थे। यह विवाद, जो किसी भी भारतीय विद्वान् को असह्य है, बहुत दिनों से चला आ रहा है। प्राचीन इतिहास के अनुशीलन के लिये प्रायः दो परिपाटी चल पड़ी हैं, और ऐतिहासिक तत्त्वों का स्पष्टीकरण भी प्रायः दो ज़ुदे-ज़ुदे मार्गों से हो रहा है। पाश्चात्य विद्वान् अवश्य ही समय-निर्धारण में अत्यन्त संकोच और द्वेष बुद्धि से काम लेते आये हैं। यह आज बिल्कुल निर्विवाद है कि हमारे आर्य ऋषि-प्रवर साहित्य, ज्योतिष, विज्ञान, आयुर्वेद आदि समस्त कलाओं में उस पूर्णता तक पहुंच चुके थे, जो आज भी योरप के लिये स्वप्नवत् प्रतीत हो रही है। यह एक सत्य है, जिसे पहले तो नहीं, परन्तु अब प्रत्येक पाश्चात्य विद्वान् मुक्त-कण्ठ से स्वीकार कर रहा है। हाँ, समय निर्धारण का प्रश्न बड़ा ही जटिल है, और वह भी इसलिये कि हमारे पास ऐतिहासिक प्रमाणों का अभाव-सा समझा जाता है। हमारे हृदय सम्राट् बाल गङ्गाधर तिलक का ’ओरायन’ गन्थ इस दिशा में हमें बहुत कुछ प्रकाश में ला चुका है। उनका विचार एवं निष्कर्ष ज्योतिष, गणित और वैदिक ऋचाओं पर अवलम्बित है। सच तो यह है कि जिस समय हम थे, उस समय हमारी जाति के सिवा संसार में और कोई भी सभ्य जाति नहीं के बराबर थी। हमारी ऐतिहासिक प्राचीनता में एक ऐतिहासिक गौरव सन्निहित है। आज "हम" हम नहीं, आज बहुतेरे हम हो गये और इसी हमाहमी में एक भारतीय इतिहास ही नहीं, प्रत्युत विश्व इतिहास झगड़े की चीज़ बन गया। संसार में आर्य और अनार्य दो ही मुख्य जातियां हैं। आर्यों की शाखायें-प्रशाखायें इतनी बढ़ गयी हैं कि उस अन्धकार में इतिहास के पन्ने उलटना बड़ी विकट समस्या है। उस पर एक आश्चर्य यह कि सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के मुख्यतः दो ही आधार हैं-एक तो वैदिक साहित्य, और दूसरे भौगोलिक आधार पर पृथ्वी की भिन्न-भिन्न सतहों की खोज। दिन-दिन हमारे इतिहास को नव-नव प्रकाश मिलता जा रहा है। आर्य-इतिहास एक बुझौवल या प्रहेलिका के रूप में हमें मिल रहा है। वैदिक साहित्य की व्याख्यान का रूप दिन-दिन विकसित और गम्भीर होता जा रहा है। सच पूछिये तो वैदिक साहित्य संसार-मात्र का साहित्य हो रहा है। इसमें सभी समान रूप से दिलचस्पी ले रहे हैं। कोई नहीं कह सकता कि भविष्य में हमारे आर्य इतिहास का क्या रूप होगा तथा हमारा अन्तर-राष्ट्रीय सम्बन्ध कैसा रहेगा। हमारा समस्त साहित्य विश्व का साहित्य हो रहा है। कौन कह सकता है कि हमारे दर्शन, साहित्य और इतिहास एक दिन विश्वमात्र के लिये दर्शन, साहित्य और इतिहास नहीं हो जायँगे ? विश्व आज उसी की पुनरावृत्ति कर रहा है, जो आर्य लोग कर चुके हैं; और सम्भवतः वहीं पहुँचेगा, जहाँ हम एक बार पहुँचकर भटक से गये हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। यह एक दिन सबके सामने आयेगा। इसी से कहा जाता है कि अन्तर-राष्ट्रीय मिलन का एकमात्र आधार भारतवर्ष होगा; क्योंकि उसकी कुंजी इसी के हाथ मॆं है। +हाँ, तो हमारा इतिहास आज एक प्रकार से प्रमाणों के अभाव में Mythology सा बन गया है। पुराण गप्प-सा बन गया है और रामायण और महाभारत को रूपक का रूप मिल गया है ! यह हमारे लिये लाचारी और लज्जा की बात है । भारतीय विद्वान् इसी गुत्थी के सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं । विद्वद्वर श्रीयुत् के. पी. जायसवाल ने, बिहार और ओरिसा-रिसर्च-सोसाइटी के जर्नल में , गर्ग-संहिता के एक अध्याय के आधार पर यह साफ-साफ साबित कर दिया है कि भारतवासी इतिहास लिखना जानते थे, तथा गर्ग के ऐतिहासिक अध्याय से हम प्राचीन राजवंश के इतिहास तक निर्विघ्न पहुँच जा सकते हैं । बहुत निकट-भविष्य में महाभारत से आज तक का सुसम्बद्ध इतिहास हमारे सामने आ जायगा, ऐसी आशा की जाती है। गर्ग-संहिता का ऐतिहासिक विवरण ग्रीक विद्वानों के उस ऐतिहासिक विवरण से मिल जाता है , जो उन्होंने भारतवर्ष के बारे में लिखा है । जायसवालजी का यह प्रयत्न ऐतिहासिक संसार में युगान्तर पैदा कर सकता है । अपार संस्कृत-साहित्य के अनुशीलन से ही हम अपने इतिहास की खोज करने में सफल मनोरथ हो सकते हैं । लोकमान्य तिलक हमारे पथ-प्रदर्शक हो गये हैं; अब हमें आगे बढ़ना है । हमें इस लेख में भौगोलिक आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास के दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न करना है । इस सम्बन्ध में उपनिषद्, पुराण और महाभारत के भौगोलिक वर्णनों से हमें बहुत कुछ पता लग सकता है। श्रीमद्भागवत में तो भूगोल का पूर्ण ख़ाका ही खींचा गया है । इस लेख में मैं केवल भौगोलिक आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश करूँगा कि आर्य लोग भारतवर्ष में काबुल की ओर से न आकर काश्मीर की राह से आये और सिन्धु-नदी के किनारे-किनारे आकर सारे पंजाब में बस गये । पंजाब से वे पश्चिमोत्तर की ओर बढ़ते-बढ़ते काबुल नदी के आस-पास तक पहुँच गये और वहीं पर आर्यों की उस शाखा से उनकी मुठभेड़ हुई, जो ऑक्सस-नदी के पश्चिमोत्तर-प्रदेश Airya nem Vaejo (अरियानम् व्वज) अर्थात् ’आर्यानां व्रजः’ से आर्यों की भारतीय शाखा से विलग हो गयी । उनका भारतीय आर्यों से मतैक्य नहीं था, तथा वे भारतीय आर्यों को देव-पूजक कहने लगे थे। भारतीय आर्य उन्हें ’असुर’ कह कर पुकारते थे । ऋग्वेद में ’असुर’ शब्द का अर्थ वही नहीं है, जो आज समझा जाता है। पहले ’असुं राति लाति ददाति इति असुरः’ अर्थात् देवता के अर्थ में ’असुर’ शब्द प्रयुक्त होता था। अब इसका अर्थ हो गया है-’न सुरः असुरः’। इरानी आर्यों से भारतीय आर्यों की लड़ाई का मुख्य कारण बतलाना तो मुश्किल है, परन्तु इतना कहा जा सकता है कि इस द्वेष का कारण कुछ तो आर्थिक और कुछ धार्मिक था । हम ऋग्वेद में देखते हैं कि आर्यों के देवों की संख्या क्रमशः बढ़ती जाती है। अवेस्ता में वैदिक साहित्य के ब्राह्मण भाग का कोई भी संकेत नहीं मिलता। हाँ, ऋग्वेद की भाँति जिन्दा-अवेस्ता में मन्त्र और सूत्र अवश्य विद्यमान हैं। मन्त्र का रूप उसमें ’मन्थ्रन्’ है। पारसियों के पवित्र ग्रन्थों का नाम ’मन्थ्र-स्वेन्त’ है। अवेस्ता के देवताओं में- जो भारतीय आर्यों से मिलते-जुलते हैं-मित्र, वरुण, आर्यमन् और यमी (यम) है। वैदिक साहित्य में इधर आर्यों ने दिन-दिन विकास प्राप्त किया। विचार-धारा शाश्वत रूप से बहती गयी। +भारतीय आर्य तथा पारसियों की भौगोलिक स्थिति और आलोचना-अब भारतीय तथा पारसियों की भौगोलिक स्थिति पर सम्यक् विचार करके मैं यह स्पष्ट करूँगा कि किस तरह भारतीय साहित्य में वर्णित भूगोल की परिपाटी अवेस्ता के भूगोल से भिन्न है। पहले मैं संक्षेप में वायु-पुराण में वर्णित जम्बूद्वीप में आये देशों की सूची देता हूँ- +इदम् हैमवतं वर्षं भारतं नाम विश्रुतम्। हेमकूटं परं तस्मात् नाम्ना किम्पुरुषं स्मृतम्॥
+नैषधं हेमकूटात् तु हरिवर्षं तदुच्यते। हरिवर्षात् परञ्चैव मेरोश्च तदिलावृतम्॥
+इलावृतात् परं नीलं रम्यकं नाम विश्रुतम्। रम्यात् परं श्वेत विश्रुतं तत् हिरण्मयम्॥
+हिरण्मयात् परं चापि शृंगवांस्तु कुरुः स्मृतम्। (वायु पुराण)
+(१) हैमवत् वर्ष अर्थात् प्रसिद्ध भारतवर्ष, +(२) उसके बाद हेमकूट पर्वत है, जिसे किम्पुरुष देश कहते हैं, +(३) हेमकूट के बाद नैषध है, जिसे हरिवर्ष कहते हैं, +(४) हरिवर्ष के बाद मेरु-पर्वत के उत्तर इलावृत है, +(५) इलावृत के बाद नील वर्ष है, जो ’रम्यक’ नामसे प्रसिद्ध है, +(६) रम्यक के उत्तर श्वेत-प्रदेश है, जिसे हिरण्मय कहते हैं और +(७) हिरण्मय के बाद शृंगवान् है, जो कुरु नाम से प्रख्यात है। +इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वायुपुराण के अनुसार सात देश हुये। सातों देशों में सबसे उत्तर कुरु देश हुआ। यह ’कुरु’ कहाँ है सो ब्रह्माण्डपुराण के निम्न-लिखित श्लोक से स्पष्ट हो जाता है- +उत्तरस्य समुद्रस्य समुद्रान्ते च दक्षिणे। कुरवः तत्र तद्वर्षं पुण्यं सिद्ध-निषेवितम्॥ +यह कुरु उत्तरीय समुद्र के दक्षिण की ओर बसा हुआ है। यहाँ सिद्ध पुरुष रहते हैं, जिनका नाम ’कुरु’ है। +अवश्य ही यह कुरु उत्तरसागर के दक्षिण रहा होगा, जो उत्तर ध्रुव के उत्तरीय वृत्त में बसा होगा। इससे लो. तिलक की सम्मति को कोई आघात नहीं पहुँचता। परन्तु प्रश्न यह होता है कि इस कुरु और भरत-खण्ड के कुरु में क्या सम्बन्ध है ? इसका समाधान मैं पीछे करूँगा। तब तक यह देख लेना चाहिये कि इस कुरु का हमारे पुराणों में कैसा वर्णन आया है। पद्मपुराण के निम्नलिखित श्लोक अनावश्यक नहीं कहे जा सकते-
+उत्तरेण तु शृंगस्य समुद्रान्ते द्विजोत्तमाः। वर्षमैरावतं नाम तस्मात् शृंगवतः परम्॥
+न तु तत्र सूर्यगतिः न जीर्य्यन्ति च मानवाः। चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो ज्योतिर्भूत इवावृतः॥

+अर्थात्, शृंग के उत्तर समुद्र के अन्त में ऐरावत वर्ष है, जहाँ ’द्विजों में श्रेष्ठ ’ रहते हैं। यह वर्ष शृंगवान् के बाद है तथा यहाँ पर न तो सूर्य की गति है, न मनुष्य जीर्ण होते हैं और स-नक्षत्र चन्द्रमा शाश्वत चमकते रहते हैं। +यहाँ उत्तरतम प्रदेश कुरु न होकर ऐरावत हो गया है। किन्तु पद्मपुराण के अनुसार उत्तर कुरु को इस मेरु और नील के मध्य में पाते हैं। जैसे- +दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पार्श्वे तथोत्तरे। उत्तराः कुरवो विप्राः पुण्याः सिद्धनिषेविताः॥
+इस श्लोक में हम ब्रह्माण्डपुराण की छाया तो अवश्य पाते हैं, परन्तु कुरु यहाँ उत्तर-कुरु होकर, उत्तर-ध्रुव के निकटवर्त्ती प्रदेशों से हटकर, मेरु और नील के मध्य में आ गया है। अवश्य ही यह आर्यों के स्थानान्तरित होने का सूचक है। आर्य लोग मध्य-एशिआ की ओर बढ़ते आते हैं और अपने प्रिय प्रदेश का नाम अपने साथ लेते आते हैं, जो मध्य-एशिआ से दक्षिण की ओर हटते-हटते, भरत-खण्ड में कुरु-पाञ्चाल के रूप में परिवर्तित हो गया है। यह मैं उपसंहार में दिखलाऊँगा। तब तक मैं अन्य प्रमाण द्वारा यह सिद्ध करूँगा कि यही कुरु महाभारत में हरिवर्ष में किस प्रकार आ गया है। +अर्जुन की विजय-यात्रा और कुरु या उत्तरकुरु. +महाभारत के सभा-पर्व में अर्जुन की विजय-यात्रा के प्रसंग में भी उत्तर-कुरु का उल्लेख आया है। इसमें उत्तर-कुरु लोगों का हरिवर्ष में रहना सिद्ध होता है। यह हरिवर्ष अब उत्तरीय ध्रुव के समीपवर्ती वृत्त के अन्तर्गत नहीं है। यह बहुत ही दक्षिण की ओर हटकर मानसरोवर के प्रदेशों के उत्तर में बतलाया जाता है। अर्जुन का विजय क्रम इस प्रकार है-वह पहले +(१) श्वेत पर्वत को पार कर किम्पुरुषों के रहने की जगह पर अर्थात् किम्पुरुष-वर्ष में जाते हैं, जो द्रुमराजा के पुत्र द्वारा रक्षित है। +(२) तदनन्तर उन्हें जीतकर और उनसे कर ले गुह्यकों से रक्षित ’हाटक’ नाम के देश में चले गये। उन्हें भी जीतकर वह मानसरोवर की ओर आगे बढ़ गये। +(३) उधर हाटक देश के बाद मानसरोवर के निकट ही गन्धर्वों का देश था। इस देश को भी जीतकर गन्धर्वों से तित्तिर-किल्मिष और मण्डूक-नामक घोड़े कर-स्वरूप उन्होंने ग्रहण किये। +(४) इससे उत्तर जाने पर उन्हें हरिवर्ष मिला। यहाँ महाकाय, महावीर्य द्वारपालों ने इनकी गति अनुनय-विनय करके रोक दी। उन लोगों ने कहा कि यहाँ मनुष्यों की गति नहीं, यहाँ उत्तर-कुरु के लोग रहते हैं; यहाँ कुछ जीतने योग्य चीज़ भी नहीं। यहाँ प्रवेश करने पर भी, हे पार्थ, तुम्हें कुछ भी नज़र नहीं आयेगा और न मनुष्य तन से यहाँ कुछ दर्शनीय ही है। उन लोगों ने पुनः पार्थ की मनोवाञ्छा की जांच की। पार्थ ने कहा कि मैं केवल धर्मराज युधिष्ठिर के पार्थिवत्व का स्वीकार चाहता हूँ। इसलिये युधिष्ठिर के लिये कर-पण्य की आवश्यकता है। यह सुनकर उन लोगों ने दिव्य-दिव्य वस्त्र, क्षौमाजिन तथा दिव्य आभरण दिये।

+स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य वीर्यवान्। देशं किम्पुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम्॥
+महता सन्निपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह। अजयत्पाण्डवश्रेष्ठः करे चैनं न्यवेशयत्॥
+तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम्। पाकशासनीव व्यग्रः सहसैन्यः समासदत्॥
+सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः। गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् पाण्डवस्ततः॥
+तत्र तित्तिरकिल्मिषान् मण्डूकाख्यान् हयोत्तमान्। लेभे स करमत्यन्तं गन्धर्वनगरात्तदा॥
+उत्तरं हरिवर्षन्तु स समासाद्य पाण्डवः। इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दनः॥
+तत एनं महावीर्या महाकाया महाबला । द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन्॥
+पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथञ्चन । उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत॥
+न चात्र किञ्चिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते । उत्तराः कुरवो ह्येते गात्रयुद्धं प्रवर्तते॥
+प्रविष्टोऽपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किञ्चन । नहि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्॥
+... पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः।..युधिष्ठिराय यत्किञ्चित् करपण्यं प्रदीयताम्॥
+ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च। क्षौमाजिनानि दिव्यानि तस्य ते प्रददुः करम्॥
+-- (महाभारत, सभापर्व) +कालिदास और मेघदूत. +कालिदास के बतलाये हुये मेघ की राह में मिलने वाले प्रायः सभी नद-नदी, गिरि और नगर का पता आज चल गया है। कनखल यानी हरिद्वार तक या कैलाश तक तो हम मान जाते हैं, परन्तु इसके उत्तर गन्धर्वों की नगरी अलकापुरी को हम कोरी कल्पना समझते हैं। कम-से-कम हम इतना मानने को तैयार नहीं होते कि यह भी भौगोलिक सत्य है। अर्जुन श्वेत-पर्वत यानी हिमालय पार कर उत्तर की ओर बढ़े; परन्तु इसे हम कवि-कल्पना से बढ़कर और कुछ मानने के लिये अभी तैयार नहीं। यह मेघ की राह तो और भी कल्पना है। परन्तु इसके पूर्व हम यह दिखलाना चाहेंगे कि बौद्ध लोग किस प्रकार हिमालय के उत्तर-प्रदेशों से अपना सम्बन्ध रखते हैं। बिहार-नेशनल-कालेज के प्रिन्सिपल श्रीयुत् देवेन्द्रनाथ सेन् एम्.ए., आई.ई.एस्. ने अपने Trans-Himalayan-Reminiscences in Pali-literature नामक निबन्ध में यह बहुत ही अच्छी तरह से दिखलाया है कि बौद्धों का प्रभाव हिमालयोत्तर-प्रदेश में ही इतना अधिक क्यों पड़ा तथा बौद्ध लोग मानसरोवर के निकटवर्ती प्रदेशों के ही इतने प्रेमी क्यों हुये । उन्होंने बौद्ध जातकों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि भारतीय आर्यों का प्रेम हिमालयोत्तर-प्रदेश से कुछ नैसर्गिक-सा था। हम उनके निकाले हुये निष्कर्ष को अस्वीकार नहीं कर सकते। +गर्ग-संहिता और भारतीय इतिहास. +महाभारत के पश्चात् के इतिहास का दिग्दर्शन गर्गाचार्य ने अपनी गर्ग-संहिता में किया है। ऊपर लिखा जा चुका है कि श्रीयुत के. पी. जायसवाल ने Behar & Orissa Research Society के Journal में, गर्गसंहिता के ‘युग-पुराण’ नामक अध्याय के आधार पर, किस प्रकार जनमेजय से लेकर ख्रीष्टाब्द से दो शताब्दी पूर्व तक के इतिहास का दिग्दर्शन कराया है। गर्गाचार्य ने कृष्णा (द्रौपदी) की मृत्यु के बाद से भारतीय इतिहास लिखा है। उनके इतिहास की परिपुष्टि प्राचीन मुद्राओं, विदेशी विद्वानों के रेकर्ड तथा स्वतन्त्र प्रमाणों से भी होती है। उन्होंने जनमेजय और ब्राह्मणों के बीच वैमनस्य का जिक्र किया है। दूसरी बात, जो गर्ग-संहिता से विदित होती है, यह है कि महाभारत के बाद धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का केन्द्र तक्षशिला से हटकर मगध के पाटलिपुत्र में आ गया। जनमेजय की राजधानी तक्षशिला है और उसकी ब्राह्मणों से शत्रुता है। +महाभारत के बाद वैदिक धर्म. +महाभारत के बाद अवश्य ही ब्राह्मण धर्म यानी वैदिक धर्म के विरुद्ध आन्दोलन उठने का संकेत पाया जाता है। ऐसा क्यों हुआ, यह उस समय का इतिहास ही बतला सकता है। हिन्दू प्रणाली के अनुसार महाभारत का समय ख्रीष्टाब्द से ३,००० वर्ष के लगभग पहले माना जाता है और यह समय पाकर सत्य भी साबित हो सकता है। हमें विदित ही है कि ख्रीष्ट से पूर्व सातवीं शताब्दी के मध्य में बुद्धदेव और महावीर-जैन का उदय हुआ। स्वभावतः इस धार्मिक क्रान्ति के सफल होने में २,४०० वर्ष का समय बहुत नहीं है। वैदिक काल से ही हमारे धार्मिक विचार में परिवर्तन होते आये हैं और हिन्दू दर्शन के क्रमिक विकास का भी हमें पता मिल जाता है। तब वैदिक काल के अनेकेश्वरवाद से (जिसमें एकेश्वरवाद का बीज-वपन हो गया है) उपनिषत्काल के एकेश्वरवाद तक हम आ जाते हैं। एकेश्वरवाद के बाद हमें ब्रह्मवाद मिलता है, जिससे वेदान्त की उत्पत्ति हुई। इस ब्रह्मवाद में मायावाद सम्मिलित है। संसार माया का जाल और ब्रह्म ही एक सत्य समझा जाता है। परन्तु इसी ब्रह्मवाद और मायावाद की धूम के बाद पुरुष और प्रकृति-वाद का आन्दोलन जाग्रत् हो जाता है। ब्रह्म पुरुष और माया प्रकृति बन जाती है। इस विचार विकास में पर्याप्त समय लगा होगा। आते-आते सूत्रकाल में हमें कपिल का सांख्य-सूत्र मिलता है। यद्यपि सांख्यकारिका सांख्यधर्म के उदय के बहुत दिनों के बाद एक विशिष्ट दर्शन के रूपमें प्रकट हुई, तथापि हम इसे कम-से-कम बौद्ध धर्म से ५-६ सौ वर्ष पूर्व समय देने में कोई आपत्ति नहीं समझते। मैकडानेल्ड महोदय भी ख्रीष्टाब्द से १,००० वर्ष पूर्व सांख्यधर्म का उदय होना तो कम-से-कम स्वीकार ही करते हैं। सांख्य के आधिभौतिक धर्म को हम बौद्धों या जैनों के धर्म का मूल -कारण समझते हैं। कपिल अपने विचार के कारण नास्तिक समझे गये। धीरे-धीरे ४०० वर्षों तक नास्तिकता का, जैसा कि उस समय समझा गया, विकास होता गया। इन्हीं चार-सौ वर्षों में चार्वाक आदि का भी प्रादुर्भाव हुआ। अथर्व-काल के बाद हमें तन्त्र-धर्म का भी सूत्रपात होते देख पड़ता है। धीरे-धीरे यह तन्त्रवाद ज़ोर पकड़ता गया और वैदिक धर्म का रूप विकृत होता गया। यही तन्त्रवाद सम्भवतः शाक्त-धर्म का मूल-कारण रहा। गौतम बुद्ध के समय तक साधारण जनमानस में हिंसा का पूर्णतः प्रचार हो गया होगा। +महाभारत के बाद बौद्धकालीन इतिहास का अदर्शन. +परीक्षित के पुत्र जनमेजय के समय से ही ब्राह्मणों के विरुद्ध दुर्भाव फैलने लगे, और यही कारण है कि तक्षशिला छोड़कर ब्राह्मणधर्मावलम्बी आर्य मगध की ओर आ गये। गर्ग-संहिता के आचार्य गर्गजी ब्राह्मणधर्म का अनुयायी होने के कारण अवश्य ही बौद्ध या उसके पूर्व के इतिहास का दिग्दर्शन कराने से बाज़ आये से मालूम पड़ते हैं। सच पूछिये, तो संस्कृत साहित्य ही इस विषय में बिल्कुल चुप है। वह अवश्य ही परस्पर विद्रोह और अशान्ति का समय रहा होगा। गर्ग के सामने अवश्य ही ऐतिहासिक ग्रन्थ मौजूद रहे होंगे; परन्तु उन ग्रन्थों में नास्तिकों की कथा न लिखी गयी हो, यह सम्भव प्रतीत होता है। फलतः बौद्ध साहित्य के अनुशीलन के बिना भारतीय इतिहास का पूरा पता नहीं पा सकते। +बौद्ध जातकों में हिमालयोत्तर-प्रदेश. +फिर भी हम प्रसङ्गानुसार बौद्ध जातकों में आये हुए हिमालयोत्तर-प्रदेशों का वर्णन करेंगे। यद्यपि ये गल्पवत् प्रतीत होते हैं, तथापि हम उत्तर कुरु के सच्चे अस्तित्व का पता पा जाते हैं। ’मिलिन्दपन्ह’ में ’सागल’ नगर की उत्तर-कुरु से तुलना की है, जैसे-’उत्तरकुरु संकासं सम्पन्न सस्यं’। विधुर पण्डित के जातक में भी हम उत्तर-कुरु के दक्षिण में जम्बूद्वीप को पाते हैं। स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ पर जम्बूद्वीप ख़ास भारत समझा गया। जैसे-

+पुरतो विदेहे पस्स गोयानिये च पच्छतो करुयो। जम्बूदीपञ्च पस्स मणिम्हि पस्स निमित्तं॥
+इसके अनन्तर फिर भी हम निम्न-लिखित वाक्य मिलता है-

+विदेहेति पुव्वविदेहं गोयानिर्यति अपरगोयानिदीपं; कुरयो ति उत्तरकुरु च दक्षिणतो जम्बूदीपञ्च।
+अर्थात् विदेह पूर्व-विदेह को, गोयानिर्य अपरगोयानि-द्वीप को, कुरु उत्तर-कुरु को और उसके दक्षिण जम्बूद्वीप को कहते हैं। इससे उत्तर-कुरु का हिमालय से उत्तर होना सिद्ध हुआ। इस उत्तर-कुरु के बासिन्दे भी जम्बूद्वीप (भारत के अर्थ में) के बासिन्दों से अच्छे समझे गये हैं। जैसे-
+तीहि भिक्खवे ठानेहि उत्तरकुरुका मनुस्सा देवे च तावतिंसे अधिगण्हन्ति जम्बूदीपके च मनुस्से। कतमेति तीहि ? अमना च, अपरिग्गहा, नियतायुका, विसेसभुजो।
+अर्थात् तीनों बातों में उत्तर-कुरु के मनुष्य और तावतिंस के देव जम्बूद्वीप के मनुष्यों से भिन्न हैं। वे तीन कौन-कौन सी ? वे निर्मम हैं यानी मायारहित हैं, परिग्रह नहीं लेते, अमर हैं तथा कोई विशेष भोजन खाने वाले हैं। +मानसरोवर या अनोतत्तमहासर. +श्रीयुत देवेन्द्रनाथ सेन ने ’पालीसुत्त’ के आधार पर अनोतत्तमहासर का मानसरोवर होना साबित किया है। पाली-सूत्रों में सात नदियों का वर्णन पाया जाता है; जैसे-अनोतत्त, सिंहपपात, रथकार, कण्णमुण्ड, कुणाल, छ्द्धन्त और मन्दाकिनी। हिमालय से निकली नदियाँ गंगा, यमुना, अचिरावती, सरभू और मही है। ’सरभू’ सम्भवतः सरयू और अचिरावती वैदिक काल की सदानीरा है। मही उत्तर बिहार की एक प्रसिद्ध नदी है। अनोतत्त का अर्थ अनवतप्त है। सूत्रों के अनुसार यह झील उत्तर-कुरु में है; क्योंकि उत्तरकुरु में बोधिसत्त्व और बौद्ध भिक्षु लोग भिक्षाटन कर, अनोतत्त दह में विश्राम करते थे। +कीथ और मैकडानेल्ड की सम्मति. +The Uttar Kurus who play a mythical part in the epic and later literature, are still a historical people in the ऐतरेय ब्राह्मण where they are located beyond the Himalayas (परेण हिमवन्तम्). In another passage, however, the country of the Uttar Kurus is stated by Vashishtha Satyahavya to be a land of Gods (देवक्षेत्र), but जानन्तापि अत्याराति was anxious to conquer it, so that it is still not wholly mythical.-Keith. +The territory of the Kuru Panchal is declared in the ऐतरेय ब्राह्मण to be the middle country (मध्यदेश). A group of the Kuru people still remained further north-the Uttar Kurus beyond the Hiamlayas. It appears from a passage of the शतपथ ब्राह्मण that the speech of the Norherners-that is presumably the Norhern Kurus-and of the Kuru Panchal was similar and regarded as specially pure. There seems little doubt that the Brahmanical culture was developed in the country of the कुरुपाञ्चाल and that it spread then east, south and west-Macdonald. +स्पष्ट है कि उत्तर-कुरु हिमालय के उत्तर में है और ऐतरेय ब्राह्मण के समय में यह एक ऐतिहासिक प्रदेश रहा है, जहाँ से और कुरुपाञ्चाल से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था। सम्भवतः कुरुपाञ्चाल-निवासी उत्तर-कुरु के ही वंशधर और शाखा हैं। इस उत्तर-कुरु का भौगोलिक विकास हमारे इतिहास के लिये परम आश्चर्यजनक और महत्त्व की चीज़ है। इससे आर्यों का क्रमशः उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों से आते-आते सिन्धु-नदी के तटवर्त्ती प्रदेश की राह से भारतवर्ष अर्थात् जम्बूद्वीप में आना सिद्ध होता है। आर्यों के हिमालय की तराई से आने के लिये कई मार्ग हो सकते हैं। यह काश्मीर से तिब्बत (त्रिविष्टप) तक विस्तीर्ण है। इस संकटापन्न मार्ग का संकेत हमें ऋग्वेद के सूत्रों से भलीभाँति मिल जाता है। इरानी आर्य कहाँ से भारतीय आर्यों से विलग हुये, यह आगे बतलाया जायगा। हमारा साहित्य हिमालयोत्तर प्रदेश की पुण्य-स्मृतियों से ओतप्रोत है। कभी किसी का ध्यान काबुल की ओर नहीं गया। क्यों ? यह हम उपसंहार भाग में दिखलाएँगे। स्वर्ग के अस्तित्व की धारणा हमारे मन से अभी तक नहीं गयी है। यह हमारी विकट भूल होगी, यदि हम इस प्रत्यक्ष ऐतिहासिक तथ्य को खुले दिल से स्वीकार न करें। +बौद्ध धर्म के हिमालयोत्तर-प्रदेश में प्रचार का नैसर्गिक कारण. +दूसरी बात जिसे भूलने की सामर्थ्य नहीं, यह है कि बौद्ध धर्म का प्रचार हिमालय से उत्तर ही व्यापक रूप में हुआ। इस नैसर्गिक प्रचार का मूल कारण भी नैसर्गिक हो सकता है। चीनी यात्री फ़ाहियान और हुएनसांग के वर्णन इसके लिये पर्याप्त हैं। फ़ाहियान को, भारत में प्रवेश के पूर्व, खोटन आदि स्थानों में बौद्ध धर्म का पूर्णतः प्रचार मिला। हीनयान-पन्थ के हज़ारों भिक्षु उत्तर की ओर गये। शेनशेन में हीनयान और खोटन में महायान-सम्प्रदाय का प्रचार पाया गया। सर्वत्र संस्कृत और पाली का बोलबाला था। हुएनसांग को, जो गोबी (ओकिनि अर्थात् अग्नि) की मरुभूमि से आया, भारतीय लिपि से ही मिलती-जुलती लिपि गोबी के आसपास के प्रदेशों में मिली। बुद्धदेव की मूर्ति, संघाराम तथा अनेक मन्दिर भी मिले। वह अक्षु से होता हुआ आक्सस की तराई में आया और वहाँ से बल्ख़ चला गया। यह बल्ख़ अपने मन्दिरों की बहुलता के कारण राजगृह कहा जाता था। आश्चर्य नहीं, यदि सर आरेलस्टेन को खोटन की बालुका के अन्दर संस्कृत और प्राकृत के गड़े हुए ग्रन्थ मिले। उधरके शहरों के नाम तक संस्कृत और प्राकृतमय हैं। प्रिन्सिपल सेन के अनुसार यह भारतवर्ष से पूर्व तुर्किस्तान के परस्पर-संसर्ग का अचूक सम्भवनीय प्रमाण है। यह संसर्ग वैदिक सभ्यता से भी पूर्व का होगा। +ईरानी आर्यों की शाखा कब और कहाँ से अलग हुई? +अब हम अपनी लक्ष्य-पूर्ति के लिये उन आर्यों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, जो भारतीय शाखा से अलग हो ईरान की ओर चले गये। हम ऊपर कह चुके हैं कि भारतीय आर्य उस स्मरणातीत समय में अलग हुए, जब उनके वैदिक देवताओं की संख्या बहुत बढ़ने नहीं पायी थी। ’आर्यानां व्रजः’ कहाँ है-इसका स्पष्टीकरण ही इन दोनों शाखाओं के अन्तिम मिलन का इतिहास होगा। वे अवश्य ही उस समय विलग हुए, जब वे ’आर्यानां व्रजः’ में रहते थे। सेन महोदय ने आक्सस-नदी के कहीं पश्चिमोत्तर-प्रदेश में इसका होना बतलाया है। अतएव यह कैस्पियन या कश्यप सागर के दक्षिण-पूर्ववर्त्ती प्रान्त में कहीं हो सकता है। ज़ेन्दावेस्ता के भौगोलिक वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जायगी। किन्तु भौगोलिक वर्णन के पूर्व यह निश्चय कर लेना उचित है कि आर्यों के इस परस्पर वैमनस्य का कारण क्या हो सकता है। +दिति और अदिति की कथा तथा आर्यों का परस्पर संघर्ष. +कश्यप ऋषि की दो पत्नियों से दैत्यों और आदित्यों की उत्पत्ति की कथा सबको विदित है। बहुत सम्भव है, कश्यप-सागर के आसपास ही कश्यप ऋषि का रहना हुआ हो। दैत्य और आदित्य की कथा में देवासुर-संघर्ष का आभास मिल जाता है। पारसियों के इष्टदेव ज़ोरोस्टर को ज़ेन्दावेस्ता में ’मंथ्रन’ कहा गया है। आर्यों के प्राचीन इष्टदेव पारसी और भारतीय आर्यों के बिलकुल एक ही हैं। ज़ोरोस्टर ने आर्यों से मतभेद होते ही देव-पूजक आर्यों के विरुद्ध बग़ावत शुरु कर दी। ऋग्वेद के प्राचीन सूक्तों में सुर और असुर की भिन्नता न होने पर पीछे यह भेदभाव बहुत प्रबल हो गया है। असुरों के विरुद्ध देवदल और देवदल के विरुद्ध असुरदल पीछे प्रकट हो गये हैं। आश्चर्य तो यह है कि जिस तरह फ़ारस यानी ईरान में देव का अर्थ राक्षस हो गया है, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी असुर का अर्थ राक्षस ही समझा जाता है ! मुसलमानों के "हिन्दू" शब्द की व्याख्या में भी यही भेदभाव सन्निहित पाया जाता है, जिसका अर्थ वे कुछ और ही करते हैं। कम-से-कम इतना तो निश्चित है कि भारतीय तथा पारसी आर्य किसी बड़ी बात को लेकर ही एक दूसरे से ज़ुदा हुए। धार्मिक विकास अधिकतर भारतीय आर्यों के ही द्वारा हुआ। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय शाखा का झुकाव इस ओर अधिक था तथा उनकी विचारधारा दिन-दिन आगे की ओर बढ़ती गयी। चाहे ये दोनों दल आक्सस-नदी के आसन्न प्रान्तों से विलग हुए हों चाहे और किसी स्थान से, परन्तु वे अलग हुए विकट वैमनस्य के बाद ! यह बात तब और भी पुष्ट हो जाती है, जब हम देखते हैं कि दोनों शाखाओं के मार्ग दो हो गये। ईरानी शाखा को सहज मार्ग मिला और भारतीय शाखा को पहाड़ी प्रदेशों की शरण लेनी पड़ी। ऋग्वेद की एक-एक पंक्ति से, पथ की दुर्गमता दूर करने के लिये, एक आहभरी दीन प्रार्थना प्रकट होती है। भारत में आ जाने पर आर्यों को ऐसी कठिनाई नहीं थी कि उन्हें पग-पग पर अत्याचारी शत्रुओं के नाश के लिये इष्टदेवों की दुहाई देनी पड़ती। अत्याचार-प्रिय अन्य शाखा से हार मानकर ही इन्हें यह मार्ग पकड़ना पड़ा होगा। +अवेस्ता से भौगोलिक ज्ञान तथा उससे ईरानी शाखा के इतिहास पर प्रकाश. +यह निश्चित करने के पूर्व कि आर्य लोग उत्तर की ओर से दक्षिण की ओर हिमालय के मार्ग से आये और आर्यावर्त्त के कुरुक्षेत्र तक फैलते-फैलते अपने प्राचीन उत्तर-कुरु की स्मृति में कुरुक्षेत्र का उद्घाटन जम्बूद्वीप में किया, यह जान लेना जरूरी है कि ईरानी शाखा किस मार्ग से यहाँ आकर बसी और कालान्तर में उसकी स्थिति और मनोवृत्ति कैसी रही। अहुर (असुर) मज़्द ने, जो ईरानी शाखा के ज़ोरोस्टर-सम्प्रदाय के नायक थे, १६ प्रदेश बसाये थे, जिनमें निम्नलिखित प्रदेशों का आधुनिक प्रदेशों से मिलान हो चुका है- +ऊपर की तालिका से स्पष्ट है कि ईरानी शाखा भारतीय शाखा से अलग हो पहले पहल ’आर्यानां व्रजः’ (Aryanem vaejo) में ही रही। इसका अर्थ है कि आर्यों की भूमि। इस नामकरण से यह स्पष्ट है कि वे भी आर्य-शब्द की स्मृति में अपने वासस्थान का नाम रखना पसन्द करते थे। यह व्रज Vanguhi Daliya पर बसा हुआ समझा जाता है। यह नदी आक्सस-नदी के कहीं उत्तर-पश्चिम की ओर थी। इसके बाद वे लोग क्रमशः समरकन्द, मर्व, बल्ख, हेरात, काबुल और सप्तसिन्धु अर्थात् पंजाब की ओर बढ़ते गये। इस भौगोलिक वर्णन में एक बात, जिस पर हमें विचार करना है, यह है कि जिस प्रकार हमारे साहित्य में मेरु या उत्तर-कुरु से आरम्भ कर किम्पुरुषवर्ष आदि होते हुये हिमवन्त और जम्बूद्वीप का क्रमिक सम्बद्ध वर्णन है, उसी प्रकार और ठीक उसी प्रकार ईरानियों की गति का सिलसिला भी पाया जाता है। किसी भी सुधी को एक नज़र डालने से यह स्पष्त विदित हो जाता है कि दोनों शाखाओं के दो भिन्न-भिन्न मार्ग हैं; दो भौगोलिक सम्प्रदाय हैं; दोनों के वियोग के अनन्तर भिन्न-भिन्न देवता हैं ! एक बात और; ’आर्यानां व्रजः’, Celestial Mountain (स्वर्गीय पर्वत)-जिसका नाम Thianshan भी है-के ठीक निकटवर्त्ती प्रदेश हैं। दोनों शाखाओं के विद्रोह पर दृढ़ विश्वास तब और भी हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि इन्द्र, जो भारतीय शाखा के आराध्य देव हैं, पारसियों के लिये एक दुर्दान्त दैत्य हैं। ऋग्वेद की ऋचाएँ इसकी साक्षी हैं। इन्द्र, जिनके आर्य लोग बड़े कृतज्ञ हैं, बारबार अपनी वीरता की प्रशंसा सुनते हैं। उन्होंने असुरों का दल-बल नष्ट कर आर्यों की सहायता की है। देव और असुरों की लड़ाई में वह सदा अग्रसर रहते हैं। इन्द्र इन्हीं स्वर्गीय पर्वतों पर रहते थे। सुमेरु-पर्वत का निर्देश हमें Thianshan या Celestial या स्वर्गीय पर्वतों में मिल जाता है। अवश्य ही सुर और असुरों का यह घोर युद्ध ईरान के पूर्वी सीमा-प्रान्त में हुआ होगा। Vendidad के वर्णनानुसार मर्व (Merv) पापपूर्ण और नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। इसी प्रकार निशय (Nisaya) जो मर्व और बल्ख के अन्तर्गत था, पाप और नास्तिकता का परिपोषक था, हेरात अश्रुपात और विकल वेदना से परितप्त था; और Vaekereta या काबुल में बुतपरस्ती बढ़ रही थी, तथा किरिसस्प (Keresaspa) देवपूजक बन गये थे। +ये दोनों शाखायें कब और कहाँ अलग हुईं, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा करना कठिन है; परन्तु इतना अनुमान किया जा सकता है कि आक्सस के दक्षिण और थियानशान या मेरु-पर्वत-माला के निकटवर्ती प्रदेशों में कहीं इनके दो दल हुए। इन्द्र भारतीय शाखा के प्रमुख जान पड़ते हैं। अहुरमज़्द के नेतृत्व में दूसरा दल रहा होगा। एक का दूसरे को विधर्मी समझना तथा एक का दूसरे के इष्टदेव को दैत्य बनाना धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा है। अस्तु, ज़ेन्दा अवेस्ता ’आर्यानां व्रजः’ से मर्व, बल्ख, ईरान, काबुल और सप्तसिन्धु का निर्देश देता है। इससे यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईरानी शाखा यानी पारसी, आर्यों से विलग हो, ईरान की अधित्यका को तय करते हुए काबुल की राह से सप्तसिन्धु तक फैल गये। भारतीय शाखा भी काबुल की राह से आयी, यह अत्यन्त ही सन्देहास्पद सिद्धान्त है। जब हम देखते हैं कि ज़ेन्दावेस्ता अपने भूगोल का मानचित्र इस प्रकार खींचता है तथा वैदिक साहित्य का काबुल से ही अपना बयान प्रारम्भ कर पूर्व की ओर बढ़ता है, तब हम दो ही निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं- एक तो यह कि आर्य लोगों के सप्तसिन्धु से ही दो दल हो गये और ईरानी शाखा सप्तसिन्धु से पश्चिमोत्तर-प्रदेश की ओर बढ़ चली। और, दूसरे यह कि भारतीय शाखा उत्तर की ओर से सीधे सिन्धु-नदी की राह से आयी तथा सप्तसिन्धु में फैलकर पूर्व की ओर बढ़ने लगी। इसी बीच में, जब कि पामीर, काराकोरम और सिन्धु के मार्ग से काबुल तक फैल गयी, ईरानी शाखा भी पूर्व निर्दिष्ट मार्ग से काबुल तक फैल गयी। सम्भवतः यहाँ फिर उनकी ईरानियों से मुठभेड़ हो गयी। दोनों शाखाओं का लक्ष्य सप्तसिन्धु की ओर ही था, यह एक सन्देह की बात हो सकती है; परन्तु हम ज़रा अधिक विचार करके देखते हैं, तो साफ़ प्रकट हो जाता है कि दोनों दल के विस्तार के लिये दूसरा कोई क्षेत्र नहीं था। थियानशान के पूर्व थोड़ी ही दूर पर गोबी की मरुभूमि दीख पड़ती है। उस समय इस मरुभूमि का क्या रूप था, सो तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता; परन्तु या तो यह समुद्र था या जैसा कुछ भूतत्त्वविशारदों का कथन है, या यह पहाड़ी-धूसरित चट्टानों की राशि थी। भूतत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि साइबेरिया जिस अवस्था में आज है, उसी अवस्था में कभी मध्य-एशिया का यह भाग रहा होगा। साइबेरिया में प्राचीन कालीन वन के चिह्न मिलते हैं और ऐसा अनुमान किया जाता है कि किसी समय इसकी आबोहवा ऐसी थी कि मनुष्य यहाँ रह सकते थे। तात्पर्य यह कि भारतीय शाखा को सिवा मानसरोवर से जाकर तिब्बत तक फैलने के दूसरा कोई चारा नहीं था। सम्भवतः वे भारतवर्ष में एक ही बार नहीं आये, अपितु समय समय पर अपनी सुविधानुसार आते रहे। +ऋग्वेद के सूक्तों में ईरान की अधित्यका या काबुल के पश्चिमी प्रदेशों का आभासन मिलकर हिमालयोत्तर-प्रदेश की स्मृति का आभास मिलता है-ऋग्वेद के अध्ययन से इस बात का पता चल जायगा कि जिन प्राकृतिक दृश्यों को देखकर आर्य-ऋषि मन्त्रमुग्ध हो अपनी सरल परिमार्जित कविता की अंजलि समर्पित करते थे, वे प्राकृतिक दृश्य हिमवन्त के इस पार या उस पार ही सुलभ हैं। उन स्तुतिपूर्ण कविताओं में वे प्रकृति का दृश्य खींचते तथा अपने मंगल और विभव की अभ्यर्थना करते हैं। लोकमान्य जिन सूक्त या ऋचाओं के आधार पर आर्यों को हिमालयोत्तर-प्रदेशों के आदि-निवासी बताते हैं, वे सूक्त उनकी स्मृति के जीते जागते चित्र हैं। सम्भवतः आज कोई भी लो. तिलक के सिद्धान्तों का खण्डन सफलतापूर्वक नहीं कर सकता। चाहे आर्य पहले-पहल उत्तर ध्रुव के निकटवर्ती वृत्त के निवासी रहे हों चाहे और इधर आकर साइबेरिया के मैदान में बसे हों, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वे आये उसी दिशा से और अन्त तक, आर्यावर्त में बस जाने तक, अपनी पुण्य-स्मृति को ताज़ा रखते गये। उत्तर-कुरु के भौगोलिक निर्देश से यह स्पष्ट ही प्रकट हो जाता है कि आर्य लोग अन्त तक ’कुरु’ शब्द से प्रेम रखते गये। आर्यों का यह ऐतिहासिक और भौगोलिक सिलसिला ठीक उतना ही सत्य है, जितना उनका प्राकृतिक दृश्यों का मनन कर दर्शन और ज्योतिष-शास्त्र का विकास करना। ऋग्वेद के कौन सूक्त कब रचे गये, यह सन्दिग्ध होने पर भी यह कहा जा सकता है कि कौन सा सूक्त किस विषय को निर्दिष्ट कर रहा है। हम नीचे उन सूक्तों को देते हैं, जिनकी व्याख्या तिलक के बाद सभी वैदिक विद्वान् करने लगे हैं-

+अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृशे कुहचित् दिवेयुः ?
+अद् वधानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशत् चन्द्रमा नक्तमेति।

+अर्थात् वे ऋक्ष (सप्तर्षि), जो उच्च गगन-मण्डल में स्थित हैं, रात में देखे जाते हैं। वे दिन में कहाँ चले जाते हैं ? वरुण के कामों को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। उन्हीं की आज्ञा से चन्द्रमा रात में चान्दनी देते हैं। +यह ऋचा उस समय बनी होगी, जब आर्य लोग उत्तर-ध्रुव के प्रदेशों से हटकर बहुत इधर आ गये होंगे। तिलक महोदय ने ऋचाओं के बल पर यह दिखलाया है कि वे जहाँ रहते थे, वहाँ एक ही तारा (उत्तर-ध्रुव) बराबर प्रकाशित था, जहाँ दिन कम और रात बहुत बड़ी होती थी। यह उत्तरीय प्रदेशों का चित्र है। उपर्युक्त ऋचा वहीं बनी , जहाँ दिन-रात क्रम से होते रहे होंगे, और चन्द्रमा का भी उदय होता होगा। +पवेपयन्ति पर्वतान् विविञ्चन्ति वनस्पतीन्। प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वथा विशा॥ +अर्थात् पर्वतों को हिलाते हुए, वृक्षों को गिराते हुए, हे मरुतो ! तुम मदमत्त देवों की भाँति अबाध रूप से चलते हो।

+दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठत् निरुद्धा आपःपणिनेव गावः।
+अपां विलमपि हितं यदासीत् वृत्रं जघन्वा अप तत् ववार॥

+अर्थात् पणि द्वाराछिपायी गायों की भाँति जल वृत्रा द्वारा जो उनके पति और स्वामी हैं, रोक दिया गया। इन्द्र ने वृत्रा का वध किया और मार्ग स्वच्छ कर दिया, जिससे पानी बह गया, जो वृत्रा द्वारा रोक दिया गया था। +उपर्युक्त वर्णन ऋषियों का आंखों देखा है। वृत्रा का अर्थ मेघ है। प्रायः पहाड़ी नदियाँ, जो बहुधा सूखी रहती हैं, वर्षा होने पर ज़ोरों से उमड़कर बहने लगती हैं। दूसरी ऋचा से पहाड़ी तूफ़ानों से होनेवाला वृक्ष-कम्पन साफ़-साफ़ नज़र के सामने आ जाता है। यह दृश्य पञ्चनद की समभूमि पर सम्भव नहीं। यह उस समय की स्मृति है, जिस समय आर्य हिमालयोत्तर पहाड़ी प्रदेशों में रहते होंगे। +एक दूसरी ऋचा जो ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल के १५वें सूक्त में है, स्पष्ट कर देती है कि आर्य लोग सिन्धु नदी के उद्गमस्थान, काश्मीर के पूर्वोत्तर-प्रदेश, मानसरोवर के निकट, पास से पंजाब में आये। यह ऋचा निम्नलिखित है-

+सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।
+अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

+अर्थात् इन्द्र ने अपनी महत्ता से सिन्धु-नदी को उत्तर की ओर बहा दिया तथा उषा के रथ को अपनी प्रबल तीव्र सेना से निर्बल कर दिया। इन्द्र यह तब करते हैं, जब वह सोम मद से मत्त हो जाते हैं। सिन्धु-नदी अपने उद्गम-स्थान मानसरोवर से काश्मीर तक उत्तर-मुँह होकर बहती है; काश्मीर के बाद दक्षिण-पश्चिम-मुखी होकर बहती है। सम्भवतः इन्द्र ने पहाड़ी दुर्गम मार्ग को काटकर, सिन्धु-नदी के संकीर्ण मार्ग को विस्तीर्ण कर उत्तर की ओर नदी की धारा स्वच्छन्द कर दी हो। इससे आर्यों का मार्ग बहुत सुगम हो गया होगा। यह मत निम्नलिखित ऋचा से और भी दृढ़ हो जाता है-

+इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
+अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम्। (ऋ.मं. १/३२/१)

+अर्थात् इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूँगा जिनको उन्होंने पहले-पहल किया। उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा; (अपः) जल को नीचे लाये और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा (अभिनत्)।
+इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है-

+नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः।
+याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव॥ (१/३२/८)

+अर्थात् ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है, उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र (बादल) पर बह रहा है। जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते-जी रोक रक्खा था, वही (आज) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है। +यह दृश्य पहाड़ी प्रदेशों के दृश्य का स्मरण दिलाता है। वर्षा होने के समय काले-काले बादलों के झुण्ड और पंक्तियाँ, बिजली की चमक, तड़क-भड़क के साथ गर्जन और अन्त में वृष्टिपात होने पर जल की अटूट धारा तथा मेघों का लोप ! ऐसे मनोरम हृदयाकर्षक दृश्य को देखकर-जिसमें मेघ पहाड़ों के सिर पर अड्डा जमाये रहते हैं और बरस जाने पर यत्र-तत्र हलके होकर विलीन हो जाते हैं-आर्यों का यह चित्र खींचना बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसी ऋचायें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।

+तुलनात्मक अध्ययन के लिये ईरानी शाखा का गतिक्रम दिया जाता है-
+अवेस्ता और ऋग्वेद में आर्यों के आदि-निवास की झलक. +ऋग्वेद और ज़ेन्दा-अवेस्ता (Zenda Avesta) दोनों में उत्तरीय ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेशों की लम्बी छः महीने वाली रातों की स्मृति विद्यमान है। लोकमान्य तिलक का उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों को आर्यों का आदि-निवास-भूमि बतलाना तथा ज्योतिर्गणना के आधार पर ख्रीष्टाब्द से हज़ारों वर्ष पूर्व उन ध्रुव-प्रान्तों में आर्यों के रहने का सिद्धान्त ध्रुव-सा ज्ञात होता है। वहाँ से महाप्रलय (The Great Deluge) के उपरान्त Post Glacier Period में वे लोग साइबेरिया के विस्तृत भूभाग में, सम्भवतः आधुनिक यूराल पर्वतश्रेणी से पूर्व और पश्चिम दोनों ओर फैल गये होंगे। भूतत्त्व-विशारदों के कथनानुसार साइबेरिया उस समय अनुकूल बसने योग्य आबोहवा में रहा होगा, जैसा कि उस मैदान के अन्दर पाये जाने वाले पौधों और जन्तुओं के कंकाल से अनुमान किया जाता है। मैंने यूरेशिया का एक मानचित्र अपनी सुविधा के लिये तैयार किया है, जो इस लेख के साथ नहीं दिया गया है। उसमें मैंने प्राचीन और अर्वाचीन नामों की तुलना कर आर्यों की गति का चित्र खींचा है। यह चित्र काल्पनिक होने पर भी लोकमान्य के सिद्धान्त के समर्थन के साथ-साथ पुराण तथा महाकाव्यों में वर्णित भौगोलिक क्रम की पूर्ण परिपुष्टि करता है। इससे स्पष्ट विदित हो जायगा कि पुराणकारों तथा महाकाव्य के रचयिताओं को अपने आदिकालीन सनातन इतिहास और भूगोल का स्मरण था। वे अपने आदि-निवास-स्थल का पुण्य-स्मरण कर उनकी विविध प्रशंसा करते हैं। वे उन स्थानों को पवित्र समझते और वहाँ विविध सुख की कल्पना करते हैं। बौद्ध साहित्य, जिसका इन दिनों ज़ोरों के साथ अध्ययन हो रहा है, इस विषय पर प्रकाश डालता है। हिमालयोत्तर-प्रदेशों तथा पर्वतश्रेणियों के नामों में संस्कृतत्व का आभास मिल जाता है। +अर्वाचीन और प्राचीन नामों की तुलना से सम्भवनीय स्थान-निर्देश. +मैं उत्तर-ध्रुव से आरम्भ कर, ऐसे शब्द-साम्य का दिग्दर्शन करा आर्यों की प्राचीन स्थिति की एक झलक देखने का प्रयत्न करूंगा। मैंने अपने कल्पित मानचित्र में अर्वाचीन प्रचलित नामों को और जहाँ-तहाँ प्राचीन पौराणिक नामों को अंकित किया है। उत्तर-महासागर (Arctic ocean) के दक्षिण कारासागर और नोवा ज़ेम्बला (Nova Zembla) द्वीप के दक्षिण कोरा का मुहाना है। वायु पुराण के अनुसार कुरु उत्तरतम प्रदेश माना गया है। ब्रह्माण्ड पुराण इसे उत्तर समुद्र के तट ही पर दक्षिण की ओर मानता है। पद्मपुराण कुरु के बदले ऐरावत को उत्तर-समुद्र के दक्षिण और शृङ्गवान्-पर्वतके उत्तर मानता है। यह ऐरावत, पद्मपुराण के अनुसार ऐसा स्थान है जहाँ सूर्य की गति भी नहीं है। अतएव ब्रह्माण्डपुराण का कुरु-वर्ष या उत्तर-कुरु ही पद्मपुराण में ऐरावत हो गया है और पद्मपुराण में, उत्तर-कुरु मध्य-एशिया में आकर मेरु-पर्वत के पास ही उत्तर और नील-पर्वत के पास दक्षिण हो गया है। वायुपुराण का कुरु जम्बूद्वीप का उत्तरतम प्रदेश है; पद्मपुराण में यह भारत और उत्तर ध्रुव के बीच में आ गया है। यह आर्यों के उत्तर की ओर से, महाप्रलय के बाद, एशिया में आने का द्योतक है। मैं वायुपुराण के ’कुरु’, को जो उत्तर-समुद्र के समीप यानी ध्रुव-प्रदेश में है-कारा-सागर (Karasea) और कोरा के मुहाने (Strait of Kora) के आस-पास के स्थलों में मानता हूँ। यह कारा-सागर ही पद्म-पुराण या ब्रह्माण्ड पुराण का उत्तर-समुद्र है। यह कारा-सागर के ठीक दक्षिण है। आजकल जिसे North Sea कहा जाता है, वह योरप के उत्तर है। किन्तु उस समय जब आर्य लोग उत्तर-ध्रुव के निकटस्थ प्रदेशों में रहते थे, कारा सागर ही उत्तर समुद्र का द्योतक हो सकता है। ’कारा’ और ’कोरा’ शब्दों से कुरु शब्द का निकटतम सम्बन्ध भी है। +शृङ्गवान् , ऐरावत, यूराल नदी या संस्कृत का ’इरालय’. +शृङवान्-पर्वत का पता लगाना कुछ टेढ़ा अवश्य मालूम होता है; परन्तु इसके अर्थ पर ध्यान देने से विदित होता है कि किसी पर्वत को, जिसके शिखर (शृङ्ग) हो, शृङ्गवान् कहा जा सकता है। पद्मपुराण उत्तर-समुद्र के बाद ऐरावत का होना मानता है; और शृङ्ग इसके दक्षिण है, अतएव उत्तर-समुद्र और शृङ्ग (Mammoth Country) के बीच ऐरावत का होना निश्चित हुआ। इस ऐरावत-वर्ष में भी सूर्य की गति नहीं है। ऐरावत शब्द ’इर्’ धातु से बना हुआ है। ’इर्’ और ’इल्’ धातु जाने के अर्थ में प्रयुक्त हैं। अतएव ’इरा’ का अर्थ पृथ्वी भी होता है। जल और सरस्वती के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। इरावत का अर्थ समुद्र और इसी प्रकार इराधर और इलाधर का अर्थ पहाड़ होता है। इरेश का प्रयोग हम वरुण के अर्थ में करते हैं। ऋग्वेद में वरुण की महिमा बहुत गायी गयी है। इन्द्र के समान वरुण भी धीरे-धीरे आर्यों के प्रधान देवता बन गये हैं। इरावत का अर्थ समुद्र होने से, ऐरावत (स्वार्थे अण्) का अर्थ समुद्र-तट का वासी हो सकता है। उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों में सूर्य की गति नहीं है। ऐरावत में भी सूर्य का प्रकाश दुर्बल माना गया है। चूँकि यह ऐरावत-शृङ्ग के उत्तर है, अतएव यूराल-पर्वतश्रेणी के उत्तर-स्थित प्रदेशों को ऐसा मान लेने में कोई अड़चन नहीं जान पड़ती। देखकर आश्चर्य होता है कि उत्तर-ध्रुव से आरम्भ कर मध्य-एशिया के प्रदेश से लेकर फ़ारस या अफ़गानिस्थान और भारतवर्ष की अर्वली-पर्वत-श्रेणी तक ऐसे तत्सम शब्दों का ताँता लगा हुआ है। यही यूराल-पर्वतश्रेणी आर्यों का दूसरा अड्डा हो सकता है। यहीं के आस-पास के स्थान ऐरावत देश के द्योतक हैं। यूराल-पर्वत से ’यूराल’ नाम की एक नदी भी निकलती है। यह नदी कैस्पियन-सागर में गिरती है। ’इरा’ का अर्थ जल होने से इरालय का अर्थ नदी हो जाता है। आर्यों की योरपीय शाखा सम्भवतः यूराल-पर्वत-श्रेणी के आसपास के प्रदेशों से ही अलग हुई। +इलास्पद, इरास्प (द) और योरप का साम्य. +इसका नाम इलास्पद और इरास्पद दोनों हो सकता है। यदि हम इसी स्थान को इलास्पद या इरास्पद मान लें, तो योरप के नामकरण में भी हमें इरास्प (द) का आभास मिल जाता है। स्वामी दयानन्द ने योरप की तुलना हरिवर्ष से की है। हरि का अर्थ पीत और बन्दर भी है। हरिनेत्र का अर्थ पीली आँखवाला भी है। यह हरिवर्ष योरप का नाम भी हो सकता है; परन्तु प्रिन्सिपल महोदय ने इस हरिवर्ष को पामीर-पर्वत-श्रेणी के उत्तर और थियानशान के दक्षिणवर्ती प्रदेशों के बीच बतलाया है। चूँकि आर्य लोग अपने प्रिय नामों को जहाँ गये, अपने साथ लेते गये, इसलिये हरिवर्ष को योरप मानने में कोई बाधा नहीं। योरपवासियों की नेत्राकृति से भी यह युक्तिसंगत मालूम होता है। पीछे से हरिवर्ष हिमालयोत्तर-प्रदेश हो गया। +इलावृत और एलबर्ज़ पर्वत का साम्य. +इसके अनन्तर वायुपुराण में हिरण्मयवर्ष का होना बतलाया गया है। हिरण्मय के बाद श्वेत-पर्वत और उसके बाद रम्यक-वर्ष है। रम्यकवर्ष के बाद नीलपर्वत और तत्पश्चात् इलावृत है। हम एशिया के मानचित्र में इन पाञ्च स्थानों का क्रमिक निर्देश करते हुए इलावृत का निर्देश Elburz (एलबर्ज़)-पर्वत से कर सकते हैं। यह एलबर्ज़ कास्पियन-सागर के उत्तर पश्चिम तक फैला हुआ है। इन पहाड़ी प्रदेशों के उत्तर काकेसस पर्वत है। काकेसस पर्वत के निकटवर्ती प्रदेश की भूमि, लोकमान्य तिलक के पूर्व आर्यों की आदि-भूमि मानी जाती थी। यदि एलबर्ज़ के आसपास (कास्पियन-सागर के पश्चिमी किनारे से लेकर दक्षिण-पूर्व तक) आर्यों के इलावृत-देश को मान लें तो काकेसस, जो नील-सागर के उत्तर-पूर्व है, नील-पर्वत का स्थान ग्रहण कर सकता है। +रम्यकवर्ष और श्वेतपर्वत. +वायुपुराण नीलपर्वत के बाद रम्यकवर्ष का होना बतलाता है। सम्भवतः आर्य लोग ऐरावतवर्ष से दक्षिण की ओर यूराल-नदी के तटवर्ती प्रदेशों से आकर कास्पियन-सागर से उत्तर, काकेसस (नीलपर्वत) से एशियाई टर्की के अरब-सागर (इरा = जल) तक फैल गये हों। यह प्रदेश यूराल पर्वत की तराई होने के कारण सुन्दर है तथा पहाड़ी प्रदेश यहाँ बहुत कम है। बहुत सम्भव है, इस रम्यक-भूमि के उत्तर यूराल की पर्वतश्रेणी में कोई श्वेतपर्वत भी रहा हो। श्वेतसागर (White sea) कोरासागर के पश्चिम की ओर अब तक विद्यमान है। वायुपुराण, ऐरावत के बाद शृंगवान् और शृंगवान् के बाद हिरण्मय वर्ष का होना बतलाता है। यह हिरण्मयवर्ष सम्भवतः यूराल-पर्वतश्रेणी के आसपास ऐरावतवर्ष के दक्षिण-पश्चिम की ओर रहा होगा। अथवा हो सकता है, यह यूराल-पर्वतश्रेणी के पश्चिम से यूराल-नदी के तट तक फैला हुआ हो। +मध्यएशिया के प्रदेशों में आर्यों का रहना और वहाँ से भारतीय और ईरानी शाखाओं का अलग-अलग होना- इसमें संदेह है कि आर्य लोग रम्यकवर्ष के बाद ऐरल-सागर की ओर से ’आर्यानां व्रजः’ में आये या एलबर्ज़ (इलावर्त) के बाद कास्पियन-सागर केपूर्व की ओर ऐरल-सागर की ओर फैल गये। +ऐरल-सागर और ऐरावत का साम्य. +ऐरल-सागर के ऐरावत से साम्य होने के कारण संभव है। यूराल-नदी के तटवर्ती प्रदेशों से होते हुए ऐरल की ओर कुछ लोग बढ़ गये हों और कुछ आर्य काकेसस से होते हुए फिर भी समयान्तर में कास्पियन-सागर के पूर्ववर्ती प्रदेशों की ओर आक्सस (अक्षु) नदी के तटों पर ऐरल-सागर तक फैल गये हों। चूँकि आर्यों की दोनों शाखाएँ इसी आक्सस नदी के तटवर्ती प्रदेशों से अलग हुई बतायी जाती हैं और चूँकि ईरानी आर्यों की प्रथम भूमि ’आर्यानां व्रजः’ है, इसलिये ’आर्यानां व्रजः’ का आक्सस-नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर होना निश्चित किया गया है। चाहे कहीं भी हो, लेकिन यह प्रदेश ऐरल के दक्षिण, आक्सस से पूर्व-उत्तर और कास्पियन से पूर्व की ओर कहीं रहा होगा; क्योंकि इसके बाद ईरानियों का दूसरा प्रदेश स्रग्ध (समरकन्द) है। भारतीय शाखा ’आर्यानां व्रजः’ से ही ईरानियों से अलग हुई, ऐसा प्रतीत होता है। पूर्वी टर्की में ताजिक (Tajik) -नामक आर्य-जाति का रहना माना जा चुका है। यही पीछे टर्की के पहाड़ी प्रदेशों में जा बसी और वहाँ पर यह आज गल्च (Galch) कही जाती है। आक्सस-नदी ऐरल-सागर से निकलती है और यह निर्विवाद सा है कि दोनों शाखायें आक्सस-नदी के दोनों तटों पर कभी रहती थीं। जब हम टर्की में आर्यों के कभी रहने का पता पाते हैं और जब उनमें भारतीय आर्यों की संस्कृति का आभास मिलता है, तो यह कहना कि आर्य लोग आक्सस-नदी के उस भाग से आये, जो ऐरल-सागर से आरम्भ होकर नदी के पूर्वी तट पर फैला हुआ है, अयुक्तिक नहीं है। ईरानी लोग समरकन्द, बल्ख़ और मर्व की ओर बढ़ते गये और भारतीय आर्यशाखा दक्षिण-पूर्व प्रदेशों की ओर बढ़ती-बढ़ती समय पाकर थियानशान, तारीम और कुएनलन-पर्वतश्रेणी से सिन्धु-नदी के मुहाने तक फैल गयी होगी। +ईरानी शाखा के विलग होने पर आर्यों का गतिक्रम. +वायुपुराण का भौगोलिक वर्ष-विभाग प्राय़ः पर्वतश्रेणिओं से विभक्त है। हम ऊपर दिखा चुके हैं कि किस प्रकार प्रत्येक वर्ष (Country) पर्वतों या सागरों से सीमाबद्ध है। हम यह भी देखते हैं कि एलबर्ज़-पर्वतश्रेणी से आक्सस-नदी के तट-प्रान्तों तक एक बृहत् मैदान फैला हुआ है, जिसके किसी भाग-विशेष को ही ’आर्यानां व्रजः’ कहना होगा। चूँकि इलावृतवर्ष के बाद वायुपुराण में मेरु-पर्वत का नाम आया है, इससे कहना पड़ता है कि एलबर्ज़-पर्वत से मेरु तक का भूभाग ’आर्यानां व्रजः’ का द्योतक रहा होगा। आक्सस का पश्चिमी किनारा ईरानियों और पूर्वी किनारा भारतीय आर्यों के हाथ में रहा हुआ माना जा सकता है। एलबर्ज़ और मेरु के बीच का भूभाग उस समय उपजाऊ और सुखद रहा होगा तथा आर्यों के संघर्ष का कारण भी यही बना होगा। ईरानी शाखा ने, सम्भवतः ज़बर्दस्त और अपेक्षाकृत अशिक्षित होने के कारण भारतीय शाखा को दक्षिण-पश्चिम यानी ईरान की ओर जाने से रोक दिया हो और भारतीय शाखा को पर्वतीय प्रदेशों की शरण लेने को विवश होना पड़ा हो। यह मेरु-पर्वत कौन सा पर्वत है, यह अभी तक ठीक-ठीक नहीं कहा जा सका है; परन्तु जब हम देखते हैं कि महाभारत में किम्पुरुषवर्ष के बाद हाटक, हाटक के बाद मानसरोवर, मानसरोवर के बाद समीप ही गन्धर्व और गन्धर्व के बाद हरिवर्ष यानी उत्तर-कुरु है, तो हमें कहना पड़ता है कि यह हरिवर्ष थियानशान-पर्वत के दक्षिण और पामीर के पूर्ववर्ती प्रदेश का नाम रहा होगा। इन प्रदेशों के आसपास ही तुर्किस्तान की मरुभूमि है। यह मरुभूमि उस समय किस दशामें थी, यह कहना तो मुश्किल है; परन्तु इसकी दशा उस समय आज की-सी ही होगी, यह सन्देहात्मक है। सम्भवतः यह दशा बर्फ़ से गली चट्टानों के कारण हुई हो। चीनी भाषा में ’थियान’ का अर्थ स्वर्ग और ’शान’ का अर्थ पहाड़ है। हम उत्तर-कुरु के प्रदेशों का वर्णन महाभारत में या बौद्ध साहित्य में स्वर्ग का-सा पाते हैं। हम अल्टाई-पर्वत के नाम में भी संस्कृत की छाप पाते हैं। क्या यही थियानशान उत्तर-कुरु-प्रदेशों की उत्तरी सीमा हो सकती है ? क्या आर्य लोग थियानशान और पामीर के मध्यवर्ती मार्ग से दक्षिण-पूर्व की ओर नहीं बढ़ सकते थे ? क्या गोबी की मरुभूमि उस समय अच्छी दशा में नहीं हो सकती थी ? क्या मानसरोवर के उत्तरवर्ती या पश्चिमस्थ प्रदेश की भूमि कभी आर्यों की भूमि नहीं थी ? हमारा साहित्य तो भारत का हिमालयोत्तर-प्रदेश से सम्बन्ध होना बतलाता है। इसकी स्मृतियाँ, जहाँ देखिये वहीं प्रचुर मात्रा में पड़ी हुई हैं। ज़रूरत है उनका अध्ययन करने और भारतीय इतिहास पर नवीन प्रकाश डालने की। +सोमरस और सुर-असुर का विभेद. +हमें मेरु पामीर को मानना हो चाहे थियानशान को, दोनों हालतों में हरिवर्ष यानी उत्तरकुरु को मानसरोवर के उत्तर होना मानना ही पड़ेगा। महाभारत, बौद्धसाहित्य, पुराण या रामायण-सबके अनुसार यह उत्तर-कुरु--जिसके मनुष्यों का वर्णन कुरु के निवासियों से यानी भारतीय आर्यों से कुछ विचित्र है और जो भारतीय आर्यों की प्रिय भूमि है, जिसका काल्पनिक स्मरण भी आज प्रत्येक आर्य को प्रफुल्लित किये देता है, जिसके आधार पर ही स्वर्ग की सारी कपना स्थित है--भारतवर्ष के उत्तर है। हिमालय आज भी आर्यसाहित्य की सृष्टि का प्रधान उत्तेजक है। यह कल्पना नहीं--पौराणिक-दन्तकथा नहीं--तथ्य है। हमारे सुर, हमारे इन्द्र, वरुण और कुबेर, यक्ष और गन्धर्व--सभी हिमालय के उत्तर हैं। मेरु के बाद हरिवर्ष, नैषध, किम्पुरुष, हेमकूट और भारतवर्ष की भूमि आर्यों की लीलाभूमि रही है। इसमें कवित्व नहीं, कोरा साहित्य नहीं, एक अचल ऐतिहासिक सत्य है। हम इस सिद्धान्त को तब और भी दृढ़ पाते हैं, जब हम सोमरस के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं। ऋग्वेद के सभी देवता सोमरस के मतवाले हैं; आर्यों के सभी यज्ञों में सोमरस की पग-पग पर आवश्यकता है। सोम-स्तुति पर ऋग्वेद का एक सम्पूर्ण मण्डल ही समर्पित है। अवेस्ता में भी इसका नाम है Haum, परन्तु इसकी वह महिमा नहीं, जो आर्यों के ऋग्वेद में है। अवेस्ता में सोमरस का पीनेवाला इन्द्र महज़ Demon हो जाता है और यहाँ इन्द्र आर्यों के एकमात्र उद्धारक बन जाते हैं। हमारे यहाँ सुरा की एक कथा प्रचलित है। यह सुरा सोमरस के सिवा और कुछ नहीं। पहले सुर और असुर दोनों आर्य ही थे; परन्तु जिन लोगों ने सुरा नहीं ग्रहण की, वे असुर और जिन्होंने ग्रहण की, वे सुर कहलाये। रामायण का यह श्लोक इसी प्रकार का है-

+सुराप्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः। अप्रतिग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरास्तथा॥
+हम ऊपर दिति और अदिति का ज़िक्र कर चुके हैं। ये दैत्य असुर कहलाये और ’आर्यानां व्रजः’ से, जो कश्यप-सागर (Caspian Sea) से पूर्व-उत्तर और दक्षिण की ओर फैला हुआ है, दोनों अलग-अलग हो गये। अस्तु, हमें यह देखना है कि आर्यों को सोमरस इतना प्रिय क्यों हुआ ? सोमरस से आविष्ट हो इन्द्र दैत्यों और असुरों को परास्त करते हैं। हिमालयोत्तर-प्रदेश में, जो स्वभावतः ठण्ढा रहा होगा और है, सोमरस का पीना अस्वाभाविक नहीं। सोमरस के पत्थरों से पीसे जाने का वर्णन ऋग्वेद में बहुलता से मिलता है। सोमलता हिमालय की तराई या हिमालयोत्तर-प्रदेश-- ख़ासकर काराकोरम के आसपास अब भी पायी जाती है। यह सोम भारतीय आर्यों की अपनी सम्पत्ति है। अहुरों (असुरों) का इससे कोई सम्बन्ध नहीं। अवश्य ही सुर-दल को पहाड़ी प्रदेशों में आने के कारण कठिनाइयां झेलनी पड़ी हैं; परन्तु सोम उनके प्राणों का आधार है। यह पदार्थ, यह रस हिमालयोत्तर प्रदेश का ही स्मरण कराता है। +आर्यों के आर्यावर्त में आने का समय, अर्जुन की विजय-यात्रा तथा महेन्जोदारो और हरप्पा की खोज. +यद्यपि इस लेख का विषय महेंजोदारो और हरप्पा से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता, तथापि इन खोजों तथा इनके निर्णयों से हमें महाभारत के समय के निर्णय में बहुत सहायता मिलती है। महेंजोदारो में जिस सभ्यता का पता चला है, उसका समय ख्रीष्टाब्द से ३,२०० या ३,३०० वर्ष पूर्व निश्चित किया गया है। आज से ५,००० वर्ष पूर्व जब भारत के पश्चिमोत्तर-प्रदेश में एक ऐसी सभ्यता थी, जिसमें लोहा गलाना, ईंट के मकान बनवाना, नहर ख़ुदवाना, संगमरमर का काम करना, कला, शिल्प-ज्ञान और शीशे का प्रयोग प्रचलित था, उस समय भारत के अन्य भागों में भी ऐसी सभ्यता रही होगी जो इस सभ्यता से लाभ उठा सकती थी या इसे अपने अधिकार में रख सकती थी। इस १९२३ ई. के आविष्कार की जो सबसे बड़ी महत्ता है, वह यह है कि उस समय भारत में लिपि प्रचलित थी। इससे योरपीय पण्डितों का यह कहना कि भारतवासी ख्रीष्टाब्द से कुछ ही सौ वर्ष पहले लिखना नहीं जानते थे, बिलकुल असत्य और निराधार प्रमाणित हो जाता है। परन्तु एक बात, जो बहुत ही खटकती है, यह है कि यह सभ्यता आर्यों की नहीं, प्रत्युत अनार्यों की है। इस सिद्धान्त का आधार यह है कि यहाँ आविष्कृत पदार्थों में ऐसे चित्रफलक (Pictograms) और लिंग (Phallus) तथा पूर्ण (Complete) एवं अर्द्ध (Partial) समाधियां हैं जो आर्यों की कला से नहीं मिलतीं। ये पदार्थ मेसोपोटेमिया, मिश्र और क्रेट के तत्कालीन सम्बन्ध के द्योतक बताये जाते हैं। हिन्दू-युनिवर्सिटी के इतिहासाध्यापक श्री आर्. डी. बनर्जी, एम्.ए. इन चित्रफलकों और लिंगों को आर्यों के शिवलिंग या चित्रफलकों के अनुकरण पर बने होने में सन्देह करते हैं; क्योंकि इन लिंगों के साथ-साथ आर्य-प्रणाली के अनुसार अर्घ्यपट्ट या गौरीपट्ट नहीं है, अतएव यह बैबिलोनिया के लिंग का अनुकरण है, न कि शैवों के शिवलिंग का। इसके सिवा उस समय की अग्निपूजा की विधि आर्यों की अग्निपूजा की विधि से मिलती-जुलती नहीं है। उन्होंने आंशिक समाधि की तुलना--जिसमें शव को लोग मचान पर रख छोड़ते और अस्थि के अवशिष्ट रह जाने पर उसे किसी मिट्टी के बर्तन में रखकर गाड़ देते थे--आधुनिक छोटानागपुर के मुण्डों में प्रचलित आंशिक समाधि से की है। यहाँ पर प्राप्त खोपड़ियां भी मदरास के द्रविड़ों की शक्ल की पायी जाती हैं। महाभारत के विराट पर्व में पाण्डवों ने अपने अस्त्रों को, आंशिक समाधि के अनुकरण पर, कपड़े से छिपाकर रख छोड़ा था। यह अध्यापक बनर्जी महोदय ने भी लिखा है। इससे विदित होता है कि पाण्डव लोगों के समय में जंगली जातियों में ऐसा रिवाज रहा होगा। वैदिक साहित्य में इसका वर्णन या संकेत न मिलना कोई आश्चर्य नहीं। महाभारत का काल हिन्दू-प्रणाली के अनुसार ख्रीष्टाब्द से ३,००० वर्ष पहले समझा जाता है। +यह समय इस महेंजोदारो के समय से मिल जाता है। महाभारत के समय भी जंगली जातियों का होना वर्णित है। यह हमें महाभारत-काल को आज से ५,००० वर्ष पूर्व हटाने में कोई अड़चन नहीं डाल सकता है। सच तो यह है कि मोहेंजोदारो के अनुसार हमें अपने इतिहास का प्रोग्राम ही बदलना पड़ेगा। हम पुराणों और महाकाव्यों का अध्ययन कर इस जटिल समय के प्रश्न को हल कर सकते हैं। इसके नये प्रकाश में हम इतिहास पर नया प्रकाश डाल सकते हैं। महाभारत कब लिखा गया तथा कब-कब इसकी काया में परिवर्द्धन होता गया, यह सोचने पर भी हम महाभारत के समय पर अविश्वास नहीं कर सकते। गर्गसंहिता के ’युगपुराण’ पर विश्वास कर, जैस कि ऊपर बतला चुके हैं, महाभारत से आजतक अर्थात् ३,००० ख्री.पू. से बीसवीं शताब्दी तक के गौरवपूर्वक दृष्टिपात कर सकते हैं। ईश्वर जाने, यह सुयोग हमें कब मिलेगा; परन्तु यह देखकर संतोष होता है कि इन दिनों क्या योरपीय और क्या भारतीय विद्वान् पुराणों के अध्ययन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। अस्तु, वह दिन बहुत दूर नहीं है जब आर्यों का पूर्ण इतिहास हमारे साहित्य में मिल जाय। +लेख बहुत बढ़ गया, परन्तु उपसंहार में कुछ कह देना आवश्यक होने के कारण यही कहना अलम् है कि ऋग्वेद और अवेस्ता के अध्ययन के बाद पौराणिक तथा बौद्ध साहित्य के अध्ययन करने पर हमें हिमालयोत्तर-प्रदेशों का सच्चा ऐतिहासिक परिचय मिल सकता है। यदि हम भारतीय आर्यों के हिमालय की ओर से एक बार नहीं, समय-समय पर कई मार्गों से भारत में आने की विचार-दृष्टि से वेदों और अन्य संस्कृत-साहित्यों का अनुशीलन करें तो उसकी व्याख्या अत्यन्त सरल, सुबोध और ऐतिहासिक बन जाय। आशा है, भारतीय इतिहास के प्रेमी विद्वान् और विद्यार्थी लोकमान्य तिलक की बतायी सरिणी पर अग्रसर हो, अपने इतिहास का जीर्णोद्धार कर हमारे अन्धकार को दूर करेंगे। एक बात और, योरपीय विद्वानों ने स्वार्थ बुद्धि से प्रेरित हो जिस प्रकार हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को एक तुच्छ तथा हेय रूप देना प्रारम्भ किया था, उससे शायद छुटकारा मिलने में अभी बहुत विलम्ब है। हमारी आँखों पर अपना इतिहास देखने के लिये भी योरपीय चश्मा लगाने की आवश्यकता पड़ती है। इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती है कि आर्यों के एकमात्र प्रामाणिक इतिहास पुराण, बौद्ध-साहित्य तथा अन्यान्य साहित्य पर हम अविश्वास करें एवं भारतीय इतिहास की जानकारी के लिये दर-दर की ख़ाक छानते फिरें। पुराणों में आर्यों का भौगोलिक ज्ञान भरा पड़ा है। इनमें वर्णित स्थानों का पता हम तभी लगा सकते हैं जब यह पूर्णतः समझ लें कि आर्यों की सभ्यता उस समय, जब यह भूगोल लिखा गया, उन देशों तक फैल गयी थी। चक्रवर्तित्व प्राप्त करने के लिये भारतीय राजाओं का देश-देशान्तर जाकर राजाओं को पराजित करना एक परम्परा की बात थी। अर्जुन का दिग्विजय के लिये हिमालयोत्तर-प्रदेशों में जाना महाभारतकार की कपोल-कल्पना नहीं, एक अक्षुण्ण सत्य है। सच तो यह है कि भारतीय आर्य--चाहे वे भारत के आदिम-निवासी रहे हों और अन्य आर्य यहीं से अन्यत्र संसार में फैले हों, जैसा कि कई विद्वानों की धारणा है, चाहे वे तिलक के कथनानुसार उत्तरीय ध्रुव से आते-आते अन्त में भारत पहुँचे हों--भूगोल की पूर्ण जानकारी रखते थे। उस भूगोल और इतिहास पर अविश्वास करना प्राचीन आर्य ऋषियों के प्रति महा अपराध करना है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आर्यों की आदि-भूमि कौन-सी है। प्रत्येक भारतीय की यह नैसर्गिक धारणा है कि भारत ही आर्यों की सृष्टि-सनातन क्रीड़ा-स्थली है। जो कुछ सत्य साबित हो, अभी तो हमें योरपीय विद्वानों के मायाजाल के फन्दे से निकलकर स्वतन्त्र रूप से अपने प्राचीन इतिहास का पता लगाना है। हमारे पढ़ने के लिये रक्खा गया आज का इतिहास तो प्रहसन या उपन्यास ही कहा जा सकता है। आर्यावर्त से लेकर हरिवर्ष तक का इतिहास हमारे प्राचीन आरण्यक या पौराणिक साहित्य ही बता सकते हैं। ईश्वर करे, हम इसके लिये कटिबद्ध हो अपने साहित्य के अवगाहन में लग जायँ। क्या प्रत्येक आर्य-सन्तान को इस सभ्यता की आदि-जननी, कुतूहल-मयी, विशुद्ध आर्य-गाथा के जानने की लालसा नहीं होती ? +अर्जुन की विजय-यात्रा को सत्य मानने तथा पुराण में दिये हुए भौगोलिक नामों की आधुनिक नामों से तुलना करने पर यह कहना पड़ता है कि महाभारत के समय में अर्थात् आज से ५,००० वर्ष पूर्व भारतीय आर्यों को हरिवर्ष तक अर्थात् थियानशान (Celestial Mountain) पर्वत के आसन्नवर्त्ती हिमालयोत्तर-प्रदेशों तक का पूर्ण ज्ञान था। इसी हरिवर्ष को उस समय आर्य लोग उत्तर-कुरु कहते थे तथा आर्यावर्त के ’कुरु’ को उसी उत्तर-कुरु की स्मृति-रक्षा के लिय बसाया। मध्य-एशिया के ’आर्यानां व्रजः’ का अर्थ आर्यावर्त से मिलता है। कोरासागर से (उत्तर-सागर) जो Arctic Circle में है आरंभ कर आर्य लोग सीधे उत्तर की ओर पुराण निर्दिष्ट मार्ग से आये, इसमें सन्देह नहीं है। यूराल-नदी और ऐरल-सागर से ’इर्’ धातु का निर्विवाद और घनिष्ट सम्बन्ध है। ’इर्’ से ही ऐरावत बना है। इसका सम्यक् विवेचन एक-एक कर पहले किया जा चुका है। ऐरल-सागर के पश्चिम की ओर एलबर्ज़ (इलावृत) है। इरास्य, इलास्पद या इरास्पद की मैंने योरप से तुलना की है। ऐरल-सागर से (उक्ष) नदी निकलती है। इसी नदी के दोनों तरफ़ आर्य लोग कुछ काल तक रहे और यहीं से (इलावृत और उक्ष के मध्यवर्ती देश से) आर्य और ईरानी अलग हुए। ईरानियों का मार्ग तभी से बदल गया और भारतीय आर्यों का थियानशान, पामीर, मानसरोवर, तारीम (भद्राश्व) आदि से होकर काश्मीर या हिन्दुकुश के मार्ग से आना हुआ। सिन्ध में आ जाने पर ईरानी शाखा से सीमाप्रान्त पर भेंट हुई; क्योंकि वे भी अब तक काबुल पहुँच गये थे। भारतीय आर्यों का उत्तर-ध्रुव से लेकर आर्यावर्त तक का सीधा वर्णन यही बतलाता है। मानसरोवर और हिमालय ही उनका एकमात्र आदर्श है। काबुल के मार्ग से वे अभी नहीं आये, बल्कि भारत में पदार्पण के बाद वे काबुल की ओर भी फैले। किस समय वे भारत में आये, इसका निर्णय करना नितान्त दुष्कर है। कम-से-कम ५,००० वर्ष पूर्व तो महाभारत का समय है, जिस समय आर्य बहुत पुराने पड़ गये थे। ऋग्वेद की ऋचायें सिन्धु और सरस्वती के किनारे भी रची गयीं। लोकमान्य के सिद्धान्त की पुष्टि पौराणिक भूगोल से पूर्णतः होती है। यह धारणा कि आर्य आदि से भारत में रहे--सत्य या असत्य है यह अभी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इतना तो निश्चित है कि भारतीय ऋषियों का जो समय-निरूपण अब-तक माना जा रहा है, वह सत्य सिद्ध होगा। और, ऐसा होने पर महाभारत से हज़ारों वर्ष पूर्व आर्यावर्त में आर्यों का बसना सिद्ध होगा। कम-से-कम इस समय यह सिद्ध करने का पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता कि भारत से ही आर्य लोग अन्यत्र फैले। देवताओं के एक दिन-रात (जो मनुष्यों के एक वर्ष के तुल्य है) के प्रमाण से उत्तर-ध्रुव में उनका रहना स्पष्ट है। अतएव यदि आर्यों का आधिपत्य उत्तर-ध्रुव से आर्यावर्त तक यानी प्राचीन आर्यावर्त से अर्वाचीन आर्यावर्त तक माना जाय, तो कोई दुःख की बात नहीं, प्रत्युत हर्ष की बात है। फिर यदि आर्य ही पहले-पहल भारतवर्ष में आये तब तो उनका आधिपत्य स्वाभाविक और न्याय-सिद्ध है। ईश्वर करे, हमारा इतिहास हमारे सामने आ जाय। + +नेहरू-गांधी परिवार: +नेहरू-गांधी राजवंश की शुरुआत होती है गंगाधर नेहरू से, यानी मोतीलाल नेहरू जी के पिता से। नेहरू जी ने खुद की आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि उनके दादा अर्थात् मोतीलाल के पिता गंगा धर नेहरू थे। वह मुगल सल्तनत में बतौर कोतवाल मुलाजिम थे। १८५७ की क्रांति के पश्चात जब अंग्रेजों ने मुगल सल्तनत के कोतवालों को हठाना शुरु किया तब गंगाधर नेहरू अपने परिवार समेत आगरा चले गए। वहाँ उन्होनें नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोक कर पूछताछ की थी। लेकिन तब उन्होंने अपनी बेटियों की शादी कश्मीरी पण्डित परिवारों में कर १८६१ में परम धाम को कूच कर गए। मोतीलाल नेहरू का जन्म उनकी म्रत्यु के तीन महीनें पश्चात हुअा । +अपनी पुस्तक द नेहरू डायनेस्टी में लेखक के.एन.राव लिखते हैं - ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर। यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू। कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी। कमला शुरू से ही फिरोज को पसन्द करती थी, और चाहती थी कि फिरोज गाँधी और इन्दिरा कि विवाह हो। राजीव गाँधी के दादा थे रईस गाँधी। ये पारसी परिवार था। + +रूसी भाषा और भारत: +माधुरी +शक जाति. +मज्झिम निकाय - कम्बोज (उत्तरी अफ़गानिस्तान); यवन = यूनान +ईसा पूर्व पहली शताब्दी से ईसवी ३री शताब्दी तक उत्तरी भारत का बहुत सा भाग शकों के हाथ में था। पंजाब पांचवीं शताब्दी तक शकों के हाथ में रहा जिसे ’श्वेत हूण’ के नाम से कहा गया था। +बाह्लीक - (वाख्तर या बल्ख) +शकों से ही शाकद्वीपी ब्राह्मण, चौहान, बनाफर, जाट, गुर्जर जाति बने। +शक भाषायें और संस्कृत. +शकों के सम्बन्ध से भाषा भी प्रभावित हुई। १८वीं शताब्दी के अन्त में अंग्रेजों का ध्यान इधर गया। जर्मन प्राध्यापक शॅप को इसका श्रेय है जिन्होंने हिन्दी-युरोपीय-भाषा तत्त्व की नींव डाली। +फ़ारसी संस्कृत की सगी बहन-भतीजी +रूसी और उसकी स्लाव बहनें. +संस्कृत की भागिनेयी और प्रभागिनेयी वस्तुतः रूसी भाषा यूरोपीय भाषाओं के वर्ग की नहीं है बल्कि वह संस्कृत-ईरानी भाषा वर्गों से सम्बन्ध रखती है। १८वीं शताब्दी के अन्त तक रूसी भी अपने को यूरोप से अलग समझते थे। ईरानिओं और हिन्दी आर्यों का घनिष्ठ सम्पर्क भाषा के अतिरिक्त उनकी देवावली और पूजा प्रकार से भी सिद्ध होता है। +प्राक् हिन्दी-यूरोपीय भाषा. +जिसे भारत और ईरान के आर्यों और रूसी तथा यूरोपीय जातिओं के पूर्वज एक कबीला होने के वक्त बोला करते थे। +शक तथा आर्यों के स्थान. +मानव तत्त्ववेत्ताओं में इस सम्बन्ध में मतभेद है कि प्राक् हिन्दी यूरोपीय जाति रूसिया की रहने वाली थी या यूरोप की। +पूर्वी प्राक् हिन्दी-युरोपीय जाति की दो शाखायें - आर्य और शक (शतवंश या शकार्य) +पश्चिमी शाखा के केंट पश्चिमी युरोपीय जातियों के वंशज थे। ख्वारोज़्म की खोजों के अनुसार वहां की संस्कृति सिन्धु उपत्यका की संस्कृति से सम्बद्ध थी अर्थात् सिन्धु उपत्यका की जाति और प्राक् हिन्दी युरोपीय जाति की सीमा अराल समुद्र और सीर दरिया थी। सम्भवतः प्राक् हिन्दी युरोपीय जाति हिमयुग के बाद की हिन्दी युरोपीय जातिओं से निकली थी और उसके विचरण स्थान की सीमा वोल्गा या एमा नदी रही होगी, जो कज्ज़ाकस्तान के पश्चिम है। इसके पूर्वाञ्चल में पूर्वी शाखा वाले शकार्य रहते थे। +शकार्य जाति का सम्मिलित वासस्थान काकेशस पर्वतमाला से पूर्व रहा होगा, जिसके पूर्व में आर्य और पश्चिम में शक रहते थे। +शकों और आर्यों के संघर्ष के कारण आर्यों को अपना मूल स्थान छोड़ना पड़ा था। एक भाग कास्पियन से पश्चिम काकेशस पर्वत-माला से होते हुए क्षुद्र एशिया (तुर्की) और उत्तरी ईरान के तरफ बढ़ते असीरिया क्रेसन्थ देश की सीमा पर पहुंचा और दूसरा भाग कास्पियन से पूरब की तरफ अराल समुद्र के किनारे होते हुए ख्वारेज़्म की भूमि में पहुंचा। ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दी में वोगज कुई (अंकारा के पास) में मितन्नी आर्यों के अभिलेख में यह मिलता है। इसी सहस्राब्दी में हिन्दी युरोपीय ग्रीक ग्रीस देस में गये। +शकों से आर्यों के प्रथम अलग होने का काल ईसा पूर्व ३००० वर्ष के आसपास था। +मध्य एशिया में आर्य कास्पियन से पामीर तक फैल गये जो पीछे ’आर्यानां वेइजा’ (आर्यानां व्रजः) कहलाया। +ईसा पूर्व २,५०० के आसपास आर्यों के भाई शक पूरब की ओर बढ़े और धीरे धीरे पूरब में त्यानशान् और अल्ताई की उपत्यकाओं को लेते गोबी और द्विनायु पर्वतमाला तक पहुंच गए। शकों के निवासस्थान ईसा पूर्व १५०० में तरिम, इली और चूकी समृद्ध उपत्यकाएं थीं। गोबी से कारपाथीय पर्वत-माला तक उनका वास-स्थान था। ग्रीक इतिहासकार ईसा पूर्व छठी सदी में डेन्यूब से उत्तर तथा अराल तट पर शकों (स्कुथ, सिथ) का होना बतलाते हैं। ईसा पूर्व २००० से अलिकसुन्दर के समय तक कारपाथीय पर्वतमाला से गोबी तक की भूमि शकों की विचरणभूमि रही। यही महाशकद्वीप था। +मगेसगेत्. +अराल समुद्र के पास मगेसगेत् नामकी एक जाति कावर्णन हेरोदेत ने किया है। ई.पू. २०६ में जबकि ग्रीक बाह्लीक राजा युथिदेमो ने सिरदर्या पर चढ़ाई की थी, उस काल भी वहां शकों का ही निवास था। कितने ही पश्चिमी विद्वानों का मत है कि महाशकद्वीप में रहने वाली शक जाति वस्तुतः भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलनेवाली अनेक जातियां थीं। परन्तु ये भाषायें भिन्न-भिन्न बोलियां ही उच्चारण भेद के साथ हो सकती थीं। शकों का यह आधिपत्य ई.पू. १७२ तक था। +मंगोल चिंगिज. +गोबी से उत्तर और पूरब मंगोल जातियां थीं जिनमें सिन् (चीनी) और हूण का नाम इतिहास में सबसे पहले आता है। २५० ई.पू. में ’तुमन् सन् यू’ के नेतृत्व में हूणों की प्रबलता के आगे चीन को झुकना पड़ा। ये हूण जिनके वंशज चिंगिज खाँ के मंगोल थे-आधुनिक मंगोलिया में रहा करते थे। इन्हीं से बचने के लिये चीनी दीवाल बनी। +मा उ युन (तुमन् शन् यू) का पुत्र हूणों का राजा हुआ था जो १८३ ई.पू. में मौज़ूद था। इसने चीन को कई बार हराया और हूणों का राज्य पश्चिम में अल्ताई तक और पूर्व में कोरिया तक पहुँचाया। अल्ताई और बलखाश के पूर्व के शकों ने माउदुन की अधीनता स्वीकार की। इनके पुत्र ’ची युई’ ने १७२ ई.पू. में शकों का उच्छेद करना शुरु किया। शक दक्षिण की ओर भागने लगे। पहले भागने वाले ’यू ची’ थे जिसने वाख्तर (बलख) में ग्रीक बाह्लीक राज्य को समाप्त कर अपने राज्य की स्थापना की और इस तरह हिन्दुकुश तक का भूभाग शकों के हाथ में चला गया। +चीन ने शकों के मित्र हूणों को हराना चाहा। त्याङ् शाङ् और अल्ताई और अलाई पर्वतमालाओं के बीच वू सन् शक (कुषाण) रहा करते थे और १२८ ई.पू. में हूणों से अपने को स्वतन्त्र कर लिया और च्याङ् काङ् को मुक्ति मिली। यह पहला यात्री था जो फ़र्गना के रास्ते सिर तट पर खोकन्द नगर में पहुँचा। चीन ने १२१ ई.पू. में हूणों के विरुद्ध एक सेना आधुनिक मंगोलिया पर भेजी और हूणों को हराया। यूचिओं ने भी अन्त में चीन की अधीनता स्वीकार की। शकराजाओं ने इसी समय चीनी उपाधि ’देवपुत्र’ धारण की। +हूण माउ दुन् के नेतृत्वमें शकों को भगाते गये और सीस्तान (शकस्थान) और बिलोचिस्तान होते हुए ११० ई.पू. में सिन्ध पहुँचे और ई.पू. ८० में तक्षशिला और गान्धार के स्वामी बन गये और एक शताब्दी से जड़ जमाये यवन राज्य का उच्छेद कर दिया।’यू ची’ सरदार (शक) ’मोग’ भारत का प्रथम शक राजा था। ११०-८० ई.पू. तक गुजरात भी शकों के हाथ में चला गया। ६० ई.पू. तक मथुरा में भी शकों की छत्रपी कायम हो गयी। मोग की मृत्यु ५८ ई.पू. में हुई जिसके बाद शकों के भिन्न-भिन्न कबीलों में झगड़ा हो गया और शकों के कुषाण कबीले के यवमू (सरदार) कजुल कदफिस्-१ की शक्ति बढ़ी। उसने बख्तर और तुषार पर भी अधिकार कर लिया। कजुल के पुत्र वीम कदफिस् द्वितीय (७५-७८ ई.) ने सारे उत्तर भारत को जीता। इसी का पुत्र ’वसीले उस् वसीले उन् कनेर् कोस’ (राजाधिराज कनिष्क) हुआ जिसने शक संवत् चलाया और ७८-१०३ ई. तक राज्य किया। इसके सिक्के अराल समुद्र से बिहार तक मिलते हैं। वह बौद्ध पहले ही से था क्योंकि ईसा पूर्व २य शताब्दी में ही बौद्ध धर्म यू ची शकों की मूल भूमि तरिम उपत्यका में पहुँच चुका था। +काशगर काश्मीर ? +काशगर वाले कश नामी शकों का ही एक उपनिवेश सम्भवतः काश्मीर में था जिससे उसका यह नाम पड़ा। +हूण और चीन. +हूणों ने चीन के प्रहार से जर्जर होकर उनकी अधीनता स्वीकार की। इस पर हूणों में मतभेद हो गया। स्वतन्त्रतावादी हूण (उत्तरी) पश्चिम की ओर भागने लगे और शकों को हराकर उनकी जगह लेने लगे; परन्तु सिर दरिया के दक्खिन उन्होंने हाथ नहीं बढ़ाया। ३७० ई. में अराल और कास्पियन तट पर रहने वाले आलानों का उन्होंने ध्वंस किया। ३७५ ई. में वालामेर के नेतृत्व में दोन तट पर पहुंचे और माओस्य गते (जार) को छिन्न-भिन्न किया। फिर दानिए पर पहुंच गायों का ध्वंस किया। अत्तिला (हूण सरदार) के समय तक (४५३ ई. में मृत्यु) मध्य दुनाह तक हूण राज्य स्थापित हुआ। पौने पांच सौ साल के हूणों के इस भयंकर तूफ़ान ने शकों को बड़ी हानि पहुंचाई और वोल्गा से गोबी तक के शक द्वीप को शकों से खाली करवा दिया। सबसे अन्त में +हिन्दुस्तान जिंदाबाद पाकिस्तान मादरचोद +३६० ई. में हूणों के एक कबीले अवार (ज्वेन्-ज्वेन्) ने शक्ति-सम्पन्न हो पश्चिम की ओर बढ़ना शुरु कर दिया। हेफ्ताल भागे और ४२५ ई.। इन्होंने सारे मध्य एशिया के (सिर दरिया से हिन्दुकुश तक) अपने पूर्ववर्ती कुषाण राज्य का उच्छेद किया। किदार उनका महान नेता था जिसके नाम से ही हेफताल ’किदारीय हूण’ कहलाये। किदार का पुत्र ४५५ ई. में श्वेत हूणों का राजा था और सम्भवतः इसी का पुत्र तोरमाण था जिसने ग्वालियर और सागर दमोह तक को जीत लिया था। इसका पुत्र मिहिरकुल ५०२ ई. में राजा बना। मिहिर मित्र का फ़ारसी रूप है। पीछे शकद्वीपियों के प्रयास से मिहिर भी शुद्ध संस्कृत हो गया। +कुल हूणी शब्द गुल या ग्युल का अपभ्रंश है. +कुल हूणी शब्द गुल या ग्युल का अपभ्रंश है जिसका अर्थ राजकुमार या दास होता है। +सूर्य मन्दिर - तोरमाण ने ग्वालिअर में सूर्यमन्दिर बनवाया था। यह उसके शिलालेख से पता चलता है। +मिहिरकुल ने मगध पर आक्रमण किया था परन्तु मगध राजा बालादित्य ने उसे बुरी तरह हराया। मालवा के विजयी राजा यशोधर्मा विक्रमादित्य ने मिहिरकुल को हराकर उसे कश्मीर की ओर खदेड़ दिया। हूण नाम से प्रसिद्ध किन्तु वस्तुतः शक मिहिरकुल अन्तिम शक राजा था। हेफ़तालों की राजधानी बुखारा के पास वरख्शमें थी जहाँ हाल की खुदाई में भारतीय शैली पर बने कितने ही भित्तिचित्र मिले हैं। +शकों का विस्तार. +सूर्य- शकों के सबसे प्रबल जातीय देवता सूर्य थे। +शक द्वीप-गोबी से वोल्गा और पश्चिम कारपाथिया तक फैला शकों का मुख्य निवास था। दक्षिण की ओर भारत तक भागकर आने वाले शक पूर्वीय शक द्वीप के थे। +सूर्य देवता-शकद्वीपी प्रधानता वाले इलाकों में अधिकांश सूर्य मूर्त्तियां द्विभुज मिलती हैं। इनके कन्धे के ऊपर सूर्यमुखी के फूल असाधारण से मालूम होते हैं, जो भारतीय परम्परा के प्रतिकूल हैं। सूर्य के पैरों में बूट होते हैं। बूटधारी हिन्दु देवता कोई नहीं। वही बूट हमें मथुरा से मिली कनिष्क प्रतिमा के पैरों में दिखाई पड़ता है। आज भी रूसी लोग जाड़ों में उसी तरह के घुटने तक के बूटों को पहनते हैं जो कनिष्क और सूर्य प्रतिमाओं के पैरों में दिखते हैं। +हूणों ने शकों को शक द्वीप से हटा दिया था। उनके ही वंशज तुर्क, उइगुर, और मंगोल थे। ५५७ ई. के लगभग तुर्की से मध्यएशिया तक न शकों का नाम रहा न आर्यवंशीय लोगों (थोड़े से ताजिकों को छोड़कर) का। +इसलाम. +अरबों के प्रभाव से जैसे ८वीं सदी पहुँचते-पहुँचते सारा ईरान और मध्यएशिया मुसलमान हो गया। इसी तरह खजार, वुल्गार आदि हूण जातिओं ने भी इसलाम स्वीकार किया। आजकल वुल्गार चुवाश के नाम से पुकारे जाते हैं। वुल्गारिया देश से कोई सम्बन्ध नहीं। वुल्गारिया वाले स्लाव हैं और वोल्गा वाले वुल्गार हूण वंशज। +रूस में सूर्य पूजा. +इसाई होने से पहले रूस वाले भी सूर्य की पूजा करते और घी में पके लाल चीले खाते थे, जैसे यहाँ छठ में ठेकुआ चढ़ाते हैं। आज भी उस खास पर्व के दिन मीठे चीले खातेहैं। एक अरबी पर्यटक ने वोल्गा के किनारे खरीद बिक्री के लिये आये रूसिओं में मृतात्मा को पत्नी के साथ जलाने का उल्लेख किया है। +स्लाव और श्रव. +उपनिषद् काल के श्रवान्त नामों का स्लाव शब्द से साम्य है। स्वेतीस्लाव, व्याचिस्लाव आदि नाम अब भी हैं। मोलोतोव का नाम व्याचिस्लाव है। +वुलगर सर्व क्रोआत (क्रोत) रूसी उक्रइनी बेलोरूसी. +दक्षिणी स्लावों में पोल चेक भाषा का रूसी से अवधी बंगला जैसा तथा रूसी उक्रइनी भाषायें भोजपुरी मैथिली की तरह हैं। स्लावों ने पहले पहल ग्रीकों के सम्पर्क में आकर इसाई धर्म स्वीकार किया। पीछे पोल, चेक, स्लोवाक तथा क्रोवात् रोमन चर्च द्वारा इसाई बनाये गये और रोमन लिपि उन्होंने स्वीकार की। ग्रीक चर्च द्वारा इसाई बनाये गये बाकी स्लावों ने ग्रीक लिपि स्वीकार की। +९८८ में विजन्तिन् ने सामूहिक रूप से इसाई धर्म स्वीकार किया और सारी राजधानी एक दिन में इसाई बन गयी। हजारों वर्षों से चले आए धर्म और देवताओं को छोड़ने में कितने ही जगह विद्रोह भी हुए। किएफ़ के रूसों ने अपनी प्राचीन संस्कृति की बहुत सी निधिओं को खो डाला। देवताओं और पूजा प्रकार के साथ-साथ उनके हजारों शब्द भी लुप्त हो गये। अपनी भाषा के लिये नयी लिपि, ग्रीक साहित्य एवं ग्रीक कला सीखने का रास्ता खुल गया। +१०१४ में व्लादिमीर के मरने के बाद किएफ़ रूस राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। १३वीं सदी के मध्य में छङ् गिस् खान के मंगोल उसके पुत्र बानू खान के नेतृत्व में पहुँचे और प्रायः १५० वर्षों तक सिर उठाने का मौका नहीं मिला। तैमूर ने दिल्ली लूटने (१३९८ ई.) से तीन साल पहले जब १३९५ में मास्को के पास तक का धावा किया। +इस प्रकार शक ही रूस में और भारत में भी गये और रूसी उन्हीं के वंशज हैं। भारत में भी शकद्वीपी ब्राह्मण, कितने ही राजपूत, गूजर और जाट आदि शकों के वंशज हैं। संस्कृत और रूसी भाषाओं में जो घनिष्ठ सम्बन्ध मालूम होता है वह इसी पुराने सम्बन्ध के कारण। +स्लाव और लिथुआनी भाषा. +लिथुआनी भाषा संस्कृत के बहुत समीप है। रामानन्द और कबीर के समय तक लिथुआनी लोग इसाई नहीं हुए थे। उनके देवता वैदिक देवताओं में से थे। उनकी भाषा का विकास भी बहुत मन्द गति से हुआ था। +शतम् और केन्तम् (१००). +हिन्दी और यूरोपीय भाषाओं के ’शतम्’ और ’केन्तम्’ दोनों भाषाओं के समुदायों में हैं। स्लाव भाषाएं संस्कृत और ईरानी के साथ शतम् वंश की हैं। लिथुआनी की समीपता ’केन्तम्’ से है। +रूसी भाषा स्लाव भाषा वंश की पूर्वी शाखा की एक भाषा है। पूर्वी स्लाव भाषाएं हैं-रूसी, वोलगरी, और सेर्वी। उक्रइनी और बेलोरूसी भाषाएं यद्यपि स्वतन्त्र साहित्यिक भाषाएं हैं किन्तु वह रूसी के अत्यन्त समीप हैं। + +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस: +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस एक सिंगल लॉजिकल डाटबेस है, जो कि डाटा क्मयूनिकेशन लिंक द्वारा कनेक्टेड मल्टीपल लोकेशन्स में कम्प्यूटर्स में एक छोर से दूसरे छोर तक फैला हुआ है। एक डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस में प्रत्येक रिमोट साइट पर मल्टीपल डाटाबेस मैनेजमेण्ट सिस्टम को रन करने की आवश्यकता होती है। डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस के कई डाटाबेस एन्वायरमेण्ट हैं- +-होमोजिनियस +-हेट्रोजिनियस +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस के लक्ष्य +1.लोकेशन ट्रान्सपेरेन्सी +2.लोकल आटोनॉमी +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस के लाभ +1.अधिक विश्वसनियता और उपलब्धता +2.लोकल कण्ट्रोल +3.मॉड्यूल ग्रोथ +4.लोअर कम्यूनिकेशन कॉस्ट +5.फास्टर रिस्पॉन्स +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस के दोष +1.सॉफ्टवेयर कॉस्ट और जटिलताएँ +2.प्रोसेसिंग ओवरहेड +3.डाटा इन्टीग्रीटी +1.डाटा रिप्लीकेशन +2.हॉरिजोण्टल पार्टिशनिंग +3.वर्टिकल पार्टिशनिंग +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम +1.डिस्ट्रिब्यूटेड डाटा डायरेक्टरी में डाटा कहाँ लोकेट किया गया है, इसकी खबर रखना। +2.यह निशचित करना कि किस लोकेशन से रिक्वेस्टेट डाटा को रिट्रीव करना हैऔर डिस्ट्रिब्यूटेड क्वैरी के हर भाग को किस लोकेशन पर प्रोसेस करना है। +3.सिक्योरिटी, कॉन्करेंसी और डेडलॉक क्वैरी ऑप्टीमाइजेशन और फेलियर रिकवरी जैसे डाटा मेनेजमेंट फंक्शन्स प्रदान करना। +4.रिमोट साइट्स के बीच डाटा की प्रतियों के बीच स्थिरता प्रदान करना। +डिस्ट्रिब्यूटेड डाटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम के कार्य +1.लोकेशन ट्रान्सपेरेन्सी +2.रिप्लीकेशन ट्रान्सपेरेन्सी +3.फेलियर ट्रान्सपेरेन्सी +4.कॉन्करेंसी ट्रान्सपेरेन्सी + +कविता क्या है?: +कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है, मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत् से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करुणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ, तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छ्वासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है। +कविता क्या है? +जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएं प्रस्फुटित होती हैंं। +कार्य में प्रवृत्ति. +कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं। केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है, जो हमें आह्लाद, क्रोध और करुणा आदि से विचलित कर देती है, तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं। केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती। काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है। अतः कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में वेग का आना आवश्यक है। यदि किसी से कहा जाये कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है, इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिद्र्य बना रहता है, तो सम्भव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर यदि दारिद्र्य और अकाल का भीषण दृश्य दिखाया जाए, पेट की ज्वाला से जले हुए प्राणियों के अस्थिपंजर सामने पेश किए जाए और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्तस्वर सुनाया जाए तो वह मनुष्य क्रोध और करुणा से विह्वल हो उठेगा और इन बातों को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेगा। पहले प्रकार की बात कहना राजनीतिज्ञ का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य दिखाना, कवि का कर्तव्य है। मानव-हृदय पर दोनों में से किसका अधिकार अधिक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। +मनोरंजन और स्वभाव-संशोधन. +कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं। किसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिए, जिसने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है और संसार के सब सुखों से मुँह मोड़ लिया है अथवा किसी महाक्रूर राजकर्मचारी के पास जाइए, जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता। ऐसा करने से आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है। ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने की सामर्थ्य काव्य ही में है। कविता ही उस दुकानदार की प्रवृत्ति भौतिक और आध्यात्मिक सृष्टि के सौन्दर्य की ओर ले जाएगी, कविता ही उसका ध्यान औरों की आवश्यकता की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति करने की इच्छा उत्पन्न करेगी, कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सिखावेगी। इसी प्रकार उस राजकर्मचारी के सामने कविता ही उसके कार्यों का प्रतिबिम्ब खींचकर रक्खेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिखलावेगी तथा दैवी किंवा अन्य मनुष्यों द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को दिखलाकर उसे दया दिखाने की शिक्षा देगी। +प्रायः लोग कहा करते हैं कि कविता का अन्तिम उद्देश्य मनोरंजन है, पर मेरी समझ में मनोरंजन उसका अन्तिम उद्देश्य नहीं है। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर इसके सिवा कुछ और भी होता है। मनोरंजन करना कविता का प्रधान गुण है। इससे मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है, इधर-उधर जाने नहीं पाता। यही कारण है कि नीति और धर्म-सम्बन्धी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते जैसा कि किसी काव्य या उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है। केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’ ‘सदैव सच बोलो’ ‘चोरी करना महापाप है’ हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जाएगा, झूठा सच्चा हो जाएगा और चोर चोरी करना छोड़ देगा, क्योंकि पहले तो मनुष्य का चित्त ऐसी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे मानव-जीवन पर उसका कोई प्रभाव अंकित हुआ न देखकर वह उनकी कुछ परवा नहीं करता, पर कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुनने वाले का चित्त उचटने नहीं देती। उसके हृदय आदि अत्यन्त कोमल स्थानों को स्पर्श करती है और सृष्टि में उक्त कर्मों के स्थान और सम्बन्ध की सूचना देकर मानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम को विस्तृत रूप से अंकित करके दिखलाती है। इन्द्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और गिलमा का लालच दिखाकर, यमराज का स्मरण दिलाकर और दोजख़ की जलती हुई आग की धमकी देकर हम बहुधा किसी मनुष्य को सदाचारी और कर्तव्य-परायण नहीं बना सकते। बात यह है कि इस तरह का लालच या धमकी ऐसी है जिससे मनुष्य परिचित नहीं और जो इतनी दूर की है कि उसकी परवा करना मानव-प्रकृति के विरुद्ध है। सदा-चार में एक अलौकिक सौन्दर्य और माधुर्य होता है। अतः लोगों को सदाचार की ओर आकर्षित करने का प्रकृत उपाय यही है कि उनको उसका सौन्दर्य और माधुर्य दिखाकर लुभाया जाए, जिससे वे बिना आगा पीछा सोचे मोहित होकर उसकी ओर ढल पड़ें। +मन को हमारे आचार्यों ने ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है। उसका रञ्जन करना और उसे सुख पहुँचाना ही यदि कविता का धर्म माना जाए तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई। परन्तु क्या हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि-काव्य, तुलसीदास का रामचरितमानस, या सूरदास का सूरसागर विलास की सामग्री है? यदि इन ग्रन्थों से मनोरंजन होगा, तो चरित्र-संशोधन भी अवश्य ही होगा। खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी भाषा के अनेक कवियों ने शृंगार रस की उन्माद कारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे। ऐसी शृंगारिक कविता को कोई विलास की सामग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह कि कविता का काम मनोरंजन ही नहीं कुछ और भी है। +चरित्र-चित्रण द्वारा जितनी सुगमता से शिक्षा दी जा सकती है, उतनी सुगमता से किसी और उपाय द्वारा नहीं। आदि-काव्य रामायण में जब हम भगवान् रामचन्द्र के प्रतिज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और पितृभक्ति आदि की छटा देखते हैं, भारत के सर्वोच्च स्वार्थत्याग और सर्वांगपूर्ण सात्विक चरित्र का अलौकिक तेज देखते हैं, तब हमारा हृदय श्रद्धा, भक्ति और आश्चर्य से स्तम्भित हो जाता है। इसके विरुद्ध जब हम रावण को दुष्टता और उद्दंडता का चित्र देखते हैं तब समझते हैं कि दुष्टता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिणाम सृष्टि में क्या है। अब देखिए कविता द्वारा कितना उपकार होता है। उसका काम भक्ति, श्रद्धा, दया, करुणा, क्रोध और प्रेम आदि मनोवेगों को तीव्र और परिमार्जित करना तथा सृष्टि की वस्तुओं और व्यापारों से उनका उचित और उपयुक्त सम्बन्ध स्थिर करना है। +उच्च आदर्श. +कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और उसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है, जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है। +कविता की आवश्यकता. +कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं। हमने किसी उपन्यास में पढ़ा है कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रुपवती पुत्रवधू को अकारण निकालने पर उद्यत हुआ। जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह चिढ़कर बोला, ‘चल चल! भोली सूरत पर मरा जाता है’ आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसारिक बन्धनों में फंसकर मनुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कुंठित हो जाता है कि उसकी चेतनता - उसका मानुषभाव - कम हो जाता है। न उसे किसी का रूप माधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है, न उसे किसी दीन दुखिया की पीड़ा देखकर करुणा आती है, न उसे अपमानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है। ऐसे लोगों से यदि किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाए, तो मनुष्य के स्वाभाविक धर्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रुखाई के साथ यही कहेंगे - “जाने दो, हमसे क्या मतलब, चलो अपना काम देखो.” याद रखिए, यह महा भयानक मानसिक रोग है। इससे मनुष्य जीते जी मृतवत् हो जाता है। कविता इसी मरज़ की दवा है। +सृष्टि-सौन्दर्य. +कविता सृष्टि-सौन्दर्य का अनुभव कराती है और मनुष्य को सुन्दर वस्तुओं में अनुरक्त करती है। जो कविता रमणी के रूप माधुर्य से हमें आह्लादित करती है, वही उसके अन्तःकरण की सुन्दरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी छाया दिखा कर मुग्ध भी करती है। जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकुमारी तिलोत्तमा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंकित किया है, उसी ने आयशा के अन्तःकरण की अपूर्व सात्विकी ज्योति दिखा कर पाठकों को चमत्कृत किया है। भौतिक सौन्दर्य के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार मानसिक सौन्दर्य से भी। जिस प्रकार वन, पर्वत, नदी, झरना आदि से हम प्रफुल्लित होते हैं, उसी प्रकार मानवी अन्तःकरण में प्रेम, दया, करुणा, भक्ति आदि मनोवेगों के अनुभव से हम आनंदित होते हैं और यदि इन दोनों पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्यों का कहीं संयोग देख पड़े तो फिर क्या कहना है। यदि किसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष या अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप मात्र का वर्णन करके हम छोड़ दें तो चित्र अपूर्ण होगा, किन्तु यदि हम साथ ही उसके हृदय की दृढ़ता और सत्यप्रियता अथवा कोमलता और स्नेह-शीलता आदि की भी झलक दिखावें तो उस वर्णन में सजीवता आ जाएगी। महाकवियों ने प्रायः इन दोनों सौन्दर्यों का मेल कराया है जो किसी किसी को अस्वाभाविक प्रतीत होता है। किन्तु संसार में प्रायः देखा जाता है कि रूपवान् जन सुशील और कोमल होते हैं और रूपहीन जन क्रूर और दुःशील। इसके सिवा मनुष्य के आंतरिक भावों का प्रतिबिम्ब भी चेहरे पर पड़कर उसे रुचिर या अरुचिर बना देता है। पार्थिव सौन्दर्य का अनुभव करके हम मानसिक अर्थात् अपार्थिव सौन्दर्य की ओर आकर्षित होते हैं। अतएव पार्थिव सौन्दर्य को दिखलाना कवि का प्रधान कर्म है। +कविता का दुरुपयोग. +जो लोग स्वार्थवश व्यर्थ की प्रशंसा और खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं, वे सरस्वती का गला घोंटते हैं। ऐसी तुच्छ वृत्ति वालों को कविता न करना चाहिए। कविता का उच्चाशय, उदार और निःस्वार्थ हृदय की उपज है। सत्कवि मनुष्य मात्र के हृदय में सौन्दर्य का प्रवाह बहाने वाला है। उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समान हैं। वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता। जिस प्रकार महल में रहने वाले बादशाह के वास्तविक सद् गुणों की वह प्रशंसा करता है, उसी प्रकार झोंपड़े में रहने वाले किसान के सद्गुणों की भी। श्रीमानों के शुभागमन की कविता लिखना और बात बात पर उन्हें बधाई देना सत्कवि का काम नहीं। हाँ, जिसने निःस्वार्थ होकर और कष्ट सहकर देश और समाज की सेवा की है, दूसरों का हित साधन किया है, धर्म का पालन किया है, ऐसे परोपकारी महात्मा का गुण गान करना उसका कर्तव्य है। +कविता की भाषा. +मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है। पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते हैं। इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं। उनका थोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है। वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच सम्बन्ध सूत्र का काम देते हैं। हिन्दी में ‘राजते हैं’ ‘गहते हैं’ ‘लहते हैं’ ‘सरसाते हैं’ आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं। अँग्रेज़ी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं, जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है। ‘Main’ ‘Swain’ आदि शब्द ऐसे ही हैं। अंग्रेज़ी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है, पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए, वे भी ऐसे जो भद्दे और गंवारू न हों। खड़ी बोली में संयुक्त क्रियाएँ बहुत लंबी होती हैं, जैसे - "लाभ करते हैं,” “प्रकाश करते हैं” आदि। कविता में इनके स्थान पर “लहते हैं” “प्रकाशते हैं” कर देने से कोई हानि नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं हो सकती। +कविता में कही गई बात हृत्पटल पर अधिक स्थायी होती है। अतः कविता में प्रत्यक्ष और स्वभावसिद्ध व्यापार-सूचक शब्दों की संख्या अधिक रहती है। समय बीता जाता है, कहने की अपेक्षा, समय भागा जाता है, कहना अधिक काव्य सम्मत है। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना आदि ऐसे ही कवि-समय-सिद्ध वाक्य हैं, जो बोल-चाल में आ गए हैं। नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिए जाते हैं -
+(क) धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा।। -तुलसीदास +(ख) मनहुँ उमगि अंग अंग छवि छलकै।। -तुलसीदास, गीतावलि +(ग) चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली रही अंगिया ललचावे +(घ) वीथिन में ब्र में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरो बसंत है। -पद्माकर +(ङ) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै बसंत बरसो परै।
+बहुत से ऐसे शब्द हैं, जिनसे एक ही का नहीं किन्तु कई क्रियाओं का एक ही साथ बोध होता है। ऐसे शब्दों को हम जटिल शब्द कह सकते हैं। ऐसे शब्द वैज्ञानिक विषयों में अधिक आते हैं। उनमें से कुछ शब्द तो एक विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं। विज्ञानवेत्ता को किसी बात की सत्यता या असत्यता के निर्णय की जल्दी रहती है। इससे वह कई बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक काम को पृथक पृथक दृष्टि से नहीं देखता। यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अधिक व्यवहार करता है, जिनसे कई क्रियाओं से घटित एक ही भाव का अर्थ निकलता है। परन्तु कविता प्राकृतिक व्यापारों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष कराती है- मानव-हृदय पर अंकित करती है। अतएव पूर्वोक्त प्रकार के शब्द अधिक लाने से कविता के प्रसाद गुण की हानि होती है और व्यक्त किए गए भाव हृदय पर अच्छी तरह अंकित नहीं होते। बात यह है कि मानवी कल्पना इतनी प्रशस्त नहीं कि एक दो बार में कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्पष्ट रीति से खचित हो सकें। यदि कोई ऐसा शब्द प्रयोग में लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो सम्भव है, कल्पना शक्ति किसी एक व्यापार को भी न ग्रहण कर सके अथवा तदन्तर्गत कोई ऐसा व्यापार प्रगट करे, जो मानवी प्रकृति का उद्दीपक न हो। तात्पर्य यह कि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग तथा ऐसे शब्दों का समावेश जो कई संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं, कविता में वांछित नहीं। +किसी ने ‘प्रेम फ़ौजदारी’ नाम की शृंगार-रस-विशिष्ट एक छोटी-सी कविता अदालती कार्रवाइयों पर घटा कर लिखी है और उसे ‘एक तरफा डिगरी’ आदि क़ानूनी शब्दों से भर दिया है। यह उचित नहीं। कविता का उद्देश्य इसके विपरीत व्यवहार से सिद्ध होता है। जब कोई कवि किसी दार्शनिक सिद्धान्त को अधिक प्रभावोत्पादक बना कर उसे लोगों के चित्त पर अंकित करना चाहता है, तब वह जटिल और पारिभाषिक शब्दों को निकाल कर उसे अधिक प्रत्यक्ष और मर्म स्पर्शी रुप देता है। भर्तृहरि और गोस्वामी तुलसीदास आदि इस बात में बहुत निपुण थे। भर्तृहरि का एक श्लोक लीजिए- +तृषा शुष्य्तास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि
+क्षुधार्त्तः संछालीन्कवलयति शाकादिवलितान्।
+प्रदीप्ते रागाग्रौ सुदृढ़तरमाश्ल्ष्यिति वधूं
+प्रतीकारो व्याधैः सुखमिति विपर्यस्यति जनः।।
+भावार्थ - प्यासे होने पर स्वादिष्ट और सुगन्धित जल-पान, भूखे होने पर शाकादि के साथ चावलों का भोज और हृदय में अनुरागाग्नि के प्रज्वलित होने पर प्रियात्मा का आलिंगन करने वाले मनुष्य विलक्षण मूर्ख हैं, क्योंकि प्यास आदि व्याधियों की शान्ति के लिए जल-पान आदि प्रतीकारों ही को वे सुख समझते हैं। वे नहीं जानते कि उनका यह उपचार बिलकुल ही उलटा है। +देखिए, यहाँ पर कवि ने कैसी विलक्षण उक्ति के द्वारा मनुष्य की सुखःदुख विषयक बुद्धि की भ्रामिकता दिखलाई है। +अंग्रेज़ों में भी पोप कवि इस विषय में बहुत सिद्धहस्त था। नीचे उसका एक साधारण सिद्धान्त लिखा जाता है- +“भविष्यत् में क्या होने वाला है, इस बात की अनभिज्ञता इसलिए दी गई है, जिसमें सब लोग, आने वाले अनिष्ट की शंका से, उस अनिष्ट घटना के पूर्ववर्ती दिनों के सुख को भी न खो बैठें.” +इसी बात को पोप कवि इस तरह कहता है-
+The lamb thyariot dooms to bleed to day
+Had he thy reason would he skip and play?
+Pleased to the last he crops the flow’ry food
+And licks the hand just raised to shed his blood.
+The blindness to the future kindly given। Essay on man.
+भावार्थ - उस भेड़ के बच्चे को, जिसका तू आज रक्त बहाना चाहता है, यदि तेरा ही सा ज्ञान होता तो क्या वह उछलता कूदता फिरता? अन्त तक वह आनन्दपूर्वक चारा खाता है और उस हाथ को चाटता है जो उसका रक्त बहाने के लिए उठाया गया है। … भविष्यत् का अज्ञान हमें (ईश्वर ने) बड़ी कृपा करके दिया है। +‘अनिष्ट’ शब्द बहुत व्यापक और संदिग्ध है, अतः कवि मृत्यु ही को सबसे अधिक अनिष्ट वस्तु समझता है। मृत्यु की आशंका से प्राणिमात्र का विचलित होना स्वाभाविक है। कवि दिखलाता है कि परम अज्ञानी पशु भी मृत्यु सिर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है। यहाँ तक कि वह प्रहारकर्ता के हाथ को चाटता जाता है। यह एक अद्भुत और मर्मस्पर्शी दृश्य है। पूर्वोक्त सिद्धान्त को यहाँ काव्य का रूप प्राप्त हुआ है। +एक और साधारण-सा उदाहरण लीजिए। “तुमने उससे विवाह किया” यह एक बहुत ही साधारण वाक्य है। पर “तुमने उसका हाथ पकड़ा” यह एक विशेष अर्थ-गर्भित और काव्योचित वाक्य है। ‘विवाह’ शब्द के अन्तर्गत बहुत से विधान हैं, जिन सब पर कोई एक दफ़े दृष्टि नहीं डाल सकता। अतः उससे कोई बात स्पष्ट रूप से कल्पना में नहीं आती। इस कारण उन विधानों में से सबसे प्रधान और स्वाभाविक बात जो हाथ पकड़ना है उसे चुन कर कवि अपने अर्थ को मनुष्य के हृत्पटल पर रेखांकित करता है। +श्रुति सुखदता. +कविता की बोली और साधारण बोली में बड़ा अन्तर है। “शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” वाली बात हमारी पण्डित मण्डली में बहुत दिन से चली आती है। भाव-सौन्दर्य और नाद-सौन्दर्य दोनों के संयोग से कविता की सृष्टि होती है। श्रुति-कटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग, वृत्त-विधान और अन्त्यानुप्रास का बन्धन, इस नाद-सौन्दर्य के निबाहने के लिए है। बिना इसके कविता करना अथवा केवल इसी को सर्वस्व मानकर कविता करने की कोशिश करना निष्फल है। नाद-सौन्दर्य के साथ भाव-सौन्दर्य भी होना चाहिए। हिन्दी के कुछ पुराने कवि इसी नाद-सौन्दर्य के इतना पीछे पड़ गए थे कि उनकी अधिकांश कविता विकृत और प्रायः भावशून्य हो गई है। यह देखकर आजकल के कुछ समालोचक इतना चिढ़ गए हैं, कि ऐसी कविता को एकदम निकाल बाहर करना चाहते हैं। किसी को अन्त्यानुप्रास का बन्धन खलता है, कोई गणात्मक द्वन्द्वों को देखकर नाक भौं चढ़ाता है, कोई फ़ारसी के मुखम्मस और रुबाई की ओर झुकता है। हमारी छन्दोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं- वह छन्दो रचना जिसके माधुर्य को भूमण्डल के किसी देश का छन्द शास्त्र नहीं पा सकता और जो हमारी श्रुति-सुखदता के स्वाभाविक प्रेम के सर्वथा अनुकूल है। जो लोग अन्त्यानुप्रास की बिलकुल आवश्यकता नहीं समझते उनसे मुझे यही पूछना है कि अन्त्यानुप्रास ही पर इतना कोप क्यों? छन्द (Metre) और तुक (Rhyme) दोनों ही नाद-सौन्दर्य के उद्देश्य से रखे गए हैं, फिर क्यों एक को निकाला जाए दूसरे को नहीं? यदि कहा जाए कि सिर्फ छन्द से उस उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि क्या कविता के लिए नाद-सौन्दर्य की कोई सीमा नियत है। यदि किसी कविता में भाव-सौन्दर्य के साथ नाद-सौन्दर्य भी वर्तमान हो, तो वह अधिक ओजस्विनी और चिरस्थायिनी होगी। नाद-सौन्दर्य कविता के स्थायित्व का वर्धक है, उसके बल से कविता ग्रंथाश्रय-विहीन होने पर भी किसी न किसी अंश में लोगों की जिह्वा पर बनी रहती है। अतएव इस नाद-सौन्दर्य को केवल बन्धन ही न समझना चाहिए। यह कविता की आत्मा नहीं, तो शरीर अवश्य है। +नाद-सौन्दर्य संबंधी नियमों को गणित-क्रिया समान काम में लाने से हमारी कविता में कहीं-कहीं बड़ी विलक्षणता आ गई है। श्रुति-कटु वर्णों का निर्देश इसलिए नहीं किया गया कि जितने अक्षर श्रवण-कटु हैं, वे एकदम त्याज्य समझे जाएँ और उनकी जगह पर श्रवण-सुखद वर्ण ढूंढ-ढूंढ कर रखे जाएँ। इस नियम-निर्देश का मतलब सिर्फ इतना ही है कि यदि मधुराक्षर वाले शब्द मिल सकें और बिना तोड़ मरोड़ के प्रसंगानुसार खप सकें तो उनके स्थान पर श्रुति-कर्कश अक्षर वाले शब्द न लाए जाएँ। संस्कृत से सम्बन्ध रखने वाली भाषाओं में इस नाद-सौन्दर्य का निर्वाह अधिकता से हो सकता है। अतः अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को भी हमें इस विशेषता से वंचित कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं। पर, याद रहे, सिर्फ श्रुति-मधुर अक्षरों के पीछे दीवाने रहना और कविता को अन्यान्य गुणों से भूषित न करना सबसे बड़ा दोष है। एक और विशेषता हमारी कविता में है। वह यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है। पद्य के नपे हुए चरणों के लिए शब्दों की संख्या का बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है, पर विचार करने से इसका इससे भी गुरुतर उद्देश्य प्रगट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं, जिनसे कविता की परिपोषकता नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक होने के कारण सुनने वाले के ध्यान में अधिक आ सकते हैं और प्रसंग विशेष के अनुकूल होने से वर्णन की यथार्थता को बढ़ाते हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबन्धु, चक्रपाणि, दशमुख आदि शब्द ऐसे ही हैं। ऐसे शब्दों को चुनते समय प्रसंग या अवसर का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्घर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए - ‘हे गोपिकारमण!’ ‘हे वृन्दावनबिहारी!’ आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे मुरारि!’ ‘हे कंसनिकंदन’ आदि सम्बोधनों से पुकारना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा मुर और कंस आदि दुष्टों को मारा जाना देख कर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है न कि उनकी वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देख कर। इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को ‘मुरलीधर’ कह कर पुकारने की अपेक्षा ‘गिरिधर’ कहना अधिक तर्क-संगत है। +अलंकार. +कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है- उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। कल्पना को चटकीली करने और रस-परिपाक के लिए कभी कभी किसी वस्तु का गुण या आकार बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है और कभी घटाकर। कल्पना-तरंग को ऊँचा करने के लिए कभी कभी वस्तु के रूप और गुण को उसके समान रूप और धर्म वाली और वस्तुओं के सामने लाकर रखना पड़ता है। इस तरह की भिन्न भिन्न प्रकार की वर्णन-प्रणालियों का नाम अलंकार है। इनका उपयोग काव्य में प्रसंगानुसार विशेष रूप से होता है। इनसे वस्तु वर्णन में बहुत सहायता मिलती है। कहीं कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता, किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है। ये अलंकार बोलचाल में भी रोज आते रहते हैं। जैसे, लोग कहते हैं ‘जिसने शालग्राम को भून डाला उसे भंटा भूनते क्या लगता है?’ इसमें काव्यार्थापत्ति अलंकार है। ‘क्या हमसे बैर करके तुम यहाँ टिक सकते हो?’ इसमें वक्रोक्ति है। +कई वर्ष हुए ‘अलंकारप्रकाश’ नामक पुस्तक के कर्ता का एक लेख ‘सरस्वती’ में निकला था। उसका नाम था- ‘कवि और काव्य’। उसमें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता स्थापित करते हुए और उन्हें काव्य का सर्वस्व मानते हुए लिखा था कि ‘आजकल के बहुत से विद्वानों का मत विदेशी भाषा के प्रभाव से काव्य विषय में कुछ परिवर्तित देख पड़ता है। वे महाशय सर्वलोकमान्य साहित्य-ग्रन्थों में विवेचन किए हुए व्यंग्य-अलंकार-युक्त काव्य को उत्कृष्ट न समझ केवल सृष्टि-वैचित्र्य वर्णन में काव्यत्व समझते हैं। यदि ऐसा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?’ रस और भाव ही कविता के प्राण हैं। पुराने विद्वान् रसात्मक कविता ही को कविता कहते थे। अलंकारों को वे आवश्यकतानुसार वर्णित विषय को विशेषतया हृदयंगम करने के लिए ही लाते थे। यह नहीं समझा जाता था कि अलंकार के बिना कविता हो ही नहीं सकती। स्वयं काव्य-प्रकाश के कर्ता मम्मटाचार्य ने बिना अलंकार के काव्य का होना माना है और उदाहरण भी दिया है- “तददौषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि.” किन्तु पीछे से इन अलंकारों ही में काव्यत्व मान लेने से कविता अभ्यासगम्य और सुगम प्रतीत होने लगी। इसी से लोग उनकी ओर अधिक पड़े। धीरे-धीरे इन अलंकारों के लिए आग्रह होने लगा। यहाँ तक कि चन्द्रालोककार ने कह डाला कि-
+अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
+असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।। +अर्थात् - जो अलंकार-रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता है वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानता? परन्तु यथार्थ बात कब तक छिपाई जा सकती है। इतने दिनों पीछे समय ने अब पलटा खाया। विचारशील लोगों पर यह बात प्रगट हो गई कि रसात्मक वाक्यों ही का नाम कविता है और रस ही कविता की आत्मा है। +इस विषय में पूर्वोक्त ग्रंथकार महोदय को एक बात कहनी थी, पर उन्होंने नहीं कही। वे कह सकते थे कि सृष्टि-वैचित्र्य-वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार है। इसका उत्तर यह है कि स्वभावोक्ति को अलंकार मानना उचित नहीं। वह अलंकारों की श्रेणी में आ ही नहीं सकती। वर्णन करने की प्रणाली का नाम अलंकार है। जिस वस्तु को हम चाहें उस प्रणाली के अन्तर्गत करके उसका वर्णन कर सकते हैं। किसी वस्तु-विशेष से उसका सम्बन्ध नहीं। यह बात अलंकारों की परीक्षा से स्पष्ट हो जाएगी। स्वभावोक्ति में वर्ण्य वस्तु का निर्देश है, पर वस्तु-निर्वाचन अलंकार का काम नहीं। +इससे स्वभावोक्ति को अलंकार मानना ठीक नहीं। उसे अलंकारों में गिनने वालों ने बहुत सिर खपाया है, पर उसका निर्दोष लक्षण नहीं कर सके। काव्य-प्रकाश के कारिकाकार ने उसका लक्षण लिखा है-
+
+अर्थात्- जिसमें बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है। बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है। बालकादिक कहने से किसी वस्तुविशेष का बोध तो होता नहीं। इससे यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के व्यापार और रूप का वर्णन स्वभावोक्ति है। इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष के कारण अलंकारता नहीं आती। अलंकारसर्वस्व के कर्ता राजानक रूय्यक ने इसका यह लक्षण लिखा है-
+सूक्ष्मवस्तु स्वभावयथावद्वर्णनं स्वभावोक्तिः।
+अर्थात्- वस्तु के सूक्ष्म स्वभाव का ठीक-ठीक वर्णन करना स्वभावोक्ति है। +आचार्य दण्डी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है-
+नानावस्थं पदार्थनां रुपं साक्षाद्विवृण्वती।
+स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा।। +बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकार के अंतर्गत आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह वर्णन की शैली नहीं, किन्तु वर्ण्य वस्तु या विषय है। +जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुन्दर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभाविक भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकार-स्थापना सुन्दर और मनोहर नहीं बना सकती। महाराज भोज ने भी अलंकार को ‘अलमर्थमलंकर्त्तुः’ अर्थात् सुन्दर अर्थ को शोभित करने वाला ही कहा है। इस कथन से अलंकार आने के पहले ही कविता की सुन्दरता सिद्ध है। अतः उसे अलंकारों में ढूंढना भूल है। अलंकारों से युक्त बहुत से ऐसे काव्योदाहरण दिए जा सकते हैं जिनको अलंकार के प्रेमीलोग भी भद्दा और नीरस कहने में संकोच न करेंगे। इसी तरह बहुत से ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनमें एक भी अलंकार नहीं, परंतु उनके सौन्दर्य और मनोरंजकत्व को सब स्वीकार करेंगे। जिन वाक्यों से मनुष्य के चित्त में रस संचार न हो - उसकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न हो - वे कदापि काव्य नहीं। अलंकारशास्त्र की कुछ बातें ऐसी हैं, जो केवल शब्द चातुरी मात्र हैं। उसी शब्दकौशल के कारण वे चित्त को चमत्कृत करती हैं। उनसे रस-संचार नहीं होता। वे कान को चाहे चमत्कृत करें, पर मानव-हृदय से उनका विशेष सम्बन्ध नहीं। उनका चमत्कार शिल्पकारों की कारीगरी के समान सिर्फ शिल्प-प्रदर्शनी में रखने योग्य होता है। +अलंकार है क्या वस्तु? विद्वानों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर स्थलों को पहले चुना। फिर उनकी वर्णन शैली से सौन्दर्य का कारण ढूंढा। तब वर्णन-वैचित्र्य के अनुसार भिन्न-भिन्न लक्षण बनाए। जैसे ‘विकल्प’ अलंकार को पहले पहल राजानक रुय्यक ने ही निकाला है। अब कौन कह सकता है कि काव्यों के जितने सुन्दर-सुन्दर स्थल थे सब ढूंढ डाले गए, अथवा जो सुन्दर समझे गए - जिन्हें लक्ष्य करने लक्षण बने- उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वर्णन प्रणाली ही थी। अलंकारों के लक्षण बनने तक काव्यों का बनना नहीं रुका रहा। आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि ने - “मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः” का उच्चारण किसी अलंकार को ध्यान में रखकर नहीं किया। अलंकार लक्षणों के बनने से बहुत पहले कविता होती थी और अच्छी होती थी। अथवा यों कहना चाहिए की जब से इन अलंकारों को हठात् लाने का उद्योग होने लगा तबसे कविता कुछ बिगड़ चली। (जय हिन्द वन्देमातरम) + +गीता: + +भारत की भीषण भाषा समस्या और उसके सम्भावित समाधान: +भारत एक उप महाद्वीप है। इसके विस्तृत क्षेत्रफल और जनसंख्या के कारण विविध समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनमें से भाषा की समस्या एक है। + +सामान्य ज्ञान भास्कर: +यहाँ सामान्य ज्ञान के लेख एवं प्रश्न-उत्तर आदि दिये जायेंगे जिससे हिन्दीभाषी छात्रों को लाभ हो।The first women's court in India was established in which state? + +हिन्दी में अर्थ और विकास संबन्धी लेख: +यहाँ पर हिन्दी में वित्तीय, आर्थिक, विकास-सम्बन्धी लेख लिखे जायेंगे या उनका लिंक दिया जायेगा। हिन्दी भाषा , हिन्दीभाषियों और सभी भारतीयों को 'आर्थिक साक्षर' होना ही चाहिये। इससे ही भला होगा। देश में सुख-सम्पत्ति और शान्ति आयेगी। + +व्‍यापारिक घरानों की सामाजिक जिम्‍मेदारी: +यह पुस्तक व्यापारिक घरानों की सामाजिक जिम्मेदारी के विविद पहलुओं का परिचय कराने वाली है। यह अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र से संबंधित शिक्षकों, छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए ुपयोगी हो सकती है। + +पंचायतों का सशक्तीकरण: +पंचायती राज संस्थायें भारत में लोकतंत्र की मेरूदंड है। निर्वाचित स्थानीय निकायों के लिए विकेन्द्रीकृत, सहभागीय और समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढावा देने और उन्हें सार्थक रूप प्रदान करने के लिए पंचायती राज मंत्रालय ने अनेक कदम उठाए हैं। +पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (बीआरजीएफ). +इस योजना के तहत अनुदान प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त विकेन्द्रीकृत, सहभागीय और समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढावा देना है। यह विकास के अन्तर को पाटता है और पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) और उसके पदाधिकारियों की क्षमताओं का विकास करता है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने में बीआरजीएफ अत्यधिक उपयोगी साबित हुआ है और पीआरआई’ज तथा राज्यों ने योजना तैयार करने एवं उन पर अमल करने का अच्छा अनुभव प्राप्त कर लिया है। बीआरजीएफ के वर्ष 2009-10 के कुल 4670 करोड़ रुपए के योजना परिव्यय में से 31 दिसबर, 2009 तक 3240 करोड़ रुपए जारी किये जा चुके हैं। +ई-गवर्नेंस परियोजना. +एनईजीपी के अन्तर्गत ईपीआरआई की पहचान मिशन पध्दति की परियोजनाओं के ही एक अंग के रूप में की गई है। इसके तहत विकेन्द्रीकृत डाटाबेस एवं नियोजन, पीआरआई बजट निर्माण एवं लेखाकर्म, केन्द्रीय और राज्य क्षेत्र की योजनाओं का क्रियान्वयन एवं निगरानी, नागरिक-केन्द्रित विशिष्ट सेवायें, पंचायतों और व्यक्तियों को अनन्य कोड (पहचान संख्या), निर्वाचित प्रतिधिनियों और सरकारी पदाधिकारियों को ऑन लाइन स्वयं पठन माध्यम जैसे आईटी से जुड़ी सेवाओं की सम्पूर्ण रेंज प्रदान करने का प्रस्ताव है। ईपीआरआई में आधुनिकता और कार्य कुशलता के प्रतीक के रूप में पीआरआई में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने और व्यापक आईसीटी (सूचना संचार प्रविधि) संस्कृति को प्रेरित करने की क्षमता है। +ईपीआरआई में सभी 2.36 लाख पंचायतों को तीन वर्ष के लिए 4500 करोड़ रुपए के अनन्तिम लागत से कम्प्यूटरिंग सुविधाएं मय कनेक्टिविटी (सम्पर्क सुविधाओं सहित) के प्रदान करने की योजना है। चूंकि पंचायतें, केन्द्र राज्यों के कार्यक्रमों की योजना तैयार करने तथा उनके क्रियान्वयन की बुनियादी इकाइयां होती हैं, ईपीआरआई, एक प्रकार से, एमएमपी की छत्रछाया के रूप में काम करेगा। अत: सरकार, ईएनईजीपी के अन्तर्गत ईपीआरआई को उच्च प्राथमिकता देगी। देश के प्राय: सभी राज्यों (27 राज्यों) की सूचना और सेवा आवश्यकताओं का आकलन, व्यापार प्रक्रिया अभियांत्रिकी और विस्तृत बजट रिपोर्ट पहले ही तैयार की जा चुकी हैं और परियोजना पर अब काम शुरू होने को ही है। +महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण. +राष्ट्रपति ने 4 जून, 2009 को संसद में अपने अभिभाषण में कहा था कि वर्ग, जाति और लिंग के आधार पर अनेक प्रकार की वर्जनाओं से पीड़ित महिलाओं को पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण के फैसले से अधिक महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश का अवसर प्राप्त होगा। तद्नुसार मंत्रिमंडल ने 27 अगस्त, 2009 को संविधान की धारा 243 घ को संशोधित करने के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया ताकि पंचायत के तीनों स्तर की सीटों और अध्यक्षों के 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित किये जा सकें। पंचायती राज मंत्री ने 26 नवम्बर, 2009 को लोकसभा में संविधान (एक सौ दसवां) सशोधन विधेयक, 2009 पेश किया। +वर्तमान में, लगभग 28.18 लाख निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में से 36.87 प्रतिशत महिलायें हैं। प्रस्तावित संविधान संशोधन के बाद निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या 14 लाख से भी अधिक हो जाने की आशा है। +पंचायती राज संस्थाओं को कार्यों, वित्त और पदाधिकारियों का हस्तान्तरण. +पंचायतें जमीनी स्तर की लोकतांत्रिक संस्थायें हैं और कार्यों, वित्त तथा पदाधिकारियों के प्रभावी हस्तांतरण से उन्हें और अधिक सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है। इससे पंचायतों द्वारा समग्र योजना बनाई जा सकेगी और संसाधनों को एक साथ जुटाकर तमाम योजनाओं को एक ही बिन्दु से क्रियान्वित किया जा सकेगा। +ग्राम सभा का वर्ष. +पंचायती राज के 50 वर्ष पूरे होने पर 2 अक्तूबर, 2009 को समारोह का आयोजन किया गया। स्वशासन में ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के महत्व को देखते हुए 2 अक्तूबर, 2009 से 2 अक्तूबर, 2010 तक की अवधि को ग्राम सभा वर्ष के रूप में मनाया जाएगा। ग्राम सभाओं की कार्य प्रणाली में प्रभाविकता सुनिश्चित करने के सभी संभव प्रयासों के अतिरिक्त, निम्नलिखित कदम उठाए जा रहे हैं–पंचायतों, विशेषत: ग्राम सभाओं के सशक्तीकरण के लिए आवश्यक नीतिगत, वैधानिक और कार्यक्रम परिवर्तन, पंचायतों में अधिक कार्य कुशलता, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु सुव्यवस्थित प्रणालियों और प्रक्रियाओं को और ग्राम सभाओं तथा पंचायतों की विशिष्ट गतिविधियों को आकार देना और ग्राम सभाओं तथा पंचायतों की विशिष्ट गतिविधियों के बारे में जन-जागृति फैलाना। +न्याय पंचायत विधेयक, 2010. +वर्तमान न्याय प्रणाली, व्ययसाध्य, लम्बी चलने वाली प्रक्रियाओं से लदी हुई, तकनीकी और मुश्किल से समझ में आने वाली है, जिससे निर्धन लोग अपनी शिकायतों के निवारण के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा नहीं ले पाते। इस प्रकार की दिक्कतों को दूर करने के लिए मंत्रालय ने न्याय पंचायत विधेयक लाने का प्रस्ताव किया है। प्रस्तावित न्याय पंचायतें न्याय की अधिक जनोन्मुखी और सहभागीय प्रणाली सुनिश्चित करेंगी, जिनमें मध्यस्थता, मेल-मिलाप और समझौते की अधिक गुंजाइश होगी। भौगोलिक और मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों के अधिक नजदीक होने के कारण न्याय पंचायतें एक आदर्श मंच संस्थायें साबित होंगी, जिससे दोनों पक्षों और गवाहों के समय की बचत होनी, परेशानियां कम होंगी और खर्च भी कम होगा। इससे न्यायपालिका पर काम का बोझ भी कम होगा। +पंचायत महिलाशक्ति अभियान. +यह निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (ईडब्ल्यूआर) के आत्मविश्वास और क्षमता को बढाने की योजना है ताकि वे उन संस्थागत, समाज संबंधी और राजनीतिक दबावों से ऊपर उठकर काम कर सकें, जो उन्हें ग्रामीण स्थानीय स्वशासन में सक्रियता से भाग लेने में रोकते हैं। बाइस राज्यों में कोर (मुख्य) समितियां गठित की जा चुकी हैं और राज्य स्तरीय सम्मेलन हो चुके हैं। योजना के तहत 9 राज्य समर्थन केन्द्रों की स्थापना की जा चुकी है। ये राज्य हैं– आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, सिक्किम, केरल, पश्चिम बंगाल और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह। योजना के तहत 11 राज्यों में प्रशिक्षण के महत्त्व के बारे में जागरूकता लाने के कार्यक्रम हो चुके हैं। ये राज्य हैं– आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ, ग़ोवा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मणिपुर, केरल, असम, सिक्किम और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह। +संभागीय स्तर के 47 सम्मेलन 11 राज्यों (छत्तीसगढ, ग़ोवा, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, मणिपुर, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह) में आयोजित किए गए हैं। गोवा और सिक्किम में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों और निर्वाचित युवा प्रतिनिधियों (ईडब्ल्यूआर्स ईवाईआर्स) के राज्य स्तरीय संघ गठित किये जा चुके हैं। +ग्रामीण व्यापार केन्द्र (आरबीएच) योजना. +भारत में तेजी से हो रहे आर्थिक विकास को ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से पहुंचाने के लिए 2007 में आरबीएच योजना शुरू की गई थी। आरबीएच, देश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विकास का एक ऐसा सहभागीय प्रादर्श है जो फोर पी अर्थात पब्लिक प्राईवेट पंचायत पार्टनरशिप (सरकार, निजी क्षेत्र, पंचायत भागीदारी) के आधार पर निर्मित है। आरबीएच की इस पहल का उद्देश्य आजीविका के साधनों में वृध्दि के अलावा ग्रामीण गैर-कृषि आमदनी बढाक़र और ग्रामीण रोजगार को बढावा देकर ग्रामीण समृध्दि का संवर्धन करना है। +राज्य सरकारों के परामर्श से आरबीएच के अमल पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करने के लिए 35 जिलों का चयन किया गया है। संभावित आरबीएच की पहचान और उनके विकास के लिए पंचायतों की मदद के वास्ते गेटवे एजेन्सी के रूप में काम करने हेतु प्रतिष्ठित संगठनों की सेवाओं को सूचीबध्द किया गया है। आरबीएच की स्थापना के लिए 49 परियोजनाओं को वित्तीय सहायता दी जा चुकी है। भविष्य में उनका स्तर और ऊंचा उठाने के लिए आरबीएच का मूल्यांकन भी किया जा रहा है। + +उपभोक्ता अधिकार एवं शिकायत निवारण प्रणाली: +वैश्वीकरण एवं भारतीय बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोले जाने के कारण आज भारतीय उपभोक्ताओं की कई ब्रांडों तक पहुंच कायम हो गयी है। हर उद्योग में, चाहे वह त्वरित इस्तेमाल होने वाली उपभोक्ता वस्तु (एफएमसीजी) हो या अधिक दिनों तक चलने वाले सामान हों या फिर सेवा क्षेत्र हो, उपभोक्ताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर 20 से अधिक ब्रांड हैं। पर्याप्त उपलब्धता की यह स्थिति उपभोक्ता को विविध प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं में से कोई एक चुनने का अवसर प्रदान करती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उपभोक्ता को उसकी धनराशि की कीमत मिल रही है? आज के परिदृश्य में उपभोक्ता संरक्षण क्यों जरूरी हो गया है? क्या खरीददार को जागरूक बनाएं की अवधारणा अब भी कायम है या फिर हम उपभोक्ता संप्रुभता की ओर आगे बढ रहे हैं। +उपभोक्ता कल्याण की महत्ता. +उपभोक्तावाद, बाजार में उपभोक्ता का महत्व और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता भारत में उपभोक्ता मामले के विकास में कुछ मील के पत्थर हैं। दरअसल किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसके बाजार के चारों ओर घूमती है। जब यह विक्रेता का बाजार होता है तो उपभोक्ताओं का अधिकतम शोषण होता है। जब तक क्रेता और विक्रेता बड़ी संख्या में होते हैं तब उपभोक्ताओं के पास कई विकल्प होते हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनने से पहले तक भारत में विक्रेता बाजार था। इस प्रकार वर्ष 1986 एक ऐतिहासिक वर्ष था क्योंकि उसके बाद से उपभोक्ता संरक्षण भारत में गति पकड़ने लगा था। +1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने भारतीय उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गुणवत्तापूर्ण उत्पाद पाने का अवसर प्रदान किया। उसके पहले सरकार ने हमारे अपने उद्योग जगत को सुरक्षा प्रदान करने के लिए विदेशी प्रतिस्पर्धा पर रोक लगा दी थी। इससे ऐसी स्थिति पैदा हुई जहां उपभोक्ता को बहुत कम विकल्प मिल रहे थे और गुणवत्ता की दृष्टि से भी हमारे उत्पाद बहुत ही घटिया थे। एक कार खरीदने के लिए बहुत पहले बुकिंग करनी पड़ती थी और केवल दो ब्रांड उपलब्ध थे। किसी को भी उपभोक्ता के हितों की परवाह नहीं थी और हमारे उद्योग को संरक्षण देने का ही रुख था। +इस प्रकार इस कानून के जरिए उपभोक्ता संतुष्टि और उपभोक्ता संरक्षण को मान्यता मिली। उपभोक्ता को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक प्रणाली का अपरिहार्य हिस्सा समझा जाने लगा, जहां दो पक्षों यानि क्रेता और विक्रेता के बीच विनिमय का तीसरे पक्ष यानी कि समाज पर असर होता है। हालांकि बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन एवं बिक्री में लाभ की स्वभाविक मंशा कई विनिर्माताओं एवं डीलरों को उपभोक्ताओं का शोषण करने का अवसर भी प्रदान करती है। खराब सामान, सेवाओं में कमी, जाली और नकली ब्रांड, गुमराह करने वाले विज्ञापन जैसी बातें आम हो गयीं हैं और भोले-भाले उपभोक्ता अक्सर इनके शिकार बन जाते हैं। +संक्षिप्त इतिहास. +9 अप्रैल, 1985 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उपभोक्ता संरक्षण के लिए कुछ दिशानिर्देशों को अपनाते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को सदस्य देशों खासकर विकासशील देशों को उपभोक्ताओं के हितों के बेहतर संरक्षण के लिए नीतिंयां और कानून अपनाने के लिए राजी करने का जिम्मा सौंपा था। उपभोक्ता आज अपने पैसे की कीमत चाहता है। वह चाहता है कि उत्पाद या सेवा ऐसी हो जो तर्कसंगत उम्मीदों पर खरी उतरे और इस्तेमाल में सुरक्षित हो। वह संबंधित उत्पाद की खासियत को भी जानना चाहता है। इन आकांक्षाओं को उपभोक्ता अधिकार का नाम दिया गया। 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। +इस तारीख का ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यह वही दिन है जब 1962 में अमेरिकी संसद कांग्रेस में उपभोक्ता अधिकार विधेयक पेश किया गया था। अपने भाषण में राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने कहा था, न्नन्न यदि उपभोक्ता को घटिया सामान दिया जाता है, यदि कीमतें बहुत अधिक है, यदि दवाएं असुरक्षित और बेकार हैं, यदि उपभोक्ता सूचना के आधार पर चुनने में असमर्थ है तो उसका डालर बर्बाद चला जाता है, उसकी सेहत और सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है और राष्ट्रीय हित का भी नुकसान होता है। +उपभोक्ता अंतर्राष्ट्रीय (सीआई), जो पहले अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता यूनियन संगठन (आईओसीयू) के नाम से जाना जाता था, ने अमेरिकी विधेयक में संलग्न उपभोक्ता अधिकार के घोषणापत्र के तत्वों को बढा क़र आठ कर दिया जो इस प्रकार है- 1.मूल जरूरत 2.सुरक्षा, 3. सूचना, 4. विकल्पपसंद 5. अभ्यावेदन 6. निवारण 7. उपभोक्ता शिक्षण और 8. अच्छा माहौल। सीआई एक बहुत बड़ा संगठन है और इससे 100 से अधिक देशों के 240 संगठन जुड़े हुए हैं। +इस घोषणापत्र का सार्वभौमिक महत्व है क्योंकि यह गरीबों और सुविधाहीनों की आकांक्षाओं का प्रतीक है। इसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने अप्रैल, 1985 को उपभोक्ता संरक्षण के लिए अपना दिशानिर्देश संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया। +उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986. +भारत ने इस प्रस्ताव के हस्ताक्षरकर्ता देश के तौर पर इसके दायित्व को पूरा करने के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनाया। संसद ने दिसंबर, 1986 को यह कानून बनाया जो 15 अप्रैल, 1987 से लागू हो गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों को बेहतर सुरक्षा प्रदान करना है। इसके तहत उपभोक्ता विवादों के निवारण के लिए उपभोक्ता परिषदों और अन्य प्राधिकरणों की स्थापना का प्रावधान है। +यह अधिनियम उपभोक्ताओं को अनुचित सौदों और शोषण के खिलाफ प्रभावी, जनोन्मुख और कुशल उपचार उपलब्ध कराता है। अधिनियम सभी सामानों और सेवाओं, चाहें वे निजी, सार्वजनिक या सहकारी क्षेत्र की हों, पर लागू होता है बशर्ते कि वह केंद्र सरकार द्वारा अधिकारिक गजट में विशेष अधिसूचना द्वारा मुक्त न कर दिया गया हो। अधिनियम उपभोक्ताओं के लिये पहले से मौजूदा कानूनों में एक सुधार है क्योंकि यह क्षतिपूर्ति प्रकृति का है, जबकि अन्य कानून मूलत: दंडाधारित है और उसे विशेष स्थितियों में राहत प्रदान करने लायक बनाया गया है। इस अधिनियम के तहत उपचार की सुविधा पहले से लागू अन्य कानूनों के अतिरिक्त है और वह अन्य कानूनों का उल्लंघन नहीं करता। अधिनियम उपभोक्ताओं के छह अधिकारों को कानूनी अमली जामा पहनाता है वे हैं- सुरक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, चुनाव का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, शिकायत निवारण का अधिकार और उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार। अधिनियम में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए सलाहकार एवं न्याय निकायों के गठन का प्रावधान भी है। इसके सलाहकार स्वरूप के तहत केंद्र, राज्य और जिला स्तर पर उपभोक्ता सुरक्षा परिषद आते हैं। परिषदों का गठन निजी-सार्वजनिक साझेदारी के आधार पर किया जाता है। इन निकायों का उद्देश्य सरकार की उपभोक्ता संबंधी नीतियों की समीक्षा करना और उनमें सुधार के लिए उपाय सुझाना है। +अधिनियम में तीन स्तरों जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर जिला फोरम, राज्य उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग जैसे अर्ध्दन्यायिक निकाय मशीनरी का भी प्रावधान है। फिलहाल देश में 621 जिला फोरम, 35 राज्य आयोग और एक राष्ट्रीय आयोग है। जिला फोरम उन मामलों में फैसले करता है जहां 20 लाख रूपए तक का दावा होता है। राज्य आयोग 20 लाख से ऊपर एक करोड़ रूपए तक के मामलों की सुनवाई करता है जबकि राष्ट्रीय आयोग एक करोड़ रूपए से अधिक की राशि के दावे वाले मामलों की सुनवाई करता है। ये निकाय अर्ध्द-न्यायिक होते हैं और प्राकृतिक न्याय के सिध्दांतों से संचालित होते हैं। उन्हें नोटिस के तीन महीनों के अंदर शिकायतों का निवारण करना होता है और इस अवधि के दौरान कोई जांच नहीं होती है जबकि यदि मामले की सुनवाई पांच महीने तक चलती है तो उसमें जांच भी की जाती है। +उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 समेकित एवं प्रभावी तरीके से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और संवर्ध्दन से संबंधित सामाजिक-आर्थिक कानून है। अधिनियम उपभोक्ताओं के लिए विक्रेताओं, विनिर्माताओं और व्यापारियों द्वारा शोषण जैसे खराब सामान, सेवाओं में कमी, अनुचित व्यापारिक परिपाटी आदि के खिलाफ एक हथियार है। अपनी स्थापना से लेकर 01 जनवरी, 2010 तक राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर की उपभोक्ता अदालतों में 33,30,237 मामले दर्ज हुए और 29,58,875 मामले निपटाए गए। + +वन और जैव विविधता: +विश्व वानिकी दिवस एक अंतरराष्ट्रीय दिवस है और यह हर वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। यह दुनियाभर में लोगों को वनों की महत्ता तथा उनसे मिलने वाले अन्य लाभों की याद दिलाने के लिए पिछले 30 वर्षों से मनाया जा रहा है। +विश्व वानिकी दिवस मनाने का विचार 1971 में यूरोपीय कृषि परिसंघ की 23 वीं महासभा में आया। वानिकी के तीन महत्वपूर्ण तत्वों- सुरक्षा, उत्पादन और वनविहार के बारे में लोगों को जानकारियां देने के लिए उसी साल बाद में 21 मार्च के दिन को यानि दक्षिणी गोलार्ध में शरद विषव और दक्षिण गोलार्ध में वसंत विषव के दिन को चुना गया। +वन प्रागैतिहासिक काल से ही मानवजाति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। वन का मतलब केवल पेड़ नहीं है बल्कि यह एक संपूर्ण जटिल जीवंत समुदाय है। वन की छतरी के नीचे कई सारे पेड़ और जीवजंतु रहते हैं। वनभूमि बैक्ट्रेरिया, कवक जैसे कई प्रकार के अकशेरूकी जीवों के घर हैं। ये जीव भूमि और वन में पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। +वन पर्यावरण, लोगों और जंतुओं को कई प्रकार के लाभ पहुंचाते हैं। वन कई प्रकार के उत्पाद प्रदान करते हैं जैसे फर्नीचर, घरों, रेलवे स्लीपर, प्लाईवुड, ईंधन या फिर चारकोल एव कागज के लिए लकड़ी, सेलोफेन, प्लास्टिक, रेयान और नायलॉन आदि के लिए प्रस्संकृत उत्पाद, रबर के पेड़ से रबर आदि। फल, सुपारी और मसाले भी वनों से एकत्र किए जाते हैं। कर्पूर, सिनचोना जैसे कई औषधीय पौधे भी वनों में ही पाये जाते हैं। +पेड़ों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रखती है और इस प्रकार वह भारी बारिश के दिनों में मृदा का अपरदन और बाढ भी रोकती हैं। पेड. कार्बन डाइ आक्साइड अवशोषित करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं जिसकी मानवजाति को सांस लेने के लिए जरूरत पड़ती है। वनस्पति स्थानीय और वैश्विक जलवायु को प्रभावित करती है। पेड़ पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और जंगली जंतुओं को आश्रय प्रदान करते हैं। वे सभी जीवों को सूरज की गर्मी से बचाते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं। वन प्रकाश का परावर्तन घटाते हैं, ध्वनि को नियंत्रित करते हैं और हवा की दिशा को बदलने एवं गति को कम करने में मदद करते हैं। इसी प्रकार वन्यजीव भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ये हमारी जीवनशैली के महत्वपूर्ण अंग हैं। +समय की मांग है कि वनों को बचाया जाए क्योंकि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से समस्याएं पैदा होती हैं। वनक्षेत्र घटकर 30 प्रतिशत रह गया है जबकि पहले 60 प्रतिशत पर ही इसके क्षरण का विरोध किया गया था। इस वर्ष विश्व वानिकी दिवस का ध्येय वाक्य वन एवं जैवविविधता रखा गया है। इस दिवस का उद्देश्य लोगों को यह सूचना देने का अवसर उपलब्ध कराना है कि कैसे वनों का रखरखाव और संपोषणीय रूप से उनका इस्तेमाल किया जाए। +वन जैव विविधता एक व्यापक शब्दावली है जो वन्यक्षेत्र में पाए जाने वाले सभी सजीवों और उनकी पारिस्थतिकीय भूमिका से संबध्द है। इसके तहत न केवल पेड़ आते हैं बल्कि विविध प्रकार के जंतु और सूक्ष्मजीव, जो वन्यक्षेत्र में रहते हैं और उनकी गुणसूत्रीय विविधता भी आती है। इसे पारिस्थितिकी तंत्र, भूदृश्य, प्रजाति, संख्या, आनुवांशिकी समेत विभिन्न स्तरों पर समझा जा सकता है। इन स्तरों के अंदर और इनके बीच जटिल अंत:क्रिया हो सकती है। जैव विविध वनों में यह जटिलता जीवों को लगातार बदलते पर्यावरणीय स्थितियों में अपने आप को ढालने में मदद करती है और पारिस्थितिकी तंत्र को सुचारू बनाती है। +पिछले 8000 वर्षों में पृथ्वी के मूल वनक्षेत्र का 45 प्रतिशत हिस्सा गायब हो गया। इस 45 प्रतिशत हिस्से में ज्यादातर हिस्सा पिछली शताब्दी में ही साफ किया गया। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि हर वर्ष 1.3 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र कटाई की वजह से खत्म होता जाता है। वर्ष 2000-2005 के बीच वनक्षेत्र की वार्षिक कुल क्षति 73 लाख हेक्टेयर रही है (जो विश्व के वन क्षेत्र के 0.18 फीसदी के बराबर है)। +पिछले वर्षों में शहतीर लगाना वनों के लिए महत्त्वपूर्ण कामकाज माना जाता था। हालांकि हाल के वर्षों में यह अवधारणा ज्यादा बहुप्रयोजन एवं संतुलित दृष्टकोण की ओर बदली है। अन्य वन्य प्रयोजनों और सेवाओं जैसे वनविहार, स्वास्थ्य, कुशलता, जैवविविधता, पारिस्थतिकी तंत्र सेवाओं का प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन का उपशमन अब वनों की महत्ता के अंग समझे जाने लगे हैं। इसे लगातार जटिल एवं अनोखे तत्व के रूप में मान्यता मिलती जा रही है। +जैव विविधता संधिपत्र(सीबीडी) में सीधे वन जैव विविधता के विस्तारित कार्यक्रम के जरिए वनों पर ध्यान दिया गया है। यह संधिपत्र 2002 में सीबीडी के सदस्य देशों की छठी बैठक में स्वीकार किया गया। वन कार्य कार्यक्रम में वन जैवविविधता के संरक्षण, उसके अवयवों का संपोषणी रूप से इस्तेमाल, वन आनुवांशिक संसाधन का न्यायोचित उपयोग आदि पर केंद्रित लक्ष्य और गतिविधियां शामिल हैं। जैव विविधता पर कार्यक्रम में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य शामिल हैं, वे हैं- संरक्षण, संपोषणीय इस्तेमाल, लाभ साझेदारी, संस्थानात्मक एवं सामाजिक-आर्थिक रूप से उपयुक्त पर्यावरण और ज्ञान आकलन एवं निगरानी आदि। + +सबके लिए अनन्य पहचान की ओर एक कदम: +शायद हम में से ज्यादातर ने हाल ही में समाचारपत्रों या पत्रिकाओं में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक (एनपीआर) के बारे में पढ़ा होगा। लेकिन यह सारी चहल-पहल आखिर है क्या ? एनपीआर क्या है ? इसका उद्देश्य क्या है ? और इन सबसे बढ़कर, इससे आम आदमी को क्या फायदा होने जा रहा है ? +एनपीआर के बारे में जानने के लिए, पहले जनगणना के बारे में कुछ जान लेना आवश्यक है। अब, भारत के लिए जनगणना कोई नई चीज़ नहीं है। यह अंग्रेजाें के राज से ही की जाती रही है। भारत में पहली जनगणना 1872 में हुई थी। वर्ष 1881 से, जनगणना बिना किसी रूकावट के हर दस साल में की जाती रही है। जनगणना एक प्रशासनिक अभ्यास है जो भारत सरकार करवाती है। इसमें जनांकिकी, सामाजिक -सांस्कृतिक और आर्थिक विशेषताओं जैसे अनेक कारकों के संबंध में पूरी आबादी के बारे में सूचना एकत्र की जाती है। +वर्ष 2011 में भारत की 15वीं तथा स्वतंत्रता के बाद यह सातवीं जनगणना होगी। एनपीआर की तैयारी वर्ष 2011 की जनगणना का मील का पत्थर है। जनगणना दो चरणों में की जाएगी। पहला चरण अप्रैल से सितंबर 2010 के दौरान होगा जिसमें घरों का सूचीकरण, घरों की आबादी और एनपीआर के बारे में डाटा एकत्र किया जाएगा। इस चरण में एनपीआर कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना भी शामिल है जो दो भाषाओं- अंग्रेजी और हर राज्य#संघीय क्षेत्र की राजभाषा में तैयार किया जाएगा। पहला चरण पहली अप्रैल, 2010 को पश्चिम बंगाल, असम, गोवा और मेघालय राज्यों तथा संघीय क्षेत्र अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में शुरू होगा। दूसरे चरण में आबादी की प्रगणना करना शामिल है। +देश के साधारण निवासियों का राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक बनाना एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसमें देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बारे में विशिष्ट सूचना एकत्र की जाएगी। इसमें अनुमानित एक अरब 20 करोड़ की आबादी को शामिल किया जाएगा तथा इस स्कीम की लागत कुल 3539.24 करोड़ रुपए होगी। भारत में पहली बार एनपीआर तैयार किया जा रहा है। भारत का पंजीयक यह डाटाबेस तैयार करेगा। +इस परिस्थिति में, इस बात पर बल देना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यद्यपि इन दोनों अभ्यासों का मक़सद सूचना का संग्रह है मगर जनगणना और एनपीआर अलग-अलग बातें हैं। जनगणना जनांकिकी, साक्षरता एवं शिक्षा, आवास एवं घरेलू सुख-सुविधाएं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन शक्ति, मृत्यु संख्या, भाषा, धर्म और प्रवास के बारे में डाटा का सबसे बड़ा स्रोत है। यह केंद्र एवं राज्यों की नीतियों के लिए योजना बनाने तथा उनके कार्यान्वयन के लिए प्राथमिक डाटा के रूप में काम आता है। यह संसदीय, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के लिए भी इस्तेमाल की जाती है। +दूसरी तरफ एनपीआर में, देश के लिए व्यापक पहचान का डाटाबेस बनाना शामिल है। इससे आयोजना, सरकारी स्कीमों#कार्यक्रमों का बेहतर लक्ष्य निर्धारित करना तथा देश की सुरक्षा को मजबूत करना भी सुगम होगा। एक अन्य पहलू जो एनपीआर को जनगणना से अलग करता है, वह यह है कि एनपीआर एक सतत प्रक्रिया है। जनगणना में, संबंधित अधिकारियों का कर्तव्य सीमित अवधि के लिए होता है तथा काम समाप्त होने के बाद उनकी सेवाएं अनावश्यक हो जाती हैं जबकि एनपीआर के मामले में संबंधित अधिकारियों और तहसीलदार एवं ग्रामीण अधिकारियों जैसे उनके मातहत अधिकारियों की भूमिका स्थायी होती है। +एनपीआर में व्यक्ति का नाम, पिता का नाम, मां का नाम, पति#पत्नी का नाम, लिंग, जन्म तिथि, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्ट्रीयता (घोषित), व्यवसाय, साधारण निवास के वर्तमान पते और स्थायी निवास के पते जैसी सूचना की मद शामिल होंगी। इस डाटाबेस में 15 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के फोटो और फिंगर बायोमेट्री (उंगलियों के निशान) भी शामिल होंगे। साधारण निवासियों के प्रमाणीकरण के लिए मसौदा डाटाबेस को ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के समक्ष रखा जाएगा। +आम आवासियों के स्थानीय रजिस्टर का मसौदा ग्रामीण इलाके में गांवों में और शहरी इलाकों में वार्डों में रखे जाएंगे ताकि नाम के हिज्जों, पत्रों जन्म, तिथियों आदि गलतियों पर शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इसके अलावा दर्ज व्यक्ति की रिहायश के मामले में भी शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इस मसौदे को आम आवासियों की तस्दीक के लिए ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के सामने पेश किया जाएगा। +डाटाबेस पूरा होने के बाद, अगला काम भारतीय अनन्य पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के जरिए हर व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या (यूआईडी) तथा पहचान पत्र देना होगा। बाद में इस यूआईडी नंबर में एनपीआर डाटाबेस जोड़ा जाएगा। पहचान पत्र स्मार्ट कार्ड होगा जिस पर 16 अंक की अनन्य संख्या होगी तथा उसमें शैक्षिक योग्यताएं, स्थान और जन्म तिथि, फोटो और उंगलियों के निशान भी शामिल होंगे। फिलहाल, मतदाता पहचान पत्र या आय कर दाताओं के लिए स्थायी लेखा संख्या (पैन) जैसे सरकार की तरफ से जारी विभिन्न कार्ड एक दूसरे के सब-सेट्स के रूप में काम करते हैं। इन सभी को अनन्य बहुद्देश्यीय पहचान कार्ड में एकीकृत किया जा सकता है। +समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन तटीय एनपीआर परियोजना नामक प्रायोगिक परियोजना से हासिल अनुभव के आधार पर समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन किया जाएगा। यह परियोजना 9 राज्यों और 4 संघीय क्षेत्रों के 3,000 से अधिक गांवों में चलायी गयी है। मुंबई आतंकी हमलों के बाद तटीय सुरक्षा बढ़ाने के मद्देनज़र तटीय एनपीआर परियोजना कार्यान्वित करने का निर्णय लिया गया था क्योंकि आंतकवादी समुद्र के रास्ते मुंबई में घुसे थे। +एनपीआर से लोगों को क्या फायदा होगा ? +भारत में, मतदाता पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, पैन कार्ड जैसे विभिन्न डाटाबेस हैं लेकिन इन सबकी सीमित पहुंच है। ऐसा कोई मानक डाटाबेस नहीं है जिसमें पूरी आबादी शामिल हो। एनपीआर मानक डाटाबेस उपलब्ध कराएगा तथा प्रत्येक व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या का आवंटन सुगम कराएगा। यह संख्या व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक स्थायी पहचान प्रदान करने जैसी ही होगी। +एनपीआर का महत्व इस तथ्य में निहित है कि देश में समग्र रूप से विश्वसनीय पहचान प्रणाली की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। गैरकानूनी प्रवास पर लगाम कसने तथा आंतरिक सुरक्षा के मसले से निपटने के लिए भी देश के हर क्षेत्र और हर कोने के लोगों तक पहुंच बनाने की ज़रूरत जैसे विभिन्न कारकों की वजह से यह सब और भी महत्वपूर्ण हो गया है। +अनन्य पहचान संख्या से आम आदमी को कई तरह से फायदा होगा। यह संख्या उपलब्ध होने पर बैंक खाता खोलने जैसी विविध सरकारी या निजी सेवाएं हासिल करने के लिए व्यक्ति को पहचान के प्रमाण के रूप में एक से अधिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की ज़रूरत नहीं होगी। यह व्यक्ति के आसान सत्यापन में भी मदद करेगी। बेहद गरीब लोगों के लिए सरकार अनेक कार्यक्रम और योजनाएं चला रही है लेकिन अनेक बार वे लक्षित आबादी तक नहीं पहुंच पाते। इस प्रकार यह पहचान डाटाबेस बनने से सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों की विविध लाभार्थी केंद्रित स्कीमों का लक्ष्य बढ़ाने में मदद मिलेगी। +एनपीआर देश की आंतरिक सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत भी पूरा करेगा। सबको बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र उपलब्ध होने से आतंकवादियों पर भी नज़र रखने में मदद मिलेगी जो अकसर आम आदमियों में घुलमिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त, इससे कर संग्रह बढ़ाने तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में कल्याण योजनाओं के बेहतर लक्ष्य निर्धारण के अलावा गैरकानूनी प्रवासियों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी। +भारत अनुमानित 1 अरब 20 करोड़ की आबादी को अनन्य बायोमीट्रिक कार्ड उपलब्ध कराने के वायदे के साथ सबसे बड़ा डाटाबेस बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पूरी तरह तैयार है। इस तरह अनन्य पहचान उपलब्ध कराने का रास्ता निर्धारित कर दिया गया है। यह अभ्यास इतना विशाल है कि इस परियोजना को सफल बनाने के लिए लोगों के उत्साहपूर्ण समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता है जो सबके लिए फायदेमंद होगी। + +प्लास्टिक थैले-पर्यावरणीय मुसीबत: +पर्यावरण. +प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को पहुंचने वाले खतरों का अध्ययनअनेक समितियों ने किया है। प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्यायें मुख्य रूप से कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों के कारण पैदा हुई हैं। अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल के कारण खुली नालियों का प्रवाह रूकने, भूजल संदूषण आदि जैसी पर्यावरणीय समस्यायें जन्म लेती हैं। प्लास्टिक रसायनों से निर्मित पदार्थ है जिसका इस्तेमाल विश्वभर में पैकेजिंग के लिये होता है, और इसी कारण स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के लिये खतरा बना हुआ है। यदि अनुमोदित प्रक्रियाओं और दिशा-निर्देशों के अनुसार प्लास्टिक की रिसाइक्लिंग (पुनर्चक्रण) किया जाए तो पर्यावरण अथवा स्वास्थ्य के लिये ये खतरा नहीं बनेगा। +प्लास्टिक किसे कहते हैं? +प्लास्टिक एक प्रकार का पॉलीमर यानी मोनोमर नाम की दोहराई जाने वाली इकाइयों से युक्त बड़ा अणु है। प्लास्टिक थैलों के मामले में दोहराई जाने वाली इकाइयां एथिलीन की होती हैं। जब एथिलीन के अणु को पॉली एथिलीन बनाने के लिए ‘पॉलीमराइज’ किया जाता है, वे कार्बन अणुओं की एक लम्बी शृंखला बनाती हैं, जिसमें प्रत्येक कार्बन को हाइड्रोजन के दो परमाणुओं से संयोजित किया जाता है। +क्या प्लास्टिक के थैले स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है? +प्लास्टिक मूल रूप से विषैला या हानिप्रद नहीं होता। परन्तु प्लास्टिक के थैले रंग और रंजक, धातुओं और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनो को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिये किया जाता है। इनमें से कुछ कैंसर को जन्म देने की संभावना से युक्त हैं तो कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं। रंजक पदार्थों में कैडमियम जैसी जो भरी धातुएं होती हैं वे फैलकर स्वास्थ्य के लिये खतरा साबित हो सकती हैं। +प्लास्टिसाइजर अल्प अस्थिर प्रकृति का जैविक (कार्बनिक) एस्सटर (अम्ल और अल्कोहल से बना घोल) होता है। वे द्रवों की भांति निथार कर खाद्य पदार्थों में घुस सकते हैं। ये कैंसर पैदा करने की संभावना से युक्त होते हैं। +एंटी आक्सीडेंट और स्टैबिलाइजर अकार्बनिक और कार्बनिक रसायन होते हैं जो निर्माण प्रक्रिया के दौरान तापीय विघटन से रक्षा करते हैं। +कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं का इस्तेमाल जब प्लास्टिक थैलों के निर्माण में किया जाता है, वे निथार कर खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना देती हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और हृदय का आकार बढ सक़ता है। लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होकर नुकसान पहुंचता है। +प्लास्टिक थैलों से उत्पन्न समस्याएं. +प्लास्टिक थैलियों का निपटान यदि सही ढंग से नहीं किया जाता है तो वे जल निकास (नाली) प्रणाली में अपना स्थान बना लेती हैं, जिसके फलस्वरूप नालियों में अवरोध पैदा होकर पर्यावरण को अस्वास्थ्यकर बना देती हैं। इससे जलवाही बीमारियों भी पैदा होती हैं। रि-साइकिल किये गए अथवा रंगीन प्लास्टिक थैलों में कतिपय ऐसे रसायन होते हैं जो निथर कर जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषाक्त बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं, वे प्रक्रम के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से पर्यावरण के लिये समस्याएं पैदा कर सकते हैं। प्लास्टिक की कुछ थैलियों जिनमें बचा हुआ खाना पड़ा होता है, अथवा जो अन्य प्रकार के कचरे में जाकर गड-मड हो जाती हैं, उन्हें प्राय: पशु अपना आहार बना लेते हैं, जिसके नतीजे नुकसान दायक हो सकते हैं। चूंकि प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता और स्वभाव से अप्रभावनीय होता है, उसे यदि मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा, प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिये और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे प्राय: स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। +प्लास्टिक कचरा प्रबंधन हेतु कार्य योजनायें. +अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है। ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिये उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे। पतली प्लास्टिक थैलियों की कोई खास कीमत नहीं मिलती और उनको अलग-थलग करना भी कठिन होता है। यदि प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढा दी जाए, तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके उपयोग में कुछ कमी आएगी। +प्लास्टिक की थैलियों, पानी की बोतलों और पाउचों को कचरे के तौर पर फैलाना नगरपालिकाओं की कचरा प्रबंधन प्रणाली के लिये एक चुनौती बनी हुई है। अनेक पर्वतीय राज्यों (जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम, पश्चिम बंगाल) ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियोंबोतलों के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत समूचे राज्य में 15.08.2009 से प्लास्टिक के उपयोग पर पाबंदी लगा दी है। +केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाली हानि का आकलन कराया है। इसके लिये कई समितियां और कार्यबल गठित किये गए, जिनकी रिपोर्ट सरकार के पास है। +पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्स, 1999 जारी किया था, जिसे 2003 में, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1968 के तहत संशोधित किया गया है ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन उचित ढंग से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है। +प्लास्टिक के विकल्प. +प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट और कपड़े से बनी थैलियों और कागज की थैलियों को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए और इसके लिए कुछ वित्तीय प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए। यहां, ध्यान देने की बात है कि कागज की थैलियों के निर्माण में पेड़ों की कटाई निहित होती है और उनका उपयोग भी सीमित है। आदर्श रूप से, केवल धरती में घुलनशील प्लास्टिक थैलियों का उपयोग ही किया जाना चाहिये। जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिये अनुसंधान कार्य जारी है। +vsuediv vgkyhwk + +शिक्षा का अधिकार अब एक मौलिक अधिकार: +भारत माता के महान सपूतों में से एक, गोपाल कृष्ण गोखले यदि आज जिंदा होते तो देश के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार के अपने सपने को साकार होते देखकर सबसे अधिक प्रसन्न होते। गोखले वही व्यक्ति थे, जिन्होंने आज से एक सौ वर्ष पहले ही इम्पीरियल लेजिस्लेटिव एसेम्बली से यह मांग की थी कि भारतीय बच्चों को ऐसा अधिकार प्रदान किया जाए। इस लक्ष्य तक पहुंचने में हमें एक सदी का समय लगा है। +सरकार ने अंतत: सभी विसंगतियों को दूर करते हुए इस वर्ष पहली अप्रैल से शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया है। शिक्षा का अधिकार अब 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए एक मौलिक अधिकार है। सरल शब्दों में इसका अर्थ यह है कि सरकार प्रत्येक बच्चे को आठवीं कक्षा तक की नि:शुल्क पढार्ऌ के लिए उत्तरदायी होगी, चाहे वह बालक हो अथवा बालिका अथवा किसी भी वर्ग का हो। इस प्रकार इस कानून देश के बच्चों को मजबूत, साक्षर और अधिकार संपन्न बनाने का मार्ग तैयार कर दिया है। +इस अधिनियम में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान का प्रावधान है, जिससे ज्ञान, कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुध्द नागरिक बनाया जा सके। यदि विचार किया जाए तो आज देशभर में स्कूलों से वंचित लगभग एक करोड़ बच्चों को शिक्षा प्रदान करना सचमुच हमारे लिए एक दुष्कर कार्य है। इसलिए इस लक्ष्य को साकार करने के लिए सभी हितधारकों — माता-पिता, शिक्षक, स्कूलों, गैर-सरकारी संगठनों और कुल मिलाकर समाज, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की ओर से एकजुट प्रयास का आह्वान किया गया है। जैसा कि राष्ट्र को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि सबको साथ मिलकर काम करना होगा और राष्ट्रीय अभियान के रूप में चुनौती को पूरा करना होगा। +डॉ. सिंह ने देशवासियों के सामने अपने अंदाज में अपनी बात रखी कि वह आज जो कुछ भी हैं, केवल शिक्षा के कारण ही। उन्होंने बताया कि वह किस प्रकार लालटेन की मध्दिम रोशनी में पढार्ऌ करते थे और वाह स्थित अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी पैदल चलकर तय करते थे, जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने बताया कि उस दौर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने में भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वंचित वर्गों के लिए शिक्षा पाने की मांग के संदेश बेहतर रूप में पेश नहीं किए जा सके। +इस अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि पहुंच के भीतर वाला कोई निकटवर्ती स्कूल किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार नहीं करेगा। इसमें यह भी प्रावधान शामिल है कि प्रत्येक 30 छात्र के लिए एक शिक्षक के अनुपात को कायम रखते हए पर्याप्त संख्या में सुयोग्य शिक्षक स्कूलों में मौजूद होना चाहिए। स्कूलों को पांच वर्षों के भीतर अपने सभी शिक्षकों को प्रशिक्षित करना होगा। उन्हें तीन वर्षों के भीतर समुचित सुविधाएं भी सुनिश्चित करनी होगी, जिससे खेल का मैदान, पुस्तकालय, पर्याप्त संख्या में अध्ययन कक्ष, शौचालय, शारीरिक विकलांग बच्चों के लिए निर्बाध पहुंच तथा पेय जल सुविधाएं शामिल हैं। स्कूल प्रबंधन समितियों के 75 प्रतिशत सदस्य छात्रों की कार्यप्रणाली और अनुदानों के इस्तेमाल की देखरेख करेंगे। स्कूल प्रबंधन समितियां अथवा स्थानीय अधिकारी स्कूल से वंचित बच्चों की पहचान करेंगे और उन्हें समुचित प्रशिक्षण के बाद उनकी उम्र के अनुसार समुचित कक्षाओं में प्रवेश दिलाएंगे। सम्मिलित विकास को बढावा देने के उद्देश्य से अगले वर्ष से निजी स्कूल भी सबसे निचली कक्षा में समाज के गरीब और हाशिये पर रहने वाले वर्गों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करेंगे। +इन लक्ष्यों पर जोर देने की जरूरत है। किन्तु उन्हें साकार करना एक बड़ी चुनौती हे। देश में लगभग एक करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हैं, जो अपने आप में एक बड़ी संख्या है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, स्कूलों में सुविधाओं का अभाव, अतिरिक्त स्कूलों की आवश्यकता और धन की कमी होना अन्य बड़ी चुनौतियां हैं। +मौजूदा स्थिति चौंकाने वाली है। लगभग 46 प्रतिशत स्कूलों में बालिकाओं के लिए शौचालय नहीं हैं, जो माता-पिता द्वारा बच्चों को स्कूल नहीं भेजने का एक प्रमुख कारण है। देशभर में 12.6 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। देश के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त प्रारंभिक स्कूलों में अप्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या 7.72 लाख है, जो कुल शिक्षकों की संख्या का 40 प्रतिशत है। लगभग 53 प्रतिशत स्कूलों में अधिनियम के प्रावधान के अनुसार निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात 1: 30 से अधिक है। +इस अधिनियम के क्रियान्वयन में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी एक प्रमुख बाधा है। इन रिक्तियों को भरने के उद्देश्य से अगले छ: वर्षों में लगभग पांच लाख शिक्षकों को भर्ती करने की योजना है। +जहां तक धन की कमी का प्रश्न है, इस अधिनियम में राज्यों के साथ हिस्सेदारी का प्रावधान है, जिसमें कुल व्यय मे केन्द्र सरकार का हिस्सा 55 प्रतिशत है। एक अनुमान के अनुसार इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए अगले पांच वर्ष में 1.71 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी और मौजूदा वर्ष में 34 हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। इनमें से केन्द्रीय बजट में 15,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार द्वारा शैक्षिक कार्यक्रमों के लिए पहले से राज्यों को दिए गए लगभग 10,000 करोड़ रुपये का व्यय नहीं हो पाया है। इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए वित्त आयोग ने राज्यों को 25,000 करोड़ रुपये आबंटित किए हैं। इसके बावजूद, बिहार, उत्तर प्रदेश और ओड़िशा जैसे राज्यों ने अतिरिक्त निधि की मांग की है। प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि इस अधिनियम के क्रियान्वयन में धन की कमी नहीं होने दी जाएगी। इस परियोजना की सफलता के लिए सभी हितधारकों की ओर से एक ईमानदार पहल की आवश्यकता है। इस कानून के उल्लंघन पर नजर रखने के लिए एक बाल अधिकार आयोग गठित किया जाएगा। +हमारे सामने कई अन्य चुनौतियां भी होंगी। निम्न आय समूह वाले माता-पिता परिवार की आय बढाने के लिए अपने बच्चों को काम करने के लिए भेजते हैं। कम उम्र में विवाह होना और जीविका के लिए लोगों का प्रवास करना भी ऐसे मुद्दे हैं जिनका हल करना इस अधिनियम के सफलातापूर्वक क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है। +इस प्रकार भारत ने वैधानिक समर्थन के साथ एक सशक्त देश की आधारशिला रखने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है। यह उन देशों के एक छोटे समूह में शामिल हुआ हे, जिनके पास ऐसे वैधानिक प्रावधान मौजूद हैं। वास्तव में यह शिक्षा को व्यापक बनाने की दिशा में उठाया गया एक अद्वितीय कदम है। प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि दलितों, अल्पसंख्यक और बालिकाओं को शिक्षा प्रदान करने के लिए मुख्य रूप से प्रयास किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने हरेक भारतीय को सुंदर भविष्य का सपना देखने की अपनी चाहत के बारे में बताकर प्रत्येक भारतीय को साक्षर बनाने हेतु अपनी सरकार की प्रतिबध्दता के बारे मे अवगत करा दिया है। अब इस लक्ष्य की ओर देखना हम सबका दायित्व है। शिक्षा का मुद्दा भारत के संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है, अत: इसके लिए सभी स्तरों पर बेहतर सहयोग की जरूरत है। + +शहरी भारत के स्वास्थ्य संबंधी खतरे: +इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस स्वास्थ्य पर शहरीकरण के प्रभाव विषय पर केंद्रित है। इस बार विश्व स्वास्थ्य संगठन ”1000 शहर-1000 जीवन” अभियान लेकर आया है। यह अभियान स्वास्थ्य गतिविधियों के लिए सड़कों को खोलने के लिए शहरों के आह्वान के साथ दुनिया भर में आयोजित किया जाएगा। बाकी सभी की तरह यह विषय भारतीय संदर्भ में भी बहुत ज़रूरी माना जाता है जहां स्वास्थ्य मंत्री श्री गुलाम नबी आज़ाद कहते हैं, ” यद्यपि हम अपना आर्थिक सूचकांक सुधार रहे हैं, मगर फिर भी हम अब तक दुनिया में बीमारी का बोझ बढ़ाने के सबसे बड़े योगदानकर्ता बने हुए हैं। ” +अनुमान बहुत भयावह हैं। आज वयोवृध्द लोगों की आबादी बढ़ने तथा ज्यादा महत्त्वपूर्ण रूप से तेजी से हुए शहरीकरण के कारण असंक्रामक रोग (एनसीडी), विशेषरूप से कार्डियोवस्कुलर रोग (सीवीडी), डायबिटीज मेलिटस, कैंसर, आघात और जीर्ण फेफड़ा रोग प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में उभरे हैं। भारत में हुए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि करीब 10 प्रतिशत वयस्क उच्च रक्त चाप से पीड़ित हैं। हृदयवाहिका यानी कार्डियोवस्कुलर रोगों में वृध्दि जारी है। भारत में अस्थानिक अरक्तता हृदय रोगों के कारण मृत्यु की संख्या 1990 में 12 लाख से बढ़कर वर्ष 2000 में 16 लाख तथा 2010 में 20 लाख होने का अनुमान है। जीवन के बेहद उत्पादक दौर में अपरिपक्व मातृ अस्वस्थता दर और मृत्यु दर भारतीय समाज और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है। अनुमान है कि वर्ष 2005 में भारत में हुई कुल मौतों (10,362,000) में एलसीडी का योगदान 5,466,000 (53 प्रतिशत) था। इस भयावह आंकड़े से शहर बहुत अधिक त्रस्त हैं। अगर उपचारात्मक उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में भी कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। विश्व बैंक का अनुमान है कि 2035 तक शहर दुनिया भर में गरीबी के प्रधान स्थल बन जाएंगे। शहरी गरीबों की स्वास्थ्य समस्याओं में हिंसा, जीर्ण रोग, और टीबी एवं एचआईवी#एड्स जैसे संक्रामक रोगों के लिए जोखिम में वृध्दि शामिल है। +संकट से निपटना. +भारत ने इस स्थिति पर ध्यान दिया है तथा स्थिति से निपटने के लिए ठोस शुरूआत की है। दस राज्यों के दस जिलों में (प्रत्येक में एक) मधुमेह, कार्डियो-वस्कुलर रोगों और आघात से बचाव एवं नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीसीडीएस) की प्रायोगिक परियोजना शुरू की गई है। ग्यारहवीं योजना में इसके लिए कुल योजना आबंटन 1620.5 करोड़ रुपए है। अन्य बातों के अलावा एनपीसीडीएस इस रोग के बारे में जल्दी पता लगाने की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए है। इस योजना के तहत पूरे देश को लाया जाएगा। स्वास्थ्य को प्रोत्साहन एनसीडी से बचाव और नियंत्रण का प्रमुख घटक है। इसमें समर्थक माहौल उपलब्ध कराने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप के साथ शैक्षिक गतिविधियां शामिल होनी चाहिए। यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि एनसीडी नियंत्रण के लिए स्वास्थ्य प्रोत्साहन सरल संदेश के साथ दिया जा सकता है अर्थात नमक एवं चीनी का कम इस्तेमाल, व्यायाम, तनाव से बचना, तंबाकू एवं अल्कोहल के सेवन से बचना तथा सब्जियों एवं फलों का इस्तेमाल बढ़ाना। इन आसान से उपायों से एनसीडी से बचाव किया जा सकता है या इसे ज्यादा देर तक टाला जा सकता है। +असंक्रामक रोगों के क्षेत्र में अनेक पहल की गई हैं अर्थात राष्ट्र्र्रीय बधिरता नियंत्रण कार्यक्रम, राष्ट्रीय वयोवृध्द स्वास्थ्य देखरेख कार्यक्रम, राष्ट्रीय मौखिक स्वास्थ्य कार्यक्रम। अनुमान है कि हमारी सड़कों पर रोजाना 275 व्यक्ति मरते हैं तथा 4,100 घायल होते हैं। इस तथ्य के मद्देनज़र, स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय राजमार्ग सुश्रुत देखरेख परियोजना शुरू की जो अपनी तरह की महत्त्वाकांक्षी परियोजना है तथा इसके तहत सम्पूर्ण स्वर्णिम चतुर्भुज तथा उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम गलियारों को शामिल करने का इरादा है तथा इन्हें 200 अस्पताल, अस्पताल-पूर्व देखरेख इकाई तथा एकीकृत संचार प्रणाली के साथ उन्नत किया जा रहा है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना बड़े पैमाने पर अछूती आबादी को स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में लाने की एक अन्य पहल है। +योजना ही कुंजी है. +विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, शहरीकरण सहज रूप में सकारात्मक या नकारात्मक नहीं होता है। निम्न घटक भी सामाजिक निर्धारकों के रूप में संदर्भित हैं- शहरी ठिकानों का अभिसरित होना जो स्वास्थ्य दशा और अन्य निष्कर्षों को बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। इन निर्धारकों में भौतिक बुनियादी ढांचा, सामाजिक एवं स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, स्थानीय शासन, और आमदनी एवं शैक्षिक अवसरों का वितरण शामिल हैं। एचआईवी#एड्स और टीबी जैसे संक्रामक रोग, हृदय रोग एवं मधुमेह, मानसिक विकार जैसे जीर्ण रोगों तथा हिंसा एवं सड़क यातायात दुर्घटनाओं के कारण हुई मृत्यु – सभी इन सामाजिक निर्धारकों से निर्देशित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शहरी केंद्रों में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के संबंध में बढ़ती असमानता पर चिंता प्रकट की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दृढ़ विश्वास है कि सक्रिय परिवहन, शारीरिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए निर्धारित क्षेत्रों में निवेश और तंबाकू पर नियंत्रण एवं खाद्य सुरक्षा के लिए कानून पारित करने के जरिए शहरी आयोजना स्वस्थ व्यवहारों एवं सुरक्षा को बढ़ावा दे सकती है। आवास, पानी एवं स्वच्छता के क्षेत्रों में शहरी जीवन दशाओं में सुधार करना स्वास्थ्य जोखिमों के उन्मूलन में बहुत मददगार होगा। ऐसे कार्यो के लिए अनिवार्य रूप से अतिरिक्त वित्त की ज़रूरत नहीं होगी लेकिन प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों के लिए संसाधनों को पुननिर्देशित करने की प्रतिबध्दता की ज़रूरत होगी, इस प्रकार ज्यादा कार्यदक्षता हासिल की जा सकेगी। +शहरीकरण हमारे समय की वास्तविकता है, हम इसे सकारात्मक मानकर अनुक्रिया करें या नकारात्मक मानकर यह पूरी तरह हमारे ऊपर निर्भर है। इस संदर्भ में शहरीकरण नीति संबंधी चुनौती भी है और महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत विकल्प भी। स्वस्थ आदतों को आत्मसात करके तथा तत्काल खपत के बजाय संसाधनों को लंबे समय तक कायम रखने के प्रति चिंतित होकर ही समाज इस वास्तविकता का सामना ज्यादा सार्थक ढंग से कर सकता है। (पसूका) + +नदियों में प्रदूषण: +पिछले कुछ वर्षों में औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण प्रमुख नदियों में प्रदूषण का बोझ बढ गया है। सिंचाई, पीने के लिए, बिजली तथा अन्य उद्देश्यों के लिए पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल से चुनौती काफी बढ गयी हैं। +प्रदूषण का स्रोत. +नदियां नगर निगमों के शोधित एवं अशोधित अपशिष्ट एवं औद्योगिक कचरे से प्रदूषित होती हैं। सभी बड़े एवं मझौले उद्योगों ने तरल अपशिष्ट शोधन संयंत्र लगा रखे हैं और वे सामान्यत: जैव रसायन ऑक्सीजन मांग (बीओडी) के निर्धारित मानकों का पालन करते हैं। हालांकि कई औद्योगिक क्षेत्र देश के कई हिस्सों में प्रदूषण को काफी बढा देते हैं। नगर निगम अपशिष्ट के मामले में ऐसा अनुमान है कि प्रथम श्रेणी शहर (423) और द्वितीय श्रेणी शहर (449) प्रति दिन 330000 लाख लीटर तरल अपशिष्ट उत्सर्जित करते हैं जबकि देश में प्रति दिन तरल अपशिष्ट शोधन की क्षमता महज 70000 लाख लीटर है। अपशिष्ट पदार्थों के शोधन का काम संबंधित नगर निगमों का होता है। जबतक ये निगम प्रशासन पूर्ण क्षमता तक अपशिष्टों का शोधन नहीं कर लेते तबतक डीओबी की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। +नदी संरक्षण केंद्र और राज्य सरकारों के सामूहिक प्रयास से लगातार चल रहा है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के तहत नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रदूषण घटाने संबंधी कार्य चलाए जा रहे हैं। एनआरसीपी के तहत 20 राज्यों में गंगा, यमुना, दामोदर, और स्वर्णरेखा समेत 37 नदियों के प्रदूषित खंडों पर ध्यान दिया जा रहा है। जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन जैसी अन्य केंद्रीय योजनाओं तथा राज्यों की शहरी अवसरंचना विकास योजना जैसी योजनाओं के तहत भी नदी संरक्षण गतिविधियां चल रही हैं। +नदी संरक्षण कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर भूमि अधिग्रहण की समस्या, सृजित परिसंपत्तियों के सही प्रबंधन नहीं हो पाने, अनियमित बिजली आपूर्ति, सीवरेज शोधन संयंत्रों के कम इस्तेमाल आदि का प्रतिकूल असर पड़ता है। +प्रदूषित खंड. +फिलहाल, 282 नदियों पर 1365 प्रदूषित खंड केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) के नजर में हैं। +सीपीसीबी ने वर्ष 2000 में पानी की गुणवत्ता संबंधी आंकड़े के आधार पर प्रदूषित खंड की सूची को अद्यतन किया था। 86 प्रदूषित जलाशयों खंडों की पहचान की गयी। उनमें से 71 नदियों, 15 झीलों और तालाबों से संबंधित हैं। बाद में सन् 2000 से 2006 तक के सात वर्षों के दौरान पानी की गुणवत्ता संबंधी आकंड़ों के आधार पर 178 प्रदूषित जलाशयों खंडों की पहचान की गयी जिनमें से 139 नदियों से , 33 झीलों, तालाबों आदि से तथा तीन छोटी नदियों एवं तीन नहरों से संबंधित हैं। +प्रदूषित खंड की पहचान के मापदंड. +प्रदूषित खंड वह क्षेत्र है जहां पानी की गुणवत्ता का वांछित स्तर बीओडी के अनुकूल नहीं होता। फिलहाल , जिन जलाशयों का बीओडी 6 मिलीग्राम1 से ज्यादा होता है उन्हें प्रदूषित जलाशय कहा जाता है। नदी के किसी भी हिस्से में पानी की उच्च गुणवत्ता संबंधी मांग को उसका निर्धारित सर्वश्रेष्ठ उपयोग समझा जाता है। हर निर्धारित सर्वश्रेष्ठ उपयोग के लिए गुणवत्ता संबंधी शर्त सीपीसीबी द्वारा तय किया गया है। +श्रेणी ए के तहत जल की गुणवत्ता बताती है कि बिना किसी शोधन के वह पेयजल स्रोत है जिसमें कीटाणुशोधन के बाद, घुल्य ऑक्सीजन छह मिलीग्राम1, बीओडी 2 मिलीग्राम1, या कुल कॉलिफॉर्म 50एमपीएन100 एमएल होना चाहिए। +श्रेणी बी का पानी केवल नहाने योग्य होता है। इस पानी में घुल्य ऑक्सीजन 5 मिलीग्राम1 या उससे अधिक होना चाहिए और बीओडी -3एमजी1 होना चाहिए। कॉलीफार्म 500 एमपीएन100(वांछनीय) होना चाहिए लेकिन यदि यह 2500एमपीएन100एमएल हो तो यह अधिकतम मान्य सीमा है। +श्रेणी सी का पानी पारंपरिक शोधन और कीटाणुशोधन के बाद पेयजल स्रोत है। घुल्य ऑक्सीजन 4 मिलीग्राम1 या उससे अधिक होना चाहिए तथा बीओडी 3 मिलीग्राम1 या उससे कम होना चाहिए तथा कॉलीफार्म 5000एमपीएन100 एमएल होना चाहिए। +श्रेणी डी और ई का पानीद्ग वन्यजीवों के लिए तथा सिंचाई के लिए होता है। घुल्य ऑक्सीजन 4 मिली ग्राम1 उससे अधिक होना चाहिए तथा 1.2एमजी1 पर मुक्त अमोनिया जंगली जीवों के प्रजनन एवं मात्स्यिकी के लिए अच्छा माना जाता है। 2250 एमएचओएससीयू बिजली संचालकता, सोडियम अवशोषण अनुपात 26 और उससे कम तथा बोरोन 2 एमजी1 वाले पानी का इस्तेमाल सिंचाई, औद्योगिक प्रशीतन और नियंत्रित अपशिष्ट निवारण के लिए किया जा सकता है। +एनआरसीपी एवं इसका कवरेज. +केंद्र प्रायोजित राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) की केंद्र सरकार राज्य सरकारें मिलकर चलाती हैं और दोनों मिलकर इसका खर्च वहन करते हैं। देश में एनआरसीपी के तहत 20 राज्यों के 166 शहरों में 37 प्रमुख नदियों के चिह्नित प्रदूषित खंडों में प्रदूषण कम करने का कार्य चल रहा है। एनआरसीपी के तहत इन परियोजनाओं के लिए 4391.83 करोड़ रूपए अनुमोदित किए गए हैं जबकि अबतक 3868.49 करोड़ रूपए व्यय किए जा चुके हैं। फिलहाल 1064 अनुमोदित परियोजनाओं में से 783 पूरी हो चुकी हैं तथा 4212.81 एमएलडी अनुमोदित क्षमता में से 3057.29 एमएलडी तक की सीवरेज क्षमता तैयार कर ली गयी है। इन आंकड़ों में गंगा कार्य योजना के तहत किए जा रहे कार्य शामिल हैं और नदी कार्य योजनाओं के तहत तैयार की गयी जीएपी-।.ए सीवरेज शोधन क्षमता इसमें शामिल नहीं हैं। +एनआरसीपी के उद्देश्य. +एनआरसीपी के तहत नदियों में पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रदूषण निम्नीकरण कार्य किए जाते हैं ताकि पानी स्नान के लायक हो। इनमें अपशिष्टों को नदी में बहने से रोकना और उसे शोधन के लिए भेजना, नदीतट पर खुले में शौच पर रोक लगाने के लिए सस्ते शौचालय की व्यवस्था करना, शवों की अंत्येष्टि के लिए बिजली शवदाह गृह या उन्नत किस्म के जलावन वाले शवदाह गृह की व्यवस्था करना, स्नान के लिए घाटों में सुधार जैसे सौंदर्यीकरण कार्य करना तथा लोगों के बीच प्रदूषण के प्रति जागरूकता फैलाना शामिल है। +एनआरसीपी के तहत धन की व्यवस्था. +नदी स्वच्छता कार्यक्रम के लिए धन जुटाने की व्यवस्था में पिछले कई वर्षों के दौरान कई बदलाव हुए हैं। गंगा कार्य योजना (जीएपी), जो 1985 में शुरू हुई थी, शत प्रतिशत केंद्र पोषित योजना थी। जीएपी के दूसरे चरण में 1993 में आधी राशि केद्र सरकार और आधी राशि संबंधित राज्य सरकारों द्वारा जुटाए जाने की व्यवस्था की गई। एक अप्रैल, 1997 में यह व्यवस्था फिर बदल दी गयी और शत प्रतिशत धन केंद्र की मुहैया कराने लगा। एक अप्रैल, 2001 से केंद्र द्वारा 70 प्रतिशत राशि और राज्य द्वारा 30 प्रतिशत राशि जुटाने की व्यवस्था लागू हो गयी। इस 30 प्रतिशत राशि का एक तिहाई पब्लिक या स्थानीय निकाय के शेयर से जुटाया जाना था। +ग्यारहवीं योजना में एनआरसीपी के तहत कार्यों के लिए 2100 करोड़ रूपए दिए गए जबकि अनुमानित आवश्यकता 8303 करोड़ रूपए की थी और यह अनुमान योजना आयोग द्वारा नदियों के मुद्दे पर गठित कार्यबल की रिपोर्ट में जारी किया गया था। एनआरसीपी के तहत वित्तीय वर्ष 2007-08 के दौरान 251.83 करोड़ रूपए तथा 2008-09 के दौरान 276 करोड़ रूपए व्यय किए गए। +कार्यान्वयन में समस्याएं. +यह देखा गया कि सीवरेज शोधन संयंत्रों जैसी परिसंपत्तियों के निर्माण के बाद राज्य सरकारों स्थानीय शहरी निकायों ने उनके प्रबंधन एवं रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया। प्रबंधन एवं रखरखाव के लिए बिजली की आपूर्ति नहीं करने, इन परिसंपत्तियों के प्रबंधन एवं रखरखाव के लिए उपयुक्त कौशल एवं क्षमता के अभाव जैसे कई मामले सामने आए हैं। नदी तटों पर लगातार बढती ज़नसंख्या और औद्योगिकीकरण तथा फिर उस जनसंख्या के हिसाब से प्रदूषण निम्नीकरण कार्य शुरू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते हमेशा ही प्रदूषण निम्नीकरण कार्यों में पिछला कुछ कार्य बच जाता है। +नदी कार्य योजना की आंशिक सफलताएं. +एसटीपी के माध्यम से नब्दिन्यों के प्रदूषण रोकने की सीमित पहल की गयी है। राज्य सरकारें अपनी क्रियान्वयन एजेंसियों के माध्यम से प्रदूषण निम्नीकरण कार्य करती है। लेकिन इस कार्य को उचित प्राथमिकता नहीं दी जाती है। परिसंपत्तियों के प्रबंधन एवं रखरखाव पक्ष की अक्सर उपेक्षा होती है। दूसरा कारण यह है कि कई एसटीपी में बीओडी और एसएस के अलावा कॉलीफार्म के नियंत्रण के लिए सीवरेज प्रबंधन नहीं किया जाता है। सिंचाई, पीने के लिए, तथा बिजली के लिए भी राज्यों द्वारा पानी का दोहन नियंत्रित ढंग से नहीं किया जाता है। पानी के दोहन जैसे मुद्दों पर अंतर-मंत्रालीय समन्वय का भी अभाव है। अबतक नदियों का संरक्षण कार्य घरेलू तरल अपशिष्ट की वजह से होने वाले प्रदूषण के रोकथाम तक ही सीमित है। जलीय जीवन की देखभाल, मृदा अपरदन के रोकथाम आदि के माध्यम से नदियों की पारिस्थितिकी में सुधार आदि कार्यों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।अयिए आज हम साब यह प्रन ले कि हम नदियोन को प्रदुशित होने से बचाएन्गे। + +मौद्रिक नीति और मुद्रास्फीति: + +पूर्वानुमान सेवाओं में सुधार: +मौसम , जलवायु और सामाजिक हितों से जुड़ी सेवाओं के लिए जोखिमों के पूर्वानुमान के महत्‍व को स्‍वीकारते हुए पृथ्‍वी विज्ञान मंत्रालय ने पृथ्‍वी प्रणाली (वायुमंडल, हाइड्रोस्फेयर, क्रायोस्‍फेयर, जियोस्‍फेयर और बायोस्‍फेयर) के प्रति समझ में सुधार की दिशा में एक समन्‍वित तरीके से अपनी गतिविधियों पर जोर दिया है। विभिन्‍न घटकों के अध्‍ययन का उद्देश्‍य उनके बीच अंतक्रियाओं को बेहतर ढंग से समझना है, जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं और मानवोत्‍पत्‍ति संबंधी गतिविधियों द्वारा प्रभावित हो और जिनसे पूर्वानुमान सेवाओं में सुधार हो। पृथ्‍वी प्रणाली विज्ञान संगठन एक मिशन के रूप में काम करता है , जहां पिछले एक वर्ष के दौरान महत्‍वपूर्ण उपलब्‍धियां प्राप्‍त हुई हैं +मौसम की भविष्‍यवाणी और सेवाएं. +सांख्‍यिकी मौसम भविष्‍यवाणी के प्रारूपों के इस्‍तेमाल से लघुकालिक (तीन दिनों तक) और मध्‍यकालिक (पाँच से सात दिनों तक) पूर्वानुमान किया जाता है। वर्ष के दौरान टी 382 एल 64 प्रारूप पर आधारित एक नई और अत्‍यधिक स्‍पष्‍ट जीएफएस (भूमंडल पूर्वानुमान प्रणाली) और विकिरण मापन सहित इसके सहायक आंकड़ा मापन प्रणाली का काम शुरू हो गया है। इसके बल पर 35 किलोमीटर दूरी तक की विश्लेषण प्रणाली में सुधार हुआ। इसके अलावा कटिबंधीय दबावों, बिजली और गरज के साथ आंधी जैसी मौसम प्रणालियों के पुर्वानुमान के लिए एक मेसो-स्केल मॉडल (27 किलोमीटर) डब्‍ल्‍यू आरएफ मॉडल पूर्वानुमान प्रणाली तैयार की गई। गंभीरतापूर्वक मौसम के विशेष अध्‍ययन के लिए बहुत स्‍पष्‍ट विश्‍लेषण पर आधारित डब्‍ल्‍यू आरएफ प्रणाली स्‍थापित की गई है। इसकी शुद्धता लगभग 70-75 प्रतिशत है। एक प्रायोगिक आधार पर 4 डी वीएआर के इस्‍तेमाल से एक वैश्‍विक प्रारूप मापन प्रणाली स्‍थापित की जा रही है। इसके आधारभूत पूर्वानुमान मानकों में वर्षा, वायु की गति, वायु की दिशा,आर्द्रता और तापमान शामिल हैं। इस वर्ष पूर्वानुमान प्रणालियों को आपस में जोड़कर एक महत्‍वपूर्ण प्रणाली तैयार करना एक बड़ी उपलब्‍धि रही है। इसके अंतर्गत विभिन्‍न उपकरणों और पर्यवेक्षण प्रणालियों को आपस में जोड़कर एक सेंट्रल डाटा प्रोसेसिंग प्रणाली के साथ जोड़ दिया गया। इसके बल पर देशभर में सभी पूर्वानुमान कर्मियों को सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित एक अत्‍याधुनिक पूर्वानुमान प्रणाली उपलब्‍ध हुई। इसमें सभी पर्यवेक्षणों को एक साथ जोड़ना और समुचित विश्‍लेषण के बाद लोगों के लिए मौसम पूर्वानुमान प्रसारित करना शामिल है। भूस्‍खलन , मौलिक पूर्वानुमान , प्रबलता आदिऐसे मानक हैं जिनके आधार पर 24 से 36 घंटे पूर्व चक्रवात के बारे में अनुमान जारी किया जाता है। +कृषि आधारित मौसम विज्ञान सेवाएं. +देश की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्‍या कृषि पर निर्भर है, इसलिए मौसम आधारित कृषि से जुड़े सुझाव काफी महत्‍वपूर्ण हैं। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए कृषि आधारित मौसम विज्ञान की 130 क्षेत्रीय इकाइयों के लिए 35 किलोमीटर एमएमई प्रणाली के आधार पर नियमित रूप से वर्षा , अधिकतम और न्‍यूनतम तापमान, बादल वाले कुल्‍क्षेत्र , भूतल पर आपेक्षिक आर्द्रता और वायु का लघुकालिक पूर्वानुमान जारी किया जाता है। इसके माध्‍यम से फसल बोने, उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई करने और फसल कटाई के लिए उपयुक्‍त समय पर जानकारी दी जाती है। किसानों के वास्‍ते 575 से भी अधिक जिलों के लिए सप्‍ताह में दो बार बुलेटिन जारी किए जाते हैं। राज्‍य और राष्‍ट्रीय स्तर पर ऐसे बुलेटिन के बल पर नीति संबंधी निर्णय भी लिए जाते हैं। ऐसे सुझाव पत्र पत्रिकाओं, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया और बहुभाषा वेब पोर्टलों के माध्‍यम से प्रचारित किए जाते हैं। मोबाइल फोन के माध्‍यम से स्‍थान आधारित सेवाओं का विकास होना काफी सफल रहा है, फिलहाल 12 लाख किसानों ने इस सेवा की मांग की है। +विमानन सेवाएं धुंध पूर्वानुमान. +जाड़े के दिनों में धुंध से विमानन सेवाएं काफी प्रभावित होती हैं। कुहासे की तीव्रता और अवधि की निगरानी , उसका अनुमान और प्रसार काफी महत्‍वपूर्ण है। सभी हवाई पट्टियों के बारे में हवाई पट्टी दृश्‍यता रिकार्डरों के माध्‍यम से दृश्‍यता संबंधी स्‍थितियों के बारे में जानकारी मिलती है। मौसम विज्ञान (9 से 30 घंटे के पूर्वानुमान ) प्रत्‍येक 30 मिनट पर रिपोर्ट आती है। कुहासे के बारे में अगले 6 घंटे के लिए और 12 घंटे के परिदृश्‍य के बारे में जानकारी दी जाती है। अगले दो घंटे के लिए पूर्वानुमानों के लक्षण प्राप्‍त करने की जानकारी वेबसाइटों , एसएमएस , आईवीआरएस, फोन, फैक्‍स आदि के माध्‍यम से भी उपलब्‍ध कराई जाती है। वर्ष 2009-10 के दिसम्‍बर और जनवरी माहों के लिए पुर्वानुमान की शुद्धता छूट है क्रमश: 94 प्रतिशत और 86 प्रतिशत रही, जो वर्ष 2008-09 के दिसम्‍बर और जनवरी माहों की क्रमश: 74 प्रतिशत और 58 प्रतिशत शुद्धता की तुलना में काफी अधिक है। +पर्यावरण आधारित सेवा इलाहाबाद , जोधपुर, कोडइकनाल, मिनीकॉय, मोहनबाड़ी, नागपुर, पोर्ट ब्‍लेयर, पुणे श्रीनगर और विशाखापट्टनम में वायु प्रदूषण निगरानी केन्‍द्रों का एक नेटवर्क स्‍थापित किया गया है। यहां से वर्षा जल के नमूने लेकर उनका रासायनिक विश्‍लेषण किया जाता है और वायुमंडल के घटकों में दीर्घकालिक बदलावों का रिकार्ड तैयार करने के लिए वायुमंडलीय गंदलेपन का मापन किया जाता है। थर्मल पावर केन्‍द्रों , उद्योगों और खनन गतिविधियों से उत्‍पन्‍न वायु प्रदूषण के संभावित कुप्रभावों के मूल्‍यांकन से संबंधित विशेष सेवाएं भी प्रदान की जाती हैं विभिन्‍न्‍जलवायु और भौगोलिक स्‍थितियों में बहुविध स्रोतों का वायु की गुणवत्‍ता पर पड़ने वाले प्रभावों के लिए वायुमंडलीय विस्‍तार प्रणाली विकसित की गई है और इनका इस्‍तेमाल उद्योगों के लिए स्‍थानों का चयन करने तथा वायु प्रदूषण नियंत्रण संबंधी रणनीतियों को लागू करने में किया जाता है। एडब्‍ल्‍यूएस, डीडब्‍ल्‍यूआर आयोग और अन्‍य पर्यवेक्षण प्रणालियों के माध्‍यम से राष्‍ट्रमंडल खेल 2010 के लिए मौसम और वायु गुणवत्‍ता पूर्वानुमान का काम पूरा किया गया है। +मछुआरों को चेतावनी लगभग 70 लाख लोग भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों में रहते हैं। भारत का समुद्रतट लगभग 7500 किलोमीटर लंबा है। मछली पकड़ना इन लोगों की आजीविका का साधन है। मछली उत्‍पादन का केवल 15 प्रतिशत भाग जलाशयों द्वारा हो पाता है। मछलियों का पता लगाना और उसे पकड़ना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, क्‍योंकि मछलियों का समूह समुद्रतट से दूर स्‍थान बदलता रहता है और उसे ढूंढने में अधिक समय , धन तथा प्रयास की जरूरत होती है। मछलियों की अधिकता वाले संभावित क्षेत्रों के बारे में समय पर पूर्वानुमान प्राप्‍त हो जाने से मछलियों की खेाज में लगने वाले समय और प्रयासों में कमी लाने में मदद मिलती है, जो मछुआरा समुदाय के सामाजिक-आर्थिक हित के अनुकूल है। मछलियों को समुद्री जल के तापमान, लवणता, रंग, दृश्‍यता, जल में ऑक्‍सीजन की मात्रा आदि के रूप में जहां अनुकूल स्‍थितियां प्रतीत होती हैं, वे अपने आसपास के पर्यावरण के उस जलीय भाग की ओर शीघ्र ही चली जाती हैं। उपग्रह से प्राप्‍त चित्रों के आधार पर समुद्रतल के तापमान के बारे में आसानी से पता चलता है, जो पर्यावरण का एक मानक संकेतक है। समुद्री हिस्‍से में उनके लिए खाने की चीजों की उपलब्‍धता पर भी उनका आगमन, पर्याप्‍तता और प्रवास निर्भर करता है। क्‍लोरोफिल-ए एक ऐसा संकेतक है जो मछलियों के लिए आहार की उपलब्‍धता का सूचक है। ये पूर्वानुमान नियमित रूप से एक सप्‍ताह में तीन बार जारी किए जाते हैं और महासागरीय स्‍थितियों के पूर्वानुमान के साथ तीन दिनों की अवधि के लिए मान्‍य हैं। ये चेतावनियां नौ स्‍थानीय भाषाओं और अंग्रेजी में वेब ई-मेल, फैक्‍स, रेडियो और टेलीविजन के साथ ही इलेक्‍ट्रॉनिक डिस्‍प्‍ले बोर्डों और इनफॉर्मेशन किओस्‍कों के माध्‍यम से दी जाती हैं। एक अनुमान के अनुसार लगभग 40,000 मछुआरे इन चेतावनियों से लाभान्‍वित होते हैं। इसके बल पर काफी ईंधन और समय (60-70 प्रतिशत) की बचत होती है और वे प्रभावकारी तरीके से मछली पकड़ पाते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि इस दिशा में सफलता की दर 80 प्रतिशत के आसपास है। +महासागरीय स्‍थिति का पूर्वानुमान. +सांख्‍यिक प्रारूपों के इस्‍तेमाल से हिन्‍द महासागर के लिए यथासमय पूर्वानुमान तैयार करने का प्रयास प्रारंभिक चरण में है। फरवरी 2010 में शुरू की गई हिन्‍द महासागर पूर्वानुमान प्रणाली (इंडोफोस) में महासागरीय लहरों की ऊँचाई, लहर की दिशा, समुद्री सतह का तापमान, सतह की धारायें, मिश्रित तल की गहराई और 20 डिग्री सेल्‍सियस समताप की गहराई के बारे में अगले पाँच दिनों के लिए छ: घंटे के अंतराल पर पूर्वानुमान जारी करना शामिल है। इंडोफेस के लाभार्थियों में पारंपरिक और प्रणालीबद्ध मछुआरे, समुद्री बोर्ड, भारतीय नौसेना, तटरक्षक नौवहन कंपनियां और पेट्रोलियम उद्योग, ऊर्जा उद्योग तथा शैक्षिक संस्‍थान शामिल हैं। गुजरात, महाराष्‍ट्र, कर्नाटक और पुडुचेरी के लिए लहरों के पूर्वानुमान हेतु स्‍थान विशेष पर आधारित प्रारूप स्‍थापित किए गए हैं और बंदरगाह प्राधिकरणों द्वारा इनका व्‍यापक इस्‍तेमाल किया जाता है। +खनन प्रौद्योगिकी. +भारत महासागरीय खनिज संसाधनों के देाहन के प्रति इच्‍छुक रहा है। इसके लिए तीन उपकरणों- तत्‍काल मृदा जांच उपकरण, दूर से संचालन-योग्‍य वाहन (आरओवी) और गहरे समुद्र में रेंगनेवाली प्रणाली विकसित करने की जरूरत होती है। समुद्र के नीचे मिट्टी के गुणों की जांच के लिए उपकरण और आरओवी का 5300 मीटर की गहराई में अप्रैल 2010 में सफल परीक्षण किया गया। इस उपकरण के लिए पूरा-का-पूरा हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर तथा नियंत्रण प्रणाली अपने देश में ही विकसित की गई। तट के पास नेाड्यूल इकट्ठा करने वाले क्रॉलर का भी 450 मीटर की गहराई में परीक्षण किया गया है। समुद्र में 3000 मीटर की गहराई तक 100 मीटर क्रोड़ संग्रह की क्षमता वाली एक कोरिंग प्रणाली विकसित की गई है। इन्‍हें दर्शाए जाने की प्रक्रिया चल रही है। गैस हाइड्रेट के दोहन के लिए प्रौद्योगिकी विकास के एक हिस्‍से के रूप में यह उपकरण विकसित किया जा रहा है। +हैचरी प्रौद्योगिकी. +वाणिज्‍यिक दृष्‍टि से महत्‍वपूर्ण प्रजातियों के लिए हैचरी प्रौद्योगिकी का विकास करना मछुआरों को एक वैकल्‍पिक रोजगार प्रदान करने के लिए एक प्रमुख क्षेत्र है। अंडमान स्‍थित हैचरी में काला मोती तैयार किया जाता है। समुद्री सजावटी मछलियों का उत्‍पादन करने के लिए प्रौद्योगिकी विकसित करने का काम पूरा किया गया है और क्‍लॉन मछलियों की आठ प्रजातियों और दमसेल मछलियों की दस प्रजातियों का इसके लिए चयन किया गया है। गैस्‍ट्रोपॉडों को चार प्रजातियों के उत्पादन, लार्वा विकास और मछलियों के बच्‍चों को सामूहिक तौर पर पालन करने की तकनीक को मजबूत किया गया है। यह प्रौद्योगिकी स्‍थानीय मछुआरों को उपलब्‍ध करायी गई है। +जलवायु में बदलाव और परिवर्तन +इस कार्यक्रम के माध्‍यम से स्‍वास्‍थ्‍य, कृषि और जल जैसे क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव सहित जलवायु परिवर्तन से संबंधित अनेक वैज्ञानिक समस्‍याओं का हल किया जाता है। भारतीय क्ष्‍ेात्र के लिए विशेष रूप से संबंधित और वैश्‍विक प्रभाव वाले जलवायु परिवर्तन के लक्षित वैज्ञानिक पहलुओं की खोज करने और उनके मूल्‍यांकन के प्रयास के क्रम में जलवायु प्रारूप और गतिविज्ञान, भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय पहलुओं की जानकारी के लिए उपकरणों और जलवायु संबंधी रिकार्डों का इस्‍तेमाल, जलवायु संबंधी लघुकालिक और दीर्घकालिक निदान और पूर्वानुमान आदि कुछ ऐसे प्रमुख कार्यक्रम हैं, जिन पर काम शुरू किया गया है। +ध्रुवीय विज्ञान. +नवम्‍बर 2010 में आठ-सदस्‍यों वाले एक दल ने दक्षिणी ध्रुव तक पहले वैज्ञानिक अभियान में सफलता प्राप्‍त की। इस दल ने अभियान के दौरान कुल 4680 मिलोमीटर की दूरी तय की। इस दौरान वैज्ञानिकों ने बर्फ के नीचे ढ़की चट्टानों के अध्‍ययन के लिए विशेष राडार का इस्‍तेमाल किया। बर्फ के रासायनिक गुणों के अध्‍ययन के लिए बर्फ के क्रोड़ संग्रह किए तथा ग्‍लेशियरों में भूस्‍खलन की घटनाओं का अध्‍ययन किया। + +प्रौद्योगिकी तथा स्वरोजगार: + +भारत को विकसित बनने के लिए अपरिहार्य शर्तें: +यह करना ही पड़ेगा और और यह संभव भी है - तो इस दिशा कदम बढ़ने में बाधक कौन है??? +१-कांग्रेस को जड़ से ख़तम करके दुबारा सत्ता में लौटने की सभी सम्भावनाये समाप्त करना होगा। +२-विदेशी कंपनियों का भारत में आयात शुन्य करके इनके उत्पादों की खरीद का बहिष्कार करके भारत की कंपनियों का उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ाना होगा और उन्हें निर्यात की तरफ ले जाकर विदेशी मुद्रा कमाना होगा। +३-स्वदेशी कंपनियों की बाढ़ लाकर देश के जनता के लिए उत्पाद बनाकर और उसकी खपत बढाकर भारत में सभी को रोजगार सुनिश्चित करना होगा। +४-सरकारी नौकरी वेतन की गारंटी न होकर सेवा गारंटी का विभाग बनाना होगा उसके लिए सरकारी नियंत्रण से मुक्त "एक भ्रष्टाचार रोधी" संस्था का विशाल ढांचा बनाना बहुत जरुरी है। +५-उर्जा के लिए परमाणु ऊर्जा के बजाय सौर्य उर्जा को खुली छुट देकर हर घर में बिजली दिया जाय और यह २ साल में किया जा सकता है। +६-कालाधन को राष्ट्रीय संपती घोषित करके उसे विदेशो से वापस लाया जाना सुनिश्चित किया जाये . +७-ऐसे कर प्रणाली बनाई जाये की लोग कर बचाने केलिए कालाधन पैदा ही ना करे. +८-देश की विकास धन की लुट करने वालो के लिए आजीवन कारावास और ज्यादा से ज्यादा मौत की सजा दी जाये. +९-ऐसा माहौल बनाया जाये की सरकारी अधिकारी कर्मचारी जनता के सेवक लगे न की जनता के साहब बने इसके लिए "जनसेवा जबाबदेही बिल" को कड़ाई से लागु किया जाये. जिम्मेदारी विभागागीय न होकर वैयक्तिक हो। +१०-विश्व के देशी से किये गए नुकसान वाले समझौतों को तोड़कर अपने हिसाब से देश को आगे बढ़ाना होगा। +११-विदेशी कर्ज जो की २८०००/- प्रति व्यक्ति है, को तत्काल कालेधन से, भूसंपदा के दोहन से समाप्त करके दुबारा कर्ज लिया ही न जाये. +१२-शिक्षा प्रणाली में देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम के पाठ कक्षा १ से १२ तक अनिवार्य कर दिए जाये और हमारे आदर्श के रूप में उनको पेश किया जाये जो की चरित्र +से बहुत महान थे न की जवाहर लाल नेहरू जैसे को। शिक्षा भारत की भाषा में दिया जाये . +१३-लोगो की धर्म के साथ आस्था को मजबूत किया जाये और सभी लोगो को खुलकर धार्मिक और राष्ट्र अनुष्ठानो में खुलकर भाग लेना चाहिए। नैतिक शिक्षा और हमारे पूर्वज, योग , प्राणायाम, व्यायाम आदि हमारे शिक्षा का हिस्सा हो। +१४-इतिहास की सच्चाई को सबके सामने रखा जाये जिससे लोगो को प्रेरणा मिले। +१५-वेश्यावृत्ति, शराब बनाना/बेचना, गौ हत्या पर कड़ाई से तत्काल प्रतिबन्ध लगाकर समाज को बुराई से दूर रखकर चरित्रवान बनाया जाये. +१६-खेती में जहर का प्रयोग बंदकरके सबको अच्छा स्वास्थ्य मुहैया कराया जाये. और आयुर्वेदिक, यूनानी और अन्य पुराणी सस्ती स्वस्थ्य पद्धतियों को फिर से जोरदार धन से फैलाया जाये. +१७- भारत की सम्पूर्ण भूसंपदा की दोहन स्वयं भारतीय लोग करे और बहुत राजस्व पैदा करे और जंगल / नदी/पर्यावरण/पहाड़ आदि का पूरा ध्यान रखा जाये और वनक्षेत्र को उतना रखा जाये जितना यह अंग्रेजो के आने से पहले था। +१८-राजनीति में चरित्रवान लोगो का पदार्पण हो चाहे वह बहुत ही गरीब क्यों नहो, परन्तु पढ़े लिखे और दूरदर्शी हो। +१९-बड़े नोटों १०००/५००/१०० को बंद करा दिया जाये और बैंको की प्रभावी प्रणाली बनाकर कर ट्रांजक्शन टैक्स लगाया जाये. +२०-मिडिया को भारत प्रेमी बनाकर अच्छी बातो के प्रचार में लगा चीनी ऐप्स का बहिष्कार करें और सबसे अच्छे भारतीय ऐप बनाएं जो कर सकते हैं हमें अपने भारत को अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बनाना होगा हमें भारतीय चीजों को बनाना होगा। उदाहरण के लिए, भारतीय स्मार्टफोन,भारतीय ब्रांड, भारतीय ऐप, कपड़े, भारतीय कंपनियां आदि। धन्यवाद। + +बाल मनोविज्ञान: +विपत्ति आने पर ही हम अपने धैर्य की, धर्म की, मित्र की और पत्नि की परख कर पाते हैं। हमारा संपूर्ण जीवन अपने परिस्थितियों के साथ क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए बीतता है। हमारे अंदर बीज रूप में विद्यमान गुण अनुकूल परिस्थितियां पाकर अंकुरित होते हैं और धीरे धीरे बढ़ कर पूर्ण छायादार वृक्ष बन जाते हैं। अगर हम अपनी आंतरिक शक्तियों का सदुपयोग करें तो हमारा जीवन कुंदन के समान निखर जाता है। और यदि हमनें अपने गुणों को नकारात्मक वृत्तियों से हार जाने दिया तो समझ लीजिए हम अपनी पहचान खो देते हैं। +हमारी पहचान. +संस्कृत में धर्म शब्द का प्रयोग पहचान अर्थ में भी होता है। जैसे हम कहते हैं आग का धर्म है – गर्मी देना, प्रकाश देना और गति देना। अग्नि में रोशनी भी है, गर्माहट भी और वह भाप से रेल का इंजन और पानी के बड़े-बड़े जहाज़ भी चला सकती है। प्रत्येक वस्तु के अनेक गुण और धर्म होते हैं। मनुस्मृति में मनु महाराज ने मनुष्य का धर्म बताते हुए लिखा – +अर्थात धैर्य, दूसरो को क्षमा करना, अपने मन पर, विचारो पर, नियंत्रण होना, चोरी की भावना का न होना, शारीरिक और मानसिक पवित्रता, इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण, अच्छी बुद्धि, सद्विद्या का ग्रहण करना, सत्य के मार्ग पर चलना और क्रोध न करना – यही मनुष्यता के दस लक्षण हैं। इन गुणों को अपनाकर हम सच्चे अर्थों में मनुष्य बनते हैं। यही वेद का आदेश है। मनुर्भव – मनुष्य बनो। +वेदो का कहना है कि ईश्वर में बीज रूप में सभी गुण मनुष्य को दिए हैं। हमें केवल इन गुणों को अभ्यास के द्वारा पूर्ण रूप से विकसित करना है। +हमारा कार्यक्षेत्र. +हमने अध्यापन कार्य अपनाया है। यह हमारी योग्यता और इच्छा के अनुकूल भी है। पर यहां पग पग पर हमारे धैर्य की परीक्षा होती है। कक्षा में 40 छोटे छोटे बालक बालिकाएं हमारे सामने हैं। हम उनका मार्ग दर्शन कर रहे हैं और वे भी बीज रूप में अपनी शक्तियों के साथ हमारे सामने हैं। हमें माली के समान उनकी शक्तियों, योग्यताओं को पूर्ण रूप से पल्लवित, पुष्पित होने का अवसर देना है। यह एक चुनौती है। +मार्गदर्शन का आधार. +1. हमें चाहिए कि हम बच्चो को सभी संभावनाओं से पूर्ण मानें। हम समझें कि सभी बालक-बालिकाओं में कुछ बनने की योग्यता है। कोई न कोई विशेष गुण है। वह अपनी इन योग्यताओं का विकास चाहते हैं। हम उन्हे विकसित होने का पूर्ण वातावरण प्रदान करें और उनके गुणों की प्रशंसा करें। +2. अच्छे कुशल माली के समान – उन्हें स्वस्थ पोषण दें। माली पौधे को खाद पानी देता है। खर पतवार को पास उगने नहीं देता। धूप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से बचाता है। यदि डालियां इधर-उधर बढ़ रही हैं तो सुंदर रूप देने के लिए काट छांट भी करता है। हम भी विद्यार्थियों को स्वस्थ साहित्य पढ़ने को दें, बुराई से बचाएं, गंदे व्यवहार की निंदा करते हुए उन्हें उनसे दूर रखें। आप कहेंगे कि पेड़ तो जड़ पदार्थ है – काटनें छांटने पर विरोध नही करता। और यह नन्हे-मुन्ने तो पूरे आफत का पिटारा होते हैं उन्हें कैसे समझाएं। उत्तर है बच्चों का मनोविज्ञान समझें। +3. हम बच्चों का मनोविज्ञान समझें और अपना भी। इस बात को पूरी तरह समझ लें कि जैसे तेज़ रफ्तार से बहती नदी के प्रवाह को रोका नहीं जा सकता – उसे केवल थोड़ा सा मोड़ दे सकते हैं। जैसे मनोविज्ञान में हम पढ़ते थे – +YOU CANNOT CHECK THE EMOTIONS, YOU CAN ONLY SUBLIMATE IT... +हम बच्चों की भावनाओं को रोक नही सकते केवल दिशा दे सकते हैं। जैसे कोई बच्चा शैतानी कर रहा है या रो रहा है तो हम केवल डांट कर चुप नही करा सकते – उसे कोई काम दे दें ताकि उसका ध्यान उस शैतानी से हट जाए। कोई नई कहानी सुना कर, नई चीज़े दिखा कर परिस्थितियों को आकर्षक बना सकते हैं। +4. प्रेरक बनें - अध्यापक का कार्य बच्चों को किसी विषय से संबंधित सूचनाओं का ख़ज़ाना नहीं बनाना है। हमें तो उसका व्यक्तित्व उभारना है। जैसे हम कहते हैं कि सूर्य हमारा प्रेरक है। एक बीज में वृक्ष बनने की योग्यता है, कलि में फूल बनने की योग्यता है, सूर्य अपनी किरणों से उन्हें विकसित होने की प्रेरणा देता है। इसीलिए सूर्य का नाम सविता है। हम अध्यापक भी इन बच्चो को खिलने का अवसर प्रदान करें। ये ऐमेटी के फूल भी हैं, माता-पिता के फूल भी हैं और भारत माता की बगिया के फूल भी हैं। उनकी योग्यता का विस्तार हो सके इसके लिए उन्हें उपयुक्त वातावरण प्रदान करें। उन्हें मानवीय गुणों को अपनाने के लिए भी प्रेरित करें। केवल विषय से संबंधित सूचनाओं का पिटारा न बना दें। अन्यथा ज्ञान प्राप्त करके वे स्वार्थी भी बन सकते हैं। उन्हें सर्वभूत हिते रता: की भावना से काम करने की प्रेरणा दें। +5. विद्यार्थियों को स्वयं उनके अंदर छिपी शक्तियों को पहचानने के योग्य बनाएं। यह ज़रूरी नहीं है कि पढ़ लिखकर सभी डॉक्टर या इंजीनियर ही बनें – वे खिलाड़ी भी बन सकते हैं और व्यापारी भी। वे गायक भी बन सकते हैं या चित्रकार भी। नेता, अभिनेता, सैनिक, आई ए एस – कुछ भी बनना चाहें बन सकते हैं। +6. कर्म के प्रति निष्ठा – हम अपने कार्य को पूरी निष्ठा के साथ करें। कर्म ही धर्म है – इस भावना से करें। कुछ और बनना चाहते थे या करना चाहते थे – नहीं कर पाए – इसीलिए अध्यापन कार्य शुरू कर दिया और बेमन से पढ़ाने लगें – ऐसा न करें। ऐसा करने से हमारा असंतोष, हमारे व्यवहार में झलकेगा। +7. नवीनता और तैयारी – कक्षा में जाने से पूर्व हमेशा तैयारी के साथ जाएं। कुछ नए विचार साथ लेकर जाएं। नवीनता के लिए कभी आप पाठ स्वयं पढ़ कर सुनाना आरंभ करें तो कभी विद्यार्थियों से पढ़ने के लिए कहें। तो कभी बच्चों को उस विषय से संबंधित कुछ और जानकारी दें या किसी कविता की कुछ पंक्तियां सुना कर आप पाठ आरंभ कर सकते हैं। जैसे भोजन में नित्य नवीनता भोजन को नित्य अधिक आकर्षक और स्वादिष्ट बना देती है – एक सा खाना नीरस लगने लगता है ऐसे ही पढ़ाने का एक ही ढंग – बच्चो को विषय से विमुख कर सकता है। +8. बच्चो की भागीदारी – बच्चो के ज्ञान में कुछ और जोड़ने के लिए उसमें उनकी भागीदारी भी होना ज़रूरी है। वो केवल श्रोता बनकर बेमन से सुनते न रहें। वे भी सीखने में पूरे हिस्सेदार बनें। उन्हे पाठ में सक्रिय बनाईए। उन्हें जितना आता है उसे पहले वे स्पष्ट करें फिर उसके आगे आप बताईए। तब सुननें में उनका ज्यादा ध्यान लगेगा। अन्यथा वो अनमने ढंग से सुनेंगे। कभी कभी पाठ का अभिनय भी करा सकते हैं। +9. अपने व्यवहार को आदर्श बनाएं – बच्चे अपने बढ़ो का अनुकरण आरंभ से ही करने लगते हैं। बहुत सी शिक्षा इस अनुकरण प्रणाली से ही हम उन्हें दे सकते हैं। हम स्वयं सत्य का पालन करें – सब बच्चों को समान दृष्टि से देखें, निश्छल व्यवहार करें व समय का पालन करें – तो यह गुण बच्चों में स्वत: आ जाएंगे। वे भी समय पर अपना कार्य पूर्ण कर के दिखाएंगे व सबके साथ मित्रवत व्यवहार करेंगे। +10. बच्चों के माता पिता से भी संपर्क रखें – बच्चो की समस्याओं को समझने व सुलझाने में उनकी मदद करें। अध्यापक केवल अध्यापक नही मित्र भी होता है। जैसा कि शतपथ ब्राह्णण का वचन है – मातृमान् पित्रमान् आचार्यवान पुरुषो वेद । अर्थात माता-पिता और आचार्य मिलकर बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं – उनका मार्गदर्शन करके उन्हें सही अर्थों में मनुष्य बनाते हैं। हम अपनी ज़िम्मेदारी समझें। काम को केवल मशीन की ही तरह पूरा न करें, उसमें मानवीय सहृदयता का पुट रखें तो अवश्य ही विद्यार्थी का संतुलित विकास हो सकेगा। +11. स्वाध्याय – हम अपने को प्रज्वलित दीप के समान बनाए रखें। प्रतिदिन होने वाले परिवर्तनों से अपने को परिचित रखें। नए बच्चों की नई सोच से तालमेल बैठाएं। स्वयं अपने विषय की पुस्तकें पढ़ते रहें ताकि हमारा ज्ञान सदैव बढ़ता रहे और हम नए नए ढंग से विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन करते रहें। +अंत में शिक्षण-प्रशिक्षण और स्वाध्याय निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। इसका प्रवाह बनाए रखें। +बच्चो का मनोविज्ञान समझना कोई आसान बात नहीं है | उनका स्वभाव .उनकी रुचियाँ और उनके शौक यदि हर माता पिता समझ ले तो बच्चों के दिल तक आसानी से पहुंचा जा सकता है | बहुत सी ऐसी बातें होती है जिनको समझने के लिए कई तरकीब ,कई तरह के मनोविज्ञानिक तरीके हैं जिस से बच्चो को समझ कर उनके स्वभाव को समझा जा सकता है | एक मनोवेज्ञानिक ने इसी आधार पर बच्चे के व्यक्तितव को समझने के लिए उनके लिखने के ढंग ,पेंसिल के दबाब और वह रंग करते हुए किस किस रंग का अधिक इस्तेमाल करते हैं ..के आधार पर विस्तार पूर्वक लिखा है ...माता पिता के लिए इस को जानना रुचिकर होगा ... +बच्चो को चित्रकला बहुत पसंद आती है | वह पेन्सिल हाथ में पकड़ते हो कुछ न कुछ बनना शुरू कर देते हैं | इसी आधार पर कुछ बच्चो के समूह को एक बड़ा कागज और उस पर चित्र बनाने को कहा गया ..कुछ बच्चो ने तो पूरा कागज ही भर दिया ..कुछ ने आधे पर चित्र बनाये और कुछ सिर्फ थोडी सी जगह पर चित्र बना कर बैठ गए | इसी आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि जो बच्चे पूरा कागज भर देते हैं वह अक्सर बहिर्मुखी होते हैं |ऐसे बच्चे उत्साही और दूसरे लोगों से बहुत जल्दी घुल मिल जाते हैं .इस तरह के बच्चे स्वयम को अच्छे से अभिव्यक्त कर पाते हैं और अक्सर मनमौजी स्वभाव के और कम भावुक होते हैं | +आधा कागज इस्तेमाल करने वाले बच्चे अधिकतर अन्तर्मुखी होते हैं |ऐसे बच्चे बहुत कम मित्र बनाते हैं ,लेकिन जिसके साथ दोस्ती करते हैं उसके साथ लम्बे समय तक दोस्ती निभाते हैं | इस तरह के बच्चो में अधिक सोच विचार करने की आदत होती है | +बिलकुल छोटा चित्र बनाने वाले बच्चे में आत्मविश्वास की कमी होती है और यह निराशा वादी होते हैं इनका आत्मविश्वास बढाने के लिए प्रोत्साहन बढाना बहुत जरुरी है ... +पेंसिल का दबाब. +बच्चा आपका पेंसिल कैसे पकड़ता है किस तरह से उसको दबाब डाल कर लिखता है ,इस से भी उसके स्वभाव को जाना जा सकता है|यदि आपका बच्चा किसी रेखा या बिंदु पर पेंसिल का अधिक दबाब डालता है तो इसका अर्थ है कि वह अपनी मांसपेशियों को अधिक इस्तेमाल कर रहा है और वह किसी तनाव में है जिस से वह मुक्त होना चाहता है | यदि बच्चे ने कोई मानव आकृति बनायी है और उस में उस आकृति की बाहें ४५ डिग्री से अधिक ऊपर उठी हुई हैं या अन्दर की और मुडी हैं तो बच्चे का ध्यान आपको अधिक रखना होगा यह उसकी अत्यधिक उत्सुकता कई निशानी है | +बच्चे का लिखने के ढंग से भी आप उसके स्वभाव को परख सकते हैं | जैसे लिखते वक़्त बच्चे ने चित्र में उन स्थानों पर तीखे कोनों का इस्तेमाल किया है जहाँ हल्की गोलाई होनी चाहिए थी तो यह उस बच्चे की आक्रामकता की सूचक है| यदि यह आक्रमकता उसके ताजे चित्रों में दिख रही तो उसके पुराने बनाए चित्र और शैली देखे इस से आप जान सकेंगे कि घर में ऐसा क्या घटित हुआ है जो आपके बच्चे के मनोभाव यूँ बदले हैं | अक्सर इस तरह से बदलाव दूसरे बच्चे के आने पर पहले बच्चे में दिखाई देते हैं उसको अपने प्यार में कमी महसूस होती है और वह यूँ आकर्मक हो उठता है | +रंगों के इस्तेमाल से. +बच्चे किस तरह के रंगों का इस्तेमाल अधिक करते हैं यह भी मनुष्य के स्वभाव की जानकारी देता है ..लाल रंग अधिक प्रयोग करने वाले बच्चे मानसिक तनाव से गुजर रहे होते हैं +नीले रंग का प्रयोग करने वाले बच्चे धीरे धीरे परिपक्व होने की दिशा मेंबढ़ रहे होते हैं और अपनी भावनाओं परनियंत्रण पाने की कोशिश में होते हैं ,पर यदि यह नीला रंग अधिक से अधिक गहरा दिखता है तो यह भी आक्रमकता का सूचक है ऐसे में बच्चे के मन में छिपी बात को समझने की कोशिश करनी चाहिए +पीला रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे अधिकतर उत्साही बाहिर्मुखी और अधिक भावुक होते हैं ऐसे बच्चे दूसरो अपर अधिक निर्भर रहते हैं और हमेशा दूसरो का ध्यान अपनी और आकर्षित करने कि कोशिश में रहते हैं | हरा रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे शांत स्वभाव के होते हैं और अक्सर उनके स्वभाव में नेतर्त्व के गुण पाए जाते हैं | +काला रंग या गहरा बेंगनी रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे को आपकी सहायता चाहिए |यह रंग बच्चे में दुःख और निराशा का प्रतीक है | +माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता। +एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा। +इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है। +जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें। +बाल विकास (या बच्चे का विकास). +मनुष्य के जन्म से लेकर किशोरावस्था के अंत तक उनमें होने वाले जैविक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को कहते हैं, जब वे धीरे-धीरे निर्भरता से और अधिक स्वायत्तता की ओर बढ़ते हैं. चूंकि ये विकासात्मक परिवर्तन काफी हद तक जन्म से पहले के जीवन के दौरान आनुवंशिक कारकों और घटनाओं से प्रभावित हो सकते हैं इसलिए आनुवंशिकी और जन्म पूर्व विकास को आम तौर पर बच्चे के विकास के अध्ययन के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है. संबंधित शब्दों में जीवनकाल के दौरान होने वाले विकास को संदर्भित करने वाला विकासात्मक मनोविज्ञान और बच्चे की देखभाल से संबंधित चिकित्सा की शाखा बालरोगविज्ञान (पीडीऐट्रिक्स)शामिल हैं. विकासात्मक परिवर्तन, परिपक्वता के नाम से जानी जाने वाली आनुवंशिक रूप से नियंत्रित प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप या पर्यावरणीय कारकों और शिक्षण के परिणामस्वरूप हो सकता है लेकिन आम तौर पर ज्यादातर परिवर्तनों में दोनों के बीच का पारस्परिक संबंध शामिल होता है. +बच्चे के विकास की अवधि के बारे में तरह-तरह की परिभाषाएँ दी जाती हैं क्योंकि प्रत्येक अवधि के शुरू और अंत के बारे में निरंतर व्यक्तिगत मतभेद रहा है. +फॉर इन्फैन्ट मेंटल हेल्थ जैसे संगठन शिशु शब्द का इस्तेमाल एक व्यापक श्रेणी के रूप में करते हैं जिसमें जन्म से तीन वर्ष तक की उम्र के बच्चे शामिल होते हैं; यह एक तार्किक निर्णय है क्योंकि शिशु शब्द की लैटिन व्युत्पत्ति उन बच्चों को संदर्भित करती है जो बोल नहीं पाते हैं. +बच्चों के इष्टतम विकास को समाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है और इसलिए बच्चों के सामाजिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक, और शैक्षिक विकास को समझना जरूरी है. इस क्षेत्र में बढ़ते शोध और रुचि के परिणामस्वरूप नए सिद्धांतों और रणनीतियों का निर्माण हुआ है और इसके साथ ही साथ स्कूल सिस्टम के अंदर बच्चे के विकास को बढ़ावा देने वाले अभ्यास को विशेष महत्व भी दिया जाने लगा है. इसके अलावा कुछ सिद्धांत बच्चे के विकास की रचना करने वाली अवस्थाओं के एक अनुक्रम का वर्णन करने की भी चेष्टा करते हैं। + +शिक्षा का माध्यम: + +भारतीय दण्ड संहिता, 1860: + +भारतीय दण्ड संहिता, अध्याय 1: +भारतीय दण्ड संहिता, 1860 +प्रस्तावना. +उद्देशिका. +2[भारत] के लिए एक साधारण दण्ड संहिता का उपबंध करना समीचीन है; अत: यह निम्नलिखित रूप में अधिनियमित किया जाता है :-- +1. संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार--यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलाएगा, और इसका 34[जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर होगा ]। +2. भारत के भीतर किए गए अपराधों का दण्ड--हर व्यक्ति इस संहिता के उपबन्धों के प्रतिकूल हर कार्य या लोप के लिए जिसका वह 5[भारत] 6।।। के भीतर दोषी होगा, इसी संहिता के अधीन दण्डनीय होगा अन्यथा नहीं। +3. भारत से परे किए गए किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अपराधों का दण्ड--5से परे किए गए अपराध के लिए जो कोई व्यक्ति किसी 7[भारतीय विधि के अनुसार विचारण का पात्र हो, 8से परे किए गए किसी कार्य के लिए उससे इस संहिता के उपबन्धों के अनुसार ऐसा बरता जाएगा, मानो वह कार्य 5[भारत के भीतर किया गया था। +9[4. राज्यक्षेत्रातीत अपराधों पर संहिता का विस्तार--इस संहिता के उपबंध-- +1 भारतीय दंड संहिता का विस्तार बरार विधि अधिनियम, 1941 (1941 का 4) द्वारा बरार पर किया गया है और इसे निम्नलिखित स्थानों पर प्रवॄत्त घोषित किया गया है :-- +संथाल परगना एयवस्थापन विनियम (1872 का 3) की धारा 3 द्वारा संथाल परगनों पर ; +पंथ पिपलोदा, विधि विनियम, 1929 (1929 का 1) की धारा 2 तथा अनुसूची द्वारा पंथ पिपलोदा पर ; +खोंडमल विधि विनियम, 1936 (1936 का 4) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा खोंडमल जिले पर ; +आंगूल विधि विनियम, 1936 (1936 का 5) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा आंगूल जिले पर ; +इसे अनुसूचित जिला अधिनियम, 1874 (1874 का 14) की धारा 3 (क) के अधीन निम्नलिखित जिलों में प्रवॄत्त घोषित किया गया है, अर्थात्:-- +संयुक्त प्रान्त तराई जिले--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1876, भाग 1, पॄ0 505, हजारीबाग, लोहारदग्गा के जिले [(जो अब रांची जिले के नाम से ज्ञात हैं,--देखिए कलकत्ता राजपत्र (अंग्रेजी), 1899, भाग 1, पॄ0 44 और मानभूम और परगना]। दालभूम तथा ासिंहभूम जिलों में कोलाहल—देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1881, भाग 1, पॄ0 504। +उपरोक्त अधिनियम की धारा 5 के अधीन इसका विस्तार लुशाई पहाड़ियों पर किया गया है--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1898, भाग 2, पॄ0 345। +इस अधिनियम का विस्तार, गोवा, दमण तथा दीव पर 1962 के विनियम सं0 12 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा ; दादरा तथा नागार हवेली पर 1963 के विनियम सं0 6 की धारा 2 तथा अनुसूची 1 द्वारा ; पांडिचेरी पर 1963 के विनियम सं0 7 की धारा 3 और अऩुसूची 1 द्वारा और लकादीव, मिनिकोय और अमीनदीवी द्वीप पर 1965 के विनियम सं0 8 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है। +2 “ब्रिटिश भारत” शब्द अनुक्रामशः भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित किए गए हैं। +3 मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रामशः 1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1, भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा किया गया है। +4 1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा “भाग ख राज्यों को छोड़कर” के स्थान पर प्रतिस्थापित। +5 “उक्त राज्यक्षेत्र” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रामशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है। +6 1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा “पर या 1861 की मई के उक्त प्रथम दिन के पश्चात्” शब्द और अंक निरसित। +7 भारतीय शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937 द्वारा “सपरिषद् भारत के गर्वनर जनरल द्वारा पारित विधि” के स्थान पर प्रतिस्थापित। +8 “उक्त राज्यक्षेत्रों की सीमा” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रामशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है। +9 1898 का अधिनियम सं0 4 की धारा 2 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित। +2 +1[(1) भारत के बाहर और परे किसी स्थान में भारत के किसी नागरिक द्वारा ; +(2) भारत में रजिस्ट्रीकॄत किसी पोत या विमान पर, चाहे वह कहीं भी हो किसी व्यक्ति द्वारा, किए गए किसी अपराध को भी लागू है। ] +स्पष्टीकरण--इस धारा में “अपराध” शब्द के अन्तर्गत 2से बाहर किया गया ऐसा हर कार्य आता है, जो यदि 5[भारत में किया जाता तो, इस संहिता के अधीन दंडनीय होता। +4।।। क. 56[भारत का नागरिक है] उगांडा में हत्या करता है। वह 5[भारत] के किसी स्थान में, जहां वह पाया जाए, हत्या के लिए विचारित और दोषसिद्द किया जा सकता है। +7।।।। ।। +8कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना--इस अधिनियम में की कोई बात भारत सरकार की सेवा के आपिसरों, सैनिकों, नौसैनिकों या वायु सैनिकों द्वारा विद्रोह और अभित्यजन को दाण्डित करने वाले किसी अधिनियम के उपबन्धों, या किसी विशेष या स्थानीय विधि के उपबन्धों, पर प्रभाव नहीं डालेगी। + +वह खगोलीय पिंडों की गति: +खगोलीय गति. +आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला +वर्ष २०१२ ई० मे आजाद हिन्दुस्तान में यह दूसरा अवसर होगा जब मकर संक्रांति पर्व की तिथि परिवर्तित होकर 15 जनवरी हो जायेगी । इससे पूर्व 1950 में इसकी तिथि 13 जनवरी से परिवर्तित होकर 14 जनवरी हुयी थी और तब से इस पर्व को लगातार इसी तिथि को ही मनाया जाता रहा है। मकर संक्रांति के इस रोचक परिवर्तन का खगोलीय वैज्ञानिक आधार है। +वास्तव में जिसे दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष इस खगोलीय गति में 20 मिनट का अंतर आता है अर्थात सूर्य का मकर राशि में प्रवेश 365 दिवस और 20 मिनट बाद होता है । इस हिसाब से तीन वर्ष में यह अंतर 1 घंटे का हो जाता है और 24 घंटे का अंतर होने में 72 वर्ष का समय लगता है । यही कारण है कि प्रत्येक 72 वर्ष के बाद मकर संक्रांति का पर्व अगली तिथि में परिवर्तित हो जाता है। +अब अगर समय रेखा पर 72 -72 वर्ष पीछे की ओर जाया जाय तो 72 ग् 15 वर्ष यानी 1080 वर्ष पहले यानी 920 ई0 में मकर संक्रांति का पर्व 1 जनवरी को पडा होगा। +कैलेन्डर से जुडे कुछ रोचक तथ्य. +क्या आपके लिये यह जानना रोचक नहीं है कि किसी भी सामान्य वर्ष की शुरूआत जिस दिन से होती है उसकी समाप्ति भी उसी दिन से होती है अर्थात यदि किसी सामान्य वर्ष में 1 जनवरी का दिवस रविवार है तो उस वर्ष 31 दिसम्बर को भी रविवार ही होगा । +यह तथ्य सामान्य वषों में लागू होता है लीप वर्ष में नहीं लीप वर्ष में जिस दिन से वर्ष का आरंभ होता है उस वर्ष की समाप्ति उसके अगले दिवस से होती है अर्थात यदि किसी लीप वर्ष में 1 जनवरी का दिवस रविवार है तो उस लीप वर्ष में 31 दिसम्बर का दिवस सोमवार होगा जैसा कि इस वर्ष 2012 में नव वर्ष का आरंभ रविवार दिवस से हुआ हेै और समाप्ति सोमवार से होगी। -- १६:३७, १२ जनवरी २०१२ (UTC) +कुछ और रोचक तथ्य. +वर्ष २०८४ ई० मे मकर संक्रांति पर्व की तिथि परिवर्तित होकर 1६ जनवरी हो जायेगी । इससे पूर्व 1950 में इसकी तिथि 13 जनवरी से परिवर्तित होकर 14 जनवरी हुयी थी और २०१२ में इसकी तिथि 1४ जनवरी से परिवर्तित होकर 1५ जनवरी हुयी थी मकर संक्रांति के इस रोचक परिवर्तन का खगोलीय वैज्ञानिक आधार है। + +कला और विज्ञान: +विज्ञान की कसौटी पर कला +डॉ. अशोक कुमार शुक्ला +‘‘तपस्या’’ 2-614 सेक्टर ‘‘एच’’जानकीपुरम् , लखनऊ +विज्ञान और कला के बगैर आधुनिक जीवन की कल्पना करना असंभव है। परन्तु विभिन्न कलाओ में विज्ञान के योगदान को हम कितना याद रखते हैं ? शायद बिल्कुल भी नहीं। वास्तव में विज्ञान एकत्रित ज्ञान है जबकि कला समस्त उपलब्ध संसाधनों के आधार पर मनुष्य के मनोभावों का निरूपण। अर्थात कोई वैज्ञानिक कार्य चाहे कितना ही महान क्यों न हो समय के साथ उसके वैज्ञानिक ज्ञान का समकालीन ज्ञान में समावेश हो जाता है। +विज्ञान मे ज्ञान की सम सामयिक स्थिति. +सच में किसी वैज्ञानिक का कार्य तभी उपयोगी होता है जब उसके समकक्ष वैज्ञानिकेां के द्वारा उसे स्वीकार किया जाता है। परन्तु विडंवना है कि शीध्र ही उस कार्य को पीछे छोडकर नया कार्य प्रारंभ कर दिया जाता है। +विज्ञान मे ज्ञान की केवल सम सामयिक स्थिति ही महत्व्पूर्ण होती है क्यों कि भूत वर्तमान में समा चुका होता है। उदाहरण के लिये हम लोग संगीत के क्षेत्र में महान संगीतकारों बडे गंलाम अली खां या उस्ताद फैयाज खंा जैसे के संगीत को आज भी सुनते और उसकी सरााहना करते हैं। लियोनार्दाे दी विंची की महान कृति मोनालिसा की अनुकृतियां संसार भर के कला प्रेमियों द्वारा आज भी बडे शौक से खरीदी जाती है। आज भी शैक्सपेयर की और कालिदास की कृतियां पढी जाती हैं। किन्तु न्यूटन के वैज्ञानिक ग्रंन्थ प्रिसिंपिया मैथेमैटिका और आइन्सटाइन के मूल विज्ञान शोध पत्रों को अब अधिकांश लोग पढने की आवश्यकता नही समझते। वास्तव में विज्ञान के लिये यह महत्वपूर्ण भी हैं। +प्रागैतिहासिक मानव द्वारा बनाया गया गुफा चित्र +विज्ञान की सार्वंभौमिकता. +प्रत्येक कला के क्षेत्र में व्यक्ति केा उसके अपने विश्वासों और भावनाओं के कारण ही आकषर्ण मिलता है इसके विपरीत वैज्ञानिक क्रिया कलाप हमेंशा वैयक्तिकता के कम करने तथा वस्तुनिष्ठ आधार बनाने का प्रयास करते हैं। सही विज्ञान की सार्वंभौमिकता है। कला के क्षेत्र मे जिन महान कलाकार और उनकी उपलब्धियों की चर्चा होती है वह वास्तव में संबंधित कलाकारों की व्यक्तिगत उपलब्धियां होती हैं और उन मील के पत्थरो को पाने के लिये किसी भी नये कलाकार को अपनी यात्रा पुनः शून्य से ही प्रारंभ करनी होती है ,और निरन्तर अभ्यास ही उसे उन मानकों के समरूप या उससे भी उंचे स्थान पर पहंुचा सकता है। +इसके विपरीत विज्ञान का आधार प्रेक्षण और प्रयोग है। प्रेक्षण और प्रयोग वैज्ञानिक संक्रियाओं के अनिवार्य अंग हैं। पूर्व के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर ‘वस्तुओ के वर्तमान स्वरूप’ की व्याख्या हेतु एक सैद्धान्तिक परिकल्पना का निर्माण करने के उपरान्त कुछ अरिवर्तनीय नियम अवधारित होते हैं जो वैज्ञानिक युक्ति के ऐसे मील के पत्थर होते हैं जहां से नया वैज्ञानिक अपनी यात्रा आरंभ करता है। निश्चित रूप से इस स्टेशन से अपनी या़त्रा आरंभ करने वाले को कुछ नयी यात्राये करते हुये आने वाले नये वैज्ञानिको के लिये नये मानक स्थापित करने होते हैं। +ब्रहमांड के बारे में मिश्र की 2700 वर्ष पूर्व की धारणाओं का तत्कालीन निरूपण +अपनी विधा और अपना अलग मार्ग. +कला के क्षेत्र में प्रत्येक महारथी की अपनी विधा और अपना अलग मार्ग होता है जबकि विज्ञान के क्षेत्र में आपको पूर्व से स्थापित मार्ग पर ही चलकर आगंे बढना होता है। चित्रकला की ही बात करें तो प्रागैतिहासिक मानव द्वारा बनाये गये गुफाा चित्रों में आदि मानव का समूह में शिकार करने का दृष्य हो अथवा ब्रम्हांड के बारे में मिश्र की प्राचीन धारणाओं पर निर्मित तत्कालीन चित्र इनमें मानव मन में बसी भावनाओं का ही निरूपण प्रतीत होता है। आज इनकी व्याख्या वर्तमान परिपेक्ष में करने पर आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आते हैं। पहले चित्र में शिकार के लिये भटकते मनुष्यों का संघर्ष और शिकार की मनोदशा न्यूनतम रेखाओं के माध्यम से प्रदर्शित होती है। आज भी कला के पारखी अपने मनोभावों को न्यूनतम रेखाओं के माध्यम से प्रदर्शित करने वाली कृति को ही को ही श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में परिभाषित करतें हैं तथा कला विद्यालयों में न्यूनतम रेखाओं के आधार पर विषय का भाव पकडने का अभ्यास कराया जाता है। +इसी प्रकार ब्रम्हांड के बारे में मिश्र की प्राचीन धारणाओं पर निर्मित 2700 वर्ष पुराने तत्कालीन दूसरे चित्र में आकाश की देवी नूट का चित्र अंकित है तथा उसके नीचे अंकित पवन के देवता शू के हाथों में अमरत्व प्रतीेक और उसके चरणों में भूमि के देवता गेब की पत्तियों से ढकी आकृति और प्रतिदिन सूर्य को आकाश में ले जाती नावें प्रदशित हैं। इस चित्र को वर्तमान कला के रूप में देखने की स्थिति में हमको यह बिल्कुल भी कालबाधित प्रतीत नहीें होतीं। यह किसी वर्तमान कलाकार के द्वारा की गयी सारे वृहमांड की मौलिक कल्पना की अनुभूति जैसी प्रतीत होती है। जबकि यह वास्तव में उस समय तक सृष्ठि के संबंध में उपलब्ध पूर्व ज्ञान और प्रेक्षणों के आधार पर ‘ क्यों ’ प्रश्न का उत्तर देने के लिये सामान्यता निर्मित होने वाले सैद्धांतिक ढांचे का प्रतिरूप है। +कैनवास पर नयी परिकल्पनायें. +विज्ञान में एक परिकल्पना को सही सिद्व करने के लिये अनेक प्रयोग किये जाते हैं और उसके परिणामेंा के आधार पर नियम एवं सिद्धांतों का निर्माण होता है। प्रत्येक नियम कुछ विशिष्ट दशाओं में तथा एक निश्चित सीमाओं में ही सत्य होता है। नया प्रयोग नयी परिकल्पनायें देता है और नयी परिकल्पना वैज्ञानिक के मष्तिष्क में वैसा ही एक प्रतिरूप तैयार करता है जैसा किसी कलाकार के मन में उठे किसी विचार को कैनवास पर उतारने से पहले आता है। अन्तर केवल अभिब्यक्ति का होता है। जहां चित्रकार अपने विचार को दक्षता के साथ कैनवास पर उतार सकता है वहीं वैज्ञानिक उसे कैनवास पर उतारने की दक्षता नहीं रखता क्योेकि एक वैज्ञानिक का कैनवास दुनिया और समाज होता है जहां उसके अविष्कार सांसारिक बस्तियों में जाकर मनुष्य की जीवन शैलियों को प्रभावित करते हैं और उनके दैनिक क्रिया कलापों में उसका समावेश कुछ इस प्रकार होता है कि मानेा उन अविष्कारों के बगैर रहना कभी संभव ही न रहा हो। +इन्हें भी देखें. +भारत की भीषण भाषा समस्या और उसके सम्भावित समाधान +कला और विज्ञान + +आओ भूगोल सीखें/भूगोल एक सामान्य परिचय: +भूगोल (भू+गोल) पृथ्वी पर विभिन्न स्थलों की जानकारी देता है। भूगोल वह शास्त्र है जिसके द्बारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरुप और उसके प्राकृतिक विभागों (जैसे, पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, ड़मरुमध्य, उपत्यका, अधित्यका, वन आदि) का ज्ञान होता है। पृथ्वी की सतह पर जो स्थान विशेष हैं उनकी समताओं तथा विषमताओं का कारण और उनका स्पष्टीकरण भूगोल का निजी क्षेत्र है। भूगोल शब्द दो शब्दों भू यानि पृथ्वी और गोल से मिलकर बना है। मानव स्रष्टि का सबसे ज्ञानवान व बुद्धिमान जीव है। वह खगोलीय पिंडों की गति तथा पृथ्वी सम्बन्धी सभी तथ्यों के ज्ञान और उसके छिपे हुए रहस्यों के अनावरण के किए सदैव जिज्ञासु और प्रयत्नशील रहा हैं। स्रष्टि में पायी जाने वाली विविधता को देखकर वैज्ञानिक बहुत चकित और अचंभित हुए हैं। विज्ञान के आधारभूत नियम भी इस गुत्थी को सुलझाने में असमर्थ रहे हैं। भूगोल धरातल पर पाए जाने वाले विविध तथ्यों का अध्यन करता हैं। इसके अन्तर्गत धरातल के विविध तत्वों के क्षेत्रीय वितरण का वर्णन मात्र नहीं हैं वरन उनके स्वरुप तथा उत्पत्ति का सकारण विवरण भी अपेक्षित हैं। सर्वप्रथम प्राचीन यूनानी विद्वान इरैटोस्थनिज़ ने भूगोल को धरातल के एक विशिष्टविज्ञान के रुप में मान्यता दी। इसके बाद हिरोडोटस तथा रोमन विद्वान स्ट्रैबो तथा क्लाडियस टॉलमी ने भूगोल को सुनिश्चित स्वरुप प्रदान किया। इस प्रकार भूगोल में 'कहां' 'कैसे 'कब' 'क्यों' व 'कितनें' प्रश्नों की उचित वयाख्या की जाती हैं। +परिभाषा. +"भूगोल पृथ्वी कि झलक को स्वर्ग में देखने वाला आभामय विज्ञान हैं" -क्लाडियस टॉलमी +"भूगोल एक ऐसा स्वतंत्र विषय है, जिसका उद्देश्य लोगों को इस विश्व का, आकाशीय पिण्डो का, स्थल, महासागरों, जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों , फलों तथा भूधरातल के क्षेत्रों मे देखी जाने वाली प्रत्येक अन्य वस्तु का ज्ञान प्रात कराना हैं" - स्ट्रैबो +अंग तथा शाखाएँ. +भूगोल के दो प्रधान अंग है : श्रृंखलाबद्ध भूगोल तथा प्रादेशिक भूगोल। पृथ्वी के किसी स्थानविशेष पर श्रृंखलाबद्ध भूगोल की शाखाओं के समन्वय को केंद्रित करने का प्रतिफल प्रादेशिक भूगोल है। +भूगोल एक प्रगतिशील विज्ञान है। प्रत्येक देश में विशेषज्ञ अपने अपने क्षेत्रों का विकास कर रहे हैं। फलत: इसकी निम्नलिखित अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हो गई है : +भौतिक भूगोल -- इसके भिन्न भिन्न शास्त्रीय अंग स्थलाकृति, हिम-क्रिया-विज्ञान, तटीय स्थल रचना, भूस्पंदनशास्त्र, समुद्र विज्ञान, वायु विज्ञान, मृत्तिका विज्ञान, जीव विज्ञान, चिकित्सा या भैषजिक भूगोल तथा पुरालिपि शास्त्र हैं। +आर्थिक भूगोल-- इसकी शाखाएँ कृषि, उद्योग, खनिज, शक्ति तथा भंडार भूगोल और भू उपभोग, व्यावसायिक, परिवहन एवं यातायात भूगोल हैं। अर्थिक संरचना संबंधी योजना भी भूगोल की शाखा है। +मानव भूगोल -- इसके प्रधान अंग वातावरण, जनसंख्या, आवासीय भूगोल, ग्रामीण एवं शहरी अध्ययन के भूगोल हैं। +प्रादेशिक भूगोल -- इसके दो मुख्य क्षेत्र हैं प्रधान तथा सूक्ष्म प्रादेशिक भूगोल। +राजनीतिक भूगोल -- इसके अंग भूराजनीतिक शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, औपनिवेशिक भूगोल, शीत युद्ध का भूगोल, सामरिक एवं सैनिक भूगोल हैं। +ऐतिहासिक भूगोल --प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक वैदिक, पौराणिक, इंजील संबंधी तथा अरबी भूगोल भी इसके अंग है। +रचनात्मक भूगोल -- इसके भिन्न भिन्न अंग रचना मिति, सर्वेक्षण आकृति-अंकन, चित्रांकन, आलोकचित्र, कलामिति (फोटोग्रामेटरी) तथा स्थाननामाध्ययन हैं। +इसके अतिरिक्त भूगोल के अन्य खंड भी विकसित हो रहे हैं जैसे ग्रंथ विज्ञानीय, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, गणित शास्त्रीय, ज्योतिष शास्त्रीय एवं भ्रमण भूगोल तथा स्थाननामाध्ययन। + +हिन्दी साहित्य का इतिहास: +हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को यदि आरंभिक, मध्य व आधुनिक काल में विभाजित कर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अप्रभंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य रचना प्रारम्भ हो गयी थी। +साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, श्रृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य भारतीय भाषा का था। +आधुनिक काल के पूर्व गद्य की अवस्था. +आधुनिक काल के पूर्व हिन्दी का अस्तित्व किस परिमाण और किस रूप में था, संक्षेप में इसका विचार कर लेना चाहिए। अब तक साहित्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही है, इसे सूचित करने की आवश्यकता नहीं। अत: गद्य की पुरानी रचना जो थोड़ी सी मिलती है वह ब्रजभाषा ही में। हिन्दी पुस्तकों की खोज में हठयोग, ब्रह्मज्ञान आदि से संबंध रखनेवाले कई गोरखपंथी ग्रंथ मिले हैं जिनका निर्माणकाल संवत् 1407 के आसपास है। किसी-किसी पुस्तक में निर्माणकाल दिया हुआ है। एक पुस्तक गद्य में भी है जिसका लिखनेवाला 'पूछिबा', 'कहिबा' आदि प्रयोगों के कारण राजपूताने का निवासी जान पड़ता है। इसके गद्य को हम संवत् 1400 के आसपास के ब्रजभाषा गद्य का नमूना मान सकते हैं। थोड़ा सा अंश उध्दृत किया जाता है , +श्री गुरु परमानंद तिनको दंडवत है। हैं कैसे परमानंद, आनंदस्वरूप है सरीर जिन्हि को, जिन्हि के नित्य गाए तें शरीर चेतन्नि अरु आनंदमय होतु है। मैं जु हौं गोरिष सो मछंदरनाथ को दंडवत करत हौं। हैं कैसे वे मछंदरनाथ! आत्मजोति निश्चल हैं अंत:करन जिनके अरु मूलद्वार तैं छह चक्र जिनि नीकी तरह जानैं। +इसे हम निश्चयपूर्वक गद्य का पुराना रूप मान सकते हैं। साथ ही यह भी ध्यान होता है कि यह किसी संस्कृत लेख का 'कथंभूती' अनुवाद न हो। चाहे जो हो, है यह संवत् 1400 के ब्रजभाषा गद्य का नमूना। +ब्रजभाषा गद्य. +1. विट्ठलनाथ इसके उपरांत फिर हमें भक्तिकाल में कृष्णभक्ति शाखा के भीतर गद्यग्रंथ मिलते हैं। श्री बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने 'श्रृंगाररस मंडन' नामक एक ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा। उनकी भाषा का स्वरूप देखिए , +प्रथम की सखी कहतु है। जो गोपीजन के चरण विषै सेवक की दासी करि जो इनको प्रेमामृत में डूबि कै इनके मंद हास्य न जीते हैं। अमृत समूह ता करि निकुंज विषै श्रृंगाररस श्रेष्ठ रसना कीनो सो पूर्ण होतभई +यह गद्य अपरिमार्जित और अव्यवस्थित है। पर इसके पीछे दो और सांप्रदायिक ग्रंथ लिखे गए जो बड़े भी हैं और जिनकी भाषा भी व्यवस्थित और चलती है। बल्लभसंप्रदाय में इनका अच्छा प्रसार है। इनके नाम हैं , 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता'। इनमें से प्रथम आचार्य श्री बल्लभाचार्य जी के पौत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर गोकुलनाथजी के किसी शिष्य की लिखी जान पड़ती है, क्योंकि इसमें गोकुलनाथजी का कई जगह बड़े भक्तिभाव से उल्लेख है। इसमें वैष्णव भक्तों और आचार्य जी की महिमा प्रकट करनेवाली कथाएँ लिखी गई हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध्द माना जा सकता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' तो और भी पीछे औरंगजेब के समय के लगभग लिखी प्रतीत होती है। इन वार्ताओं की कथाएँ बोलचाल की ब्रजभाषा में लिखी गई हैं जिसमें कहीं कहीं बहुत प्रचलित अरबी और फारसी शब्द भी निस्संकोच रखे गए हैं। साहित्यिक निपुणता या चमत्कार की दृष्टि से ये कथाएँ नहीं लिखी गई हैं। उदाहरण के लिए यह उध्दृत अंश पर्याप्त होगा , +सो श्री नंदगाम में रहतो हतो। सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पढयो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करतो; ऐसो वाको नेम हतो। याही तें सब लोगन ने बाको नाम खंडन पारयो हतो। सो एक दिन श्री महाप्रभु जी के सेवक वैष्णव की मंडली में आयो। सो खंडन करन लाग्यौ। वैष्णवन ने कही जो तेरो शास्त्रार्थ करनो होवै तो पंडित के पास जा हमारी मंडली में तेरे आयबो को काम नहीं। इहाँ खंडन मंडन नहीं है। भगवद्वार्ता को काम है भगवद्यश सुननो होवै तो इहाँ आवो। +2. नाभादास जी इन्होंने भी संवत् 1660 के आसपास 'अष्टयाम' नामक एक पुस्तक ब्रजभाषा में लिखी जिसमें भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है। भाषा इस ढंग की है , +तब श्री महाराज कुमार प्रथम वसिष्ठ महाराज के चरण छुइ प्रनाम करत भए। फिर ऊपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिर श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू निकट बैठते भए। +3. वैकुंठमणि शुक्ल संवत् 1680 के लगभग वैकुंठमणि शुक्ल ने, जो ओरछाकेमहाराज जसवंत सिंह के यहाँ थे, ब्रजभाषा गद्य में 'अगहन माहात्म्य' और 'वैशाख माहात्म्य' नाम की दो छोटी छोटी पुस्तकें लिखीं। द्वितीय के संबंध में वे लिखते हैं , +सब देवतन की कृपा ते बैकुंठमनि सुकुल श्री महारानी चंद्रावती के धरम पढ़िबे के अरथ यह जसरूप ग्रंथ वैसाख महातम भाषा करत भए। एक समय नारद जू ब्रह्मा की सभा से उठिकै सुमेर पर्वत को गए। +ब्रजभाषा गद्य में लिखा एक 'नासिकेतोपाख्यान' मिला है जिसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं। समय संवत् 1760 के उपरांत है। भाषा व्यवस्थित है , +हे ऋषीश्वरो! और सुनो, मैं देख्यो है सो कहूँ। कालै वर्ण महादुख के रूप, जम किंकर देखे। सर्प, बिछू, रीछ, व्याघ्र, सिंह बड़े-बड़े ग्रंध्र देखे। पंथ में पाप कर्मी कौ जमदूत चलाइ कै मुदगर अरु लोहे के दंड कर मार देते हैं। आगे और जीवन को त्रास देते देखे हैं। सु मेरो रोम-रोम खरो होत है। +4. सूरति मिश्र इन्होंने संवत् 1767 में संस्कृत से कथा लेकर बैतालपचीसी लिखी, जिसको आगे चलकर लल्लूलाल ने खड़ी बोली हिंदुस्तानी में किया। जयपुर नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से लाला हीरालाल ने संवत् 1852 में 'आईने अकबरी की भाषा वचनिका' नाम की एक बड़ी पुस्तक लिखी। +भाषा इसकी बोलचाल की है जिसमें अरबी फारसी के कुछ बहुत चलते शब्द भी हैं। नमूना यह है , +अब शेख अबुलफजल ग्रंथ को करता प्रभु को निमस्कार करि कै अकबर बादशाह की तारीफ लिखने को कसद करै है अरु कहै है , याकी बड़ाई और चेष्टा अरु चिमत्कार कहाँ तक लिखूँ। कही जात नाहीं। तातें याकें पराक्रम अरु भाँति भाँति के दसतूर वा मनसूबा दुनिया में प्रगट भए ताको संखेप लिखत हौं। +इस प्रकार की ब्रजभाषा गद्य की कुछ पुस्तकें इधर उधर पाई जाती हैं जिनमें गद्य का कोई विकास प्रकट नहीं होता। साहित्य की रचना पद्य में ही होती रही। गद्य का भी विकास यदि होता आता तो विक्रम की इस शताब्दी के आरंभ में भाषासंबंधिनी बड़ी विषम समस्या उपस्थित होती। जिस धड़ाके के साथ गद्य के लिए खड़ी बोली ले ली गई उस धड़ाके के साथ न ली जा सकती। कुछ समय सोच विचार और वाद-विवाद में जाता और कुछ समय तक दो प्रकार के गद्य की धाराएँ साथ साथ दौड़ लगातीं। अत: भगवान का यह भी एक अनुग्रह समझना चाहिए कि यह भाषाविप्लव नहीं संघटित हुआ और खड़ी बोली, जो कभी अलग और कभी ब्रजभाषा की गोद में दिखाई पड़ जाती थी, धीरे धीरे व्यवहार की शिष्ट भाषा होकर गद्य के नये मैदान में दौड़ पड़ी। +गद्य लिखने की परिपाटी का सम्यक् प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य जहाँ का तहाँ रह गया। उपर्युक्त 'वैष्णववार्ताओं' में उसका जैसा परिष्कृत और सुव्यवस्थित रूप दिखाई पड़ा वैसा आगे चलकर नहीं। काव्यों की टीकाओं आदि में जो थोड़ा बहुत गद्य देखने में आता था वह बहुत ही अव्यवस्थित और अशक्त था। उसमें अर्थों और भावों को भी संबद्ध रूप में प्रकाशित करने तक की शक्ति न थी। ये टीकाएँ संस्कृत की 'इत्यमर:' और 'कथम्भूतम्' वाली टीकाओं की पद्ध ति पर लिखी जाती थीं। इससे इनके द्वारा गद्य की उन्नति की संभावना न थी। भाषा ऐसी अनगढ़ और लद्ध ड़ होती थी कि मूल चाहे समझ में आ जाय पर टीका की उलझन से निकलना कठिन समझिए। विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में लिखी 'श्रृंगारशतक' की एक टीका की कुछ पंक्तियाँ देखिए , +उन्मत्ताप्रेमसंरम्भादालभंते यदंगना:। +तत्रा प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातर: +अंगना जु है स्त्री सु। प्रेम के अति आवेश करि। जु कार्य करन चाहति है ता कार्य विषै। ब्रह्माऊ। प्रत्यूहं आधातुं। अंतराउ कीबै कहँ। कातर। काइरु है। काइरु कहावै असमर्थ। जु कछु स्त्री करयो चाहैं सु अवस्य करहिं। ताको अंतराउ ब्रह्मा पहँ न करयो जाई और की कितीक बात। +आगे बढ़कर संवत् 1872 की लिखी जानकीप्रसाद वाली रामचंद्रिका की प्रसिद्ध टीका लीजिए तो उसकी भाषा की भी यही दशा है , +राघव शर लाघव गति छत्रा मुकुट यों हयो। +हंस सबल अंसु सहित मानहु उड़ि कैगयो +सबल कहें अनेक रंग मिश्रित हैं, अंसु कहे किरण जाके ऐसे जे सरूय्य हैं तिन सहित मानो कलिंदगिरि शृंग तें हंस कहे हंस समूह उड़ि गयो है। यहाँ जाति विषै एकवचन है। हंसन के सदृश श्वेत छत्रा है और सूर्यन के सदृश अनेक रंग नगजटित मुकुट हैं। +इसी ढंग की सारी टीकाओं की भाषा समझिए। सरदार कवि अभी हाल में हुए हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सतसई आदि की उनकी टीकाओं की भाषा और भी अनगढ़ और असंबद्ध है। सारांश यह है कि जिस समय गद्य के लिए खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य नहीं खड़ा हुआ था, इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ। +खड़ी बोली का गद्य. +देश के भिन्न भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी। खुसरो ने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा के साथ साथ खालिस खड़ी बोली में कुछ पद्य और पहेलियाँ बनाई थीं। औरंगजेब के समय से फारसी मिश्रित खड़ी बोली या रेखता में शायरी भी शुरू हो गई और उसका प्रचार फारसी पढ़े लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया। इस प्रकार खड़ी बोली को लेकर उर्दू साहित्य खड़ा हुआ, जिसमें आगे चलकर विदेशी भाषा के शब्दों का मेल भी बराबर बढ़ता गया और जिसका आदर्श भी विदेशी होता गया। +मोगल साम्राज्य के धवंस से भी खड़ी बोली के फैलने में सहायता पहुँची। दिल्ली, आगरे आदि पछाँही शहरों की समृद्धि नष्ट हो चली थी और लखनऊ, पटना, मुर्शिदाबाद आदि नई राजधानियाँ चमक उठीं। जिस प्रकार उजड़ती हुई दिल्ली को छोड़कर मीर इंशा आदि अनेक उर्दू शायर पूरब की ओर आने लगे, उसी प्रकार दिल्ली के आसपास के प्रदेशों की हिंदू व्यापारी जातियाँ (अगरवाल, खत्री आदि) जीविका के लिए लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना आदि पूरबी शहरों में फैलने लगीं। उनके साथ साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी लगी चलती थी। यह सिद्ध बात है कि उपजाऊ और सुखी प्रदेशों के लोग व्यापार में उद्योगशील नहीं होते। अत: धीरे धीरे पूरब के शहरों में भी इन पश्चिमी व्यापारियों की प्रधानता हो चली। इस प्रकार बड़े शहरों के बाजार की व्यावहारिक भाषा भी खड़ी बोली हुई। यह खड़ी बोली असली और स्वाभाविक भाषा थी, मौलवियों और मुंशियों की उर्दू ए मुअल्ला नहीं। यह अपने ठेठ रूप में बराबर पछाँह से आई जातियों के घरों में बोली जाती है। अत: कुछ लोगों का यह कहना या समझना कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में आई और उसका मूल रूप उर्दू है जिससे आधुनिक हिन्दी गद्य की भाषा अरबी फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई, शुद्ध भ्रम या अज्ञान है। इस भ्रम का कारण यही है कि देश के परंपरागत साहित्य की , जो संवत् 1900 के पूर्व तक पद्यमय ही रहा , भाषा ब्रजभाषा ही रही और खड़ी बोली वैसे ही एक कोने में पड़ी रही जैसे और प्रांतों की बोलियाँ। साहित्य या काव्य में उसका व्यवहार नहीं हुआ। +पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था। उर्दू का रूप प्राप्त होने के पहले भी खड़ी बोली अपने देशी रूप में वर्तमान थी और अब भी बनी हुई है। साहित्य में भी कभी कभी कोई इसका व्यवहार कर देता था, यह दिखाया जा चुका है। +भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय तक अपभ्रंश काव्यों की जो परंपरा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की भी झलक अनेक पद्यों में मिलती है। जैसे , +भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणि! म्हारा कंतु। +अड़बिहि पत्ती, नइहि जलु, तो बिन बूहा हत्थ। +सोउ जुहिट्ठिर संकट पाआ। देवक लेखिअ कोण मिटाआ +उसके उपरांत भक्तिकाल के आरंभ में निर्गुणधारा के संत कवि जिस प्रकार खड़ी बोली का व्यवहार अपनी सधुक्कड़ी भाषा में किया करते थे, इसका उल्लेख भक्तिकाल के भीतर हो चुका है। कबीरदास के ये वचन लीजिए , +कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगानीर। +कबीर कहता जात हूँ, सुनता है सब कोइ। +राम कहे भला होयगा, नहितर भला न होइ +आऊँगा न जाऊँगा, मरूँगा न जीऊँगा। +गुरु के सबद रम रम रहूँगा +अकबर के समय में गंग कवि ने 'चंद छंद बरनन की महिमा' नामक एक गद्य पुस्तक खड़ी बोली में लिखी थी। उसकी भाषा का नमूना देखिए , +सिद्धि श्री 108 श्री श्री पातसाहिजी श्री दलपतिजी अकबरसाहजी आमखास में तखत ऊपर विराजमान हो रहे। और आमखास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार करके अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करें अपनी अपनी मिसल से। जिनकी बैठक नहीं सो रेसम के रस्से में रेसम की लूमें पकड़ के खड़े ताजीम में रहे। +इतना सुन के पातसाहिजी, श्री अकबरसाहजी आद सेर सोना नरहरदास चारन को दिया। इनके डेढ़ सेर सोना हो गया। रास बंचना पूरन भया। आमखास बरखास हुआ। +इस अवतरण से स्पष्ट लगता है कि अकबर और जहाँगीर के समय में ही खड़ी बोली भिन्न भिन्न प्रदेशों में शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। यह भाषा उर्दू नहीं कही जा सकती; यह हिन्दी खड़ी बोली है। यद्यपि पहले से साहित्य भाषा के रूप में स्वीकृत न होने के कारण इसमें अधिक रचना नहीं पाई जाती, पर यह बात नहीं है कि इसमें ग्रंथ लिखे ही नहीं जाते थे। दिल्ली राजधानी होने के कारण जब से शिष्ट समाज के बीच इसका व्यवहार बढ़ा तभी से इधर उधर कुछ पुस्तकें इस भाषा के गद्य में लिखी जाने लगीं। +विक्रम संवत् 1798 में रामप्रसाद 'निरंजनी' ने 'भाषायोगवासिष्ठ' नाम का ग्रंथ साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा। ये पटियाला दरबार में थे और महारानी को कथा बाँचकर सुनाया करते थे। इनके ग्रंथ देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशी सदासुख और लल्लूलाल से बासठ वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्तकों में यह 'भाषा योगवासिष्ठ' ही सबसे पुराना है जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है। अत: जब तक और कोई पुस्तक इससे पुरानी न मिले तब तक इसी को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और राम प्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्यलेखक मान सकते हैं। 'भाषायोगवासिष्ठ' से दो उद्ध रण आगे दिए जाते हैं , +(क) प्रथम परब्रह्म परमात्मा का नमस्कार है जिससे सब भासते हैं और जिसमें सब लीन और स्थित होते हैं, × × × जिस आनंद के समुद्र के कण से संपूर्ण विश्वआनंदमय है, जिस आनंद से सब जीव जीते हैं। अगस्तजी के शिष्य सुतीक्षण के मन में एक संदेह पैदा हुआ तब वह उसके दूर करने का कारण अगस्त मुनि के आश्रम को जा विधिसहित प्रणाम करके बैठे और बिनती कर प्रश्न किया कि हे भगवान! आप सब तत्वों शास्त्रों के जाननहारे हो, मेरे एक संदेह को दूर करो। मोक्ष का कारण कर्म है किज्ञान है अथवा दोनों हैं, समझाय के कहो। इतना सुन अगस्त मुनि बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म से मोक्ष नहीं होता और न केवल ज्ञान से मोक्ष होता है, मोक्ष दोनों से प्राप्त होता है। कर्म से अंत:करण शुद्ध होता है, मोक्ष नहीं होता और अंत:करण की शुद्धि बिना केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। +(ख) हे रामजी! जो पुरुष अभिमानी नहीं है वह शरीर के इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष नहीं करता क्योंकि उसका शुद्ध वासना है। × × × मलीन वासना जन्मों का कारण है। ऐसी वासना को छोड़कर जब तुम स्थित होगे तब तुम कर्ता होते हुए भी निर्लेप रहोगे। और हर्ष, शोक आदि विकारों से जब तुम अलग रहोगे तब वीतराग, भय, क्रोध से रहित रहोगे। × × × जिसने आत्मतत्व पाया है वह जैसे स्थित हो वैसे ही तुम भी स्थित हो। इसी दृष्टि को पाकर आत्मतत्व को देखो तब विगतज्वर होगे और आत्मपद को पाकर फिर जन्म मरण के बंधान में न आवोगे। +कैसी श्रृंखलाबद्ध साधु और व्यवस्थित भाषा है। +इसके पीछे संवत् 1818 में बसवा (मध्य प्रदेश) निवासी पं. दौलतराम ने हरिषेणाचार्य कृत 'जैन पर्पिुंराण' का भाषानुवाद किया जो 700 पृष्ठों से ऊपर का एक बड़ा ग्रंथ है। भाषा इसकी उपर्युक्त 'भाषायोगवासिष्ठ' के समान परिमार्जित नहीं है, पर इस बात का पूरा पता देती है कि फारसी उर्दू से कोई संपर्क न रखनेवाली अधिकांश शिष्ट जनता के बीच खड़ी बोली किसी स्वाभाविक रूप में प्रचलित थी। मध्य प्रदेश पर फारसी या उर्दू की तालीम कभी नहीं लादी गई थी और जैन समाज, जिसके लिए यह ग्रंथ लिखा गया, बराबर व्यापार से संबंध रखनेवाला समाज रहा है। खड़ी बोली को मुसलमानों द्वारा जो रूप दिया गया है उससे सर्वथा स्वतंत्र वह अपने प्रकृत रूप में भी दो-ढाई सौ वर्ष से लिखने पढ़ने के काम में आ रही है, यह बात 'भाषायोगवासिष्ठ' और 'पर्पिुंराण' अच्छी तरह प्रमाणित कर रहे हैं। अत: यह कहने की गुंजाइश अब जरा भी नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अंग्रेजी की प्रेरणा से चली। 'पर्पिुंराण' की भाषा का स्वरूप यह है , +जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र विषै मगध नामा देश अति सुंदर है, जहाँ पुण्याधिकारी बसे हैं, इंद्रलोक के समान सदा भोगोपयोग करै हैं और भूमि विषय साँठन के बाड़े शोभायमान हैं। जहाँ नाना प्रकार के अन्नों के समूह पर्वत समान ढेर हो रहे हैं। +आगे चलकर संवत् 1830 और 1840 के बीच राजस्थान के किसी लेखक ने 'मंडोवर का वर्णन' लिखा जिसकी भाषा साहित्य की नहीं, साधारण बोलचाल की है, जैसे , +अवल में यहाँ मांडव्य रिसि का आश्रम था। इस सबब से इस जगे का नाम मांडव्याश्रम हुआ। इस लफ्ज का बिगड़ कर मंडोवर हुआ है। +ऊपर जो कहा गया है कि खड़ी बोली का ग्रहण देश के परंपरागत साहित्य में नहीं हुआ था, उसका अर्थ यहाँ स्पष्ट कर देना चाहिए। उक्त कथन में साहित्य से अभिप्राय लिखित साहित्य का है, कथित या मौखिक का नहीं। कोई भाषा हो, उसका कुछ न कुछ साहित्य अवश्य होता है , चाहे वह लिखित न हो, श्रुति परंपरा द्वारा ही चला आता हो। अत: खड़ी बोली के भी कुछ गीत, कुछ पद्य, कुछ तुकबंदियाँ खुसरो के पहले से अवश्य चली आती होंगी। खुसरो की सी पहेलियाँ दिल्ली के आसपास प्रचलित थीं जिनके नमूने पर खुसरो ने अपनी पहेलियाँ या मुकरियाँ कहीं। हाँ, फारसी पद्य में खड़ी बोली को ढालने का प्रयत्न प्रथम कहा जा सकता है। +खड़ी बोली का रूप रंग जब मुसलमानों ने बहुत कुछ बदल दिया और वे उसमें विदेशी भावों का भंडार भरने लगे तब हिन्दी के कवियों की दृष्टि में वह मुसलमानों की खास भाषा सी जँचने लगी। इससे भूषण, सूदन आदि कवियों ने मुसलमान दरबारों के प्रसंग में या मुसलमान पात्रों के भाषण में ही इस बोली का व्यवहार किया है। पर जैसा कि अभी दिखाया जा चुका है, मुसलमानों के दिए हुए कृत्रिम रूप से स्वतंत्र खड़ी बोली का स्वाभाविक देशी रूप भी देश के भिन्नभिन्न भागों में पछाँह के व्यापारियों आदि के साथ साथ फैल रहा था। उसके प्रचार और उर्दू साहित्य के प्रचार से कोई संबंध नहीं। धीरे धीरे यही खड़ी बोली व्यवहार की सामान्य शिष्ट भाषा हो गई। जिस समय अंग्रेजी राज्य भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तरी भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो चुकी थी। जिस प्रकार उसके उर्दू कहलाने वाले कृत्रिम रूप का व्यवहार मौलवी मुंशी आदि फारसी तालीम पाए हुए कुछ लोग करते थे उसी प्रकार उसके असली स्वाभाविक रूप का व्यवहार हिंदू साधु, पंडित, महाजन आदि अपने शिष्ट भाषण में करते थे। जो संस्कृत पढ़े लिखे या विद्वान होते थे उनकी बोली में संस्कृत के शब्द भी मिले रहते थे। +रीतिकाल के समाप्त होते होते अंग्रेजों का राज्य देश में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था। अत: अंग्रेजों के लिए यहाँ की भाषा सीखने का प्रयत्न स्वाभाविक था। पर शिष्ट समाज के बीच उन्हें दो ढंग की भाषाएँ चलती मिलीं। एक तो खड़ी बोली का सामान्य देशी रूप, दूसरा वह दरबारी रूप जो मुसलमानों ने उसे दिया था और उर्दू कहलाने लगा था। +अंगरेज यद्यपि विदेशी थे पर उन्हें यह स्पष्ट लक्षित हो गया कि जिसे उर्दू कहते हैं वह न तो देश की स्वाभाविक भाषा है, न उसका साहित्य देश का साहित्य है, जिसमें जनता के भाव और विचार रक्षित हों। इसीलिए जब उन्हें देश की भाषा सीखने की आवश्यकता हुई और वे गद्य की खोज में पड़े तब दोनों प्रकार की पुस्तकों की आवश्यकता हुई , उर्दू की भी और हिन्दी (शुद्ध खड़ी बोली) की भी। पर उस समय गद्य की पुस्तकें वास्तव में न उर्दू में थीं न हिन्दी में। जिस समय फोर्ट विलियम कॉलेज की ओर से उर्दू और हिन्दी गद्य की पुस्तकें लिखने की व्यवस्था हुई उसके पहले हिन्दी खड़ी बोली में गद्य की कई पुस्तकें लिखी जा चुकी थीं। +'भाषायोगवासिष्ठ' और 'पर्पिुंराण' का उल्लेख हो चुका है। उसके उपरांत जब अंग्रेजों की ओर से पुस्तकें लिखाने की व्यवस्था हुई उसके दो-एक वर्ष पहले ही मुंशी सदासुख की ज्ञानोपदेशवाली पुस्तक और इंशा की 'रानी केतकी की कहानी' लिखी जा चुकी थी। अत: यह कहना कि अंग्रेजी की प्रेरणा से ही हिन्दी खड़ी बोली गद्य का प्रादुर्भाव हुआ, ठीक नहीं है। जिस समय दिल्ली के उजड़ने के कारण उधर के हिंदू व्यापारी तथा अन्य वर्ग के लोग जीविका के लिए देश के भिन्नभिन्न भागों में फैल गए और खड़ी बोली अपने स्वाभाविक देशी रूप में शिष्टों की बोलचाल की भाषा हो गई उसी समय में लोगों का ध्यान उसमें गद्य लिखने की ओर गया। तब तक हिन्दी और उर्दू दोनों का साहित्य पद्यमय ही था। हिन्दी कविता में परंपरागत काव्यभाषा ब्रजभाषा का व्यवहार चला आता था और उर्दू कविता में खड़ी बोली के अरबीफारसी मिश्रित रूप का। जब खड़ी बोली अपने असली रूप में भी चारों ओर फैल गई तब उसकी व्यापकता और भी बढ़ गई और हिन्दी गद्य के लिए उसके ग्रहण में सफलता की संभावना दिखाई पड़ी। +इसीलिए जब संवत् 1860 में फोर्ट विलियम कॉलेज (कलकत्ता) के हिन्दी उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों के लिए अलग अलग प्रबंध किया। इसका मतलब यही है कि उन्होंने उर्दू से स्वतंत्र हिन्दी खड़ी बोली का अस्तित्व भाषा के रूप में पाया। फोर्ट विलियम कॉलेज के आश्रय में लल्लूलालजी गुजराती ने खड़ी बोली के गद्य में 'प्रेमसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' लिखा। अत: खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ानेवाले चार महानुभाव हुए हैं , मुंशी सदासुख लाल, सैयद इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र। ये चारों लेखक संवत् 1860 के आसपास हुए। +1. मुंशी सदासुखलाल 'नियाज' दिल्ली के रहनेवाले थे। इनका जन्म संवत् 1803 और मृत्यु 1881 में हुई। संवत् 1850 के लगभग ये कंपनी की अधीनता में चुनार (जिला , मिर्जापुर) में एक अच्छे पद पर थे। इन्होंने उर्दू और फारसी में बहुत सी किताबें लिखी हैं और काफी शायरी की है। अपनी 'मुंतखबुत्तावारीख' में अपने संबंध में इन्होंने जो कुछ लिखा है उससे पता चलता है कि 65 वर्ष की अवस्था में ये नौकरी छोड़कर प्रयाग चले गए और अपनी शेष आयु वहीं हरिभजन में बिताई। उक्त पुस्तक संवत् 1875 में समाप्त हुई जिसके छह वर्ष उपरांत इनका परलोकवास हुआ। मुंशीजी ने विष्णुपुराण से कोई उपदेशात्मक प्रसंग लेकर एक पुस्तक लिखी थी, जो पूरी नहीं मिली है। कुछ दूर तक सफाई के साथ चलने वाला गद्य जैसा 'भाषायोगवासिष्ठ' का था वैसा ही मुंशीजी की इस पुस्तक में दिखाई पड़ा। उसका थोड़ा-सा अंश नीचे उध्दृत किया जाता है , +इससे जाना गया कि संस्कार का भी प्रमाण नहीं; आरोपित उपाधि है। जो क्रिया उत्तम हुई तो सौ वर्ष में चांडाल से ब्राह्मण हुए और जो क्रिया भ्रष्ट हुई तो वह तुरंत ही ब्राह्मण से चांडाल होता है। यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर नहीं। जो बात सत्य होय उसे कहना चाहिए कोई बुरा माने कि भला माने। विद्या इसी हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका (जो) सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए। इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कह के लोगों को बहकाइए और फुसलाइए और सत्य छिपाइए, व्यभिचार कीजिए और सुरापान कीजिए और धान द्रव्य इकठौर कीजिए और मन को, कि तमोवृत्ति से भर रहा है निर्मल न कीजिए। तोता है सो नारायण का नाम लेता है, परंतु उसे ज्ञान तो नहीं है। +मुंशीजी ने यह गद्य न तो किसी अंगरेज अधिकारी की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा। वे एक भगवद्भक्त थे। अपने समय में उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा चारों ओर , पूरबी प्रांतों में भी , प्रचलित पाई उसी में रचना की। स्थान स्थान पर शुद्ध तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने उसके भावी साहित्यिक रूप का पूर्ण आभास दिया। यद्यपि वे खास दिल्ली के रहने वाले अह्लेजबान थे पर उन्होंने अपने हिन्दी गद्य में कथावाचकों, पंडितों और साधु संतों के बीच दूर दूर तक प्रचलित खड़ी बोली का रूप रखा, जिसमें संस्कृत शब्दों का पुट भी बराबर रहता था। इसी संस्कृतमिश्रित हिन्दी को उर्दूवाले 'भाषा' कहते थे जिसका चलन उर्दू के कारण कम होते देख मुंशी सदासुख ने इस प्रकार खेद प्रकट किया था , +रस्मौ रिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया। +सारांश यह कि मुंशीजी ने हिंदुओं की शिष्ट बोलचाल की भाषा ग्रहण की, उर्दू से अपनी भाषा नहीं ली। इन प्रयोगों से यह बात स्पष्ट हो जाती है , +स्वभाव करके वे दैत्य कहलाए। बहुत जाधा चूक हुई। उन्हीं लोगों से बन आवै है। जो बात सत्य होय। +काशी पूरब में है पर यहाँ के पंडित सैकड़ों वर्ष से 'होयगा', 'आवता है', 'इस करके' आदि बोलते चले आते हैं। ये सब बातें उर्दू से स्वतंत्र खड़ी बोली के प्रचार की सूचना देती हैं। +2. इंशाअल्ला खाँ उर्दू के बहुत प्रसिद्ध शायर थे जो दिल्ली के उजड़ने पर लखनऊ चले आए थे। इनके पिता मीर माशाअल्ला खाँ कश्मीर से दिल्ली आए थे जहाँ वे शाही हकीम हो गए थे। मोगल सम्राट की अवस्था बहुत गिर जाने पर हकीम साहब मुर्शिदाबाद के नवाब के यहाँ चले गए थे। मुर्शिदाबाद ही में इंशा का जन्म हुआ। जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला मारे गए और बंगाल में अंधेर मचा तब इंशा, जो पढ़ लिखकर अच्छे विद्वान और प्रतिभाशाली कवि हो चुके थे, दिल्ली चले आए और शाहआलम दूसरे के दरबार में रहने लगे। वहाँ जब तक रहे अपनी अद्भुत प्रतिभा के बल से अपने विरोधी, बड़े बड़े नामी शायरों को ये बराबर नीचा दिखाते रहे। जब गुलामकादिर बादशाह को अंधा करके शाही खजाना लूटकर चल दिया तब इंशा का निर्वाह दिल्ली में कठिन हो गया और वे लखनऊ चले आए। जब संवत् 1855 में नवाब सआदतअली खाँ गद्दी पर बैठे तब ये उनके दरबार में आने जाने लगे। बहुत दिनों तक इनकी बड़ी प्रतिष्ठा रही पर अंत में एक दिल्लगी की बात पर इनका वेतन आदि सब बंद हो गया था और इनके जीवन का अंतिम भाग बड़े कष्ट में बीता। संवत् 1875 में इनकी मृत्यु हुई। +इंशा ने 'उदयभानचरित या रानी केतकी की कहानी' संवत् 1855 और 1860 के बीच लिखी होगी। कहानी लिखने का कारण इंशा साहब यों लिखते हैं , +एक दिन बैठे बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जा के मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो।...अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे, पुराने धुराने डाँग, बूढ़े घाघ यह खटराग लाए...और लगे कहने, यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बस, जैसे भले लोग , अच्छों से अच्छे , आपस में बोलते चालते हैं ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो। यह नहीं होने का। +इससे स्पष्ट है कि इंशा का उद्देश्य ठेठ हिन्दी लिखने का था जिसमें हिन्दी को छोड़कर और किसी बोली का पुट न रहे। उध्दृत अंश में 'भाखापन' शब्द ध्यान देने योग्य है। मुसलमान लोग भाषा शब्द का व्यवहार साहित्यिक हिन्दी भाषा के लिए किया करते थे जिसमें आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द आते थे , चाहे वह ब्रजभाषा हो, चाहे खड़ी बोली। तात्पर्य यह कि संस्कृतमिश्रित हिन्दी को ही उर्दूफारसी वाले 'भाषा' कहा करते थे। 'भाखा' से खास ब्रजभाषा का अभिप्राय उनका नहीं होता था, जैसा कुछ लोग भ्रमवश समझते हैं। जिस प्रकार वे अपनी अरबीफारसी मिली हिन्दी को उर्दू कहते थे उसी प्रकार संस्कृत मिली हिन्दी को 'भाखा'। भाषा का शास्त्रीय दृष्टि से विचार न करने वाले या उर्दू की ही तालीम खासतौर पर पाने वाले कई नए पुराने हिन्दी लेखक इस 'इस भाखा' शब्द के चक्कर में पड़कर ब्रजभाषा को हिन्दी कहने में संकोच करते हैं। 'खड़ी बोली पद्य' का झंडा लेकर घूमनेवाले स्वर्गीय बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री चारों ओर घूम घूमकर कहा करते थे कि अभी हिन्दी में कविता हुई कहाँ, सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है वह तो 'भाखा' है 'हिन्दी' नहीं। संभव है इस सड़े गड़े खयाल को लिए अब भी कुछ लोग पड़े हों। +इंशा ने अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखने की प्रतिज्ञा की है , बाहर की बोली = अरबी, फारसी, तुरकी। गँवारी = ब्रजभाषा, अवधी आदि। भाखापन = संस्कृत के शब्दों का मेल। +इस बिलगाव से, आशा है, ऊपर लिखी बात स्पष्ट हो गई होगी। इंशा ने 'भाखापन' और 'मुअल्लापन' दोनों को दूर रखने का प्रयत्न किया, पर दूसरी बला किसी न किसी सूरत में कुछ लगी रह गई। फारसी के ढंग का वाक्यविन्यास कहींकहीं, विशेषत: बड़े वाक्यों में आ ही गया है; पर बहुत कम। जैसे , +'सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया।' +'इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को।' +'यह चिट्ठी जो बिसभरी कुँवर तक जा पहुँची।' +आरंभकाल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है। पहली बात यह है कि खड़ी बोली उर्दू कविता में पहले बहुत कुछ मँज चुकी थी जिससे उर्दूवालों के सामने लिखते समय मुहावरे आदि बहुतायत से आया करते थे। दूसरी बात यह है कि इंशा रंगीन और चुलबुली भाषा द्वारा अपना लेखन कौशल दिखाना चाहते थे। 1 मुंशी सदासुखलाल भी दिल्ली खास के थे और उर्दू साहित्य का अभ्यास भी पूरा रखते थे, पर वे धर्मभाव से जानबूझकर अपनी भाषा गंभीर और संयत रखना चाहते थे। सानुप्रास विराम भी इंशा के गद्य में बहुत स्थलों पर मिलते हैं, जैसे , +जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन भादों के रूप रोने लगी और दोनों के जी में यह आ गई , यह कैसी चाहत जिनमें लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा। +इंशा के समय तक वर्तमान कृदंत या विशेषण और विशेष्य के बीच का समानाधिकरण कुछ बना हुआ था, जो उनके गद्य में जगह-जगह पाया जाता है, जैसे , +आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं। उसके बिना ध्यान यह सब फाँसेहैं॥ +घरवालियाँ जो किसी डौल से बहलातियाँ हैं। +इन विचित्रताओं के होते हुए भी इंशा ने जगह जगह बड़ी प्यारी घरेलू ठेठ भाषा का व्यवहार किया है और वर्णन भी सर्वथा भारतीय रखे हैं। इनकी चलती चटपटी भाषा का नमूना देखिए , +इस बात पर पानी डाल दो नहीं तो पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती तो मेरे मुँह से जीतेजी न निकलती, पर यह बात मेरे पेट नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड़ हो, तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर वह भभूत जो वह मुआ निगोड़ा भूत, मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी। +3. लल्लूलालजी ये आगरे के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इनका जन्म संवत् 1820 में और मृत्यु संवत् 1882 में हुई। संस्कृत के विशेष जानकार तो ये नहीं जान पड़ते, पर भाषा कविता का अभ्यास इन्हें था। उर्दू भी कुछ जानते थे। संवत् 1860 में कलकत्ता के फोर्टविलियम कॉलेज के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में 'प्रेमसागर' लिखा जिसमें भागवत दशमस्कंध की कथा वर्णन की गई है। इंशा के समान इन्होंने केवल ठेठ हिन्दी लिखने का संकल्प तो नहीं किया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा अवश्य लक्षित होती है। यदि ये उर्दू न जानते होते तो अरबी फारसी के शब्द बचाने में उतने कृतकार्य कभी न होते जितने हुए। बहुतेरे अरबी फारसी के शब्द बोलचाल की भाषा में इतने मिल गए थे कि उन्हें केवल संस्कृत हिन्दी जानने वाले के लिए पहचानना भी कठिन था। मुझे एक पंडितजी का स्मरण है जो 'लाल' शब्द तो बराबर बोलते थे, पर 'कलेजा' और 'बैगन' शब्दों को म्लेच्छ भाषा के समक्ष बचाते थे। लल्लूलाल जी अनजान में कहीं कहीं ऐसे शब्द लिख गए हैं जो फारसी या तुरकी के हैं। जैसे 'बैरख' शब्द तुरकी का 'बैरक' है, जिसका अर्थ झंडा है। प्रेमसागर में यह शब्द आया है देखिए , +शिवजी ने एक धवजा बाणासुर को दे के कहा इस बैरख को ले जाय। +पर ऐसे शब्द दो ही चार जगह आए हैं। +यद्यपि मुंशी सदासुखलाल ने भी अरबीफारसी के शब्दों का प्रयोग न कर संस्कृतमिश्रित साधु भाषा लिखने का प्रयत्न किया है पर लल्लूलाल की भाषा से उसमें बहुत कुछ भेद दिखाई पड़ता है। मुंशीजी की भाषा साफसुथरी खड़ी बोली है पर लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की-सी ब्रजरंजित खड़ी बोली है। 'सम्मुख जाय', 'सिर नाय', 'सोई', 'भई', 'कीजै', 'निरख', 'लीजौ' ऐसे शब्द बराबर प्रयुक्त हुए हैं। अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी। दोनों की भाषाओं में अंतर इतना ही है कि गंग ने इधर उधर फारसी अरबी के प्रचलित शब्द भी रखे हैं पर लल्लूलालजी ने ऐसे शब्द बचाए हैं। भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है। विरामों पर तुकबंदी के अतिरिक्त वर्णन वाक्य भी बड़े बड़े आए हैं और अनुप्रास भी यत्रा-तत्रा हैं। मुहावरों का प्रयोग कम है। सारांश यह कि लल्लूलालजी का 'काव्याभास' गद्यभक्तों की कथावार्ता के काम का ही अधिकतर है, न नित्य व्यवहार के अनुकूल है, न संबद्ध विचारधारा के योग्य। प्रेमसागर से दो नमूने नीचे दिए जाते हैं , +श्रीशुकदेव मुनि बोले , महाराज! ग्रीष्म की अति अनीति देख, नृप पावस प्रचंड पशु पक्षी, जीव जंतुओं की दशा विचार चारों ओर से दल बादल साथ ले लड़ने को चढ़ आया। तिस समय घन जो गरजता था सोई तौ धौंसा बजता था और वर्ण वर्ण की घटा जो घिर आई थी सोई शूर वीर रावत थे, तिनके बीच बिजली की दमक शस्त्रा की सी चमकती थी, बगपाँत ठौर ठौर धवज-सी फहराय रही थी, दादुर, मोर, कड़खैतों की सी भाँति यश +बखानते थे और बड़ी बड़ी बूँदों की झड़ी बाणों की सी झड़ी लगी थी। +इतना कह महादेव जी गिरजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वतीजी को वस्त्र आभूषण पहिराने। निदान अति आनंद में मग्न हो डमरू बजाय बजाय तांडव नाच नाच, संगीतशास्त्र की रीति से गाय गाय लगे रिझाने। +जिस काल ऊषा बारह वर्ष की हुई तो उसके मुखचंद्र की ज्योति देख पूर्णमासी का चंद्रमा छबिछीन हुआ, बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की अंधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचुली छोड़ सटक गई। भौंह की बँकाई निरख धानुष धकधकाने लगा; ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे। +लल्लूलाल ने उर्दू, खड़ी बोली हिन्दी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। ये संस्कृत नहीं जानते थे। ब्रजभाषा में लिखी हुई कथाओं और कहानियों को उर्दू और हिन्दी गद्य में लिखने के लिए इनसे कहा गया था जिसके अनुसार इन्होंने सिंहासनबत्तीसी, बैतालपचीसी, शकुंतला नाटक, माधोनल और प्रेमसागर लिखे। प्रेमसागर के पहले की चारों पुस्तकें बिल्कुल उर्दू में हैं। इनके अतिरिक्त संवत् 1869 में इन्होंने 'राजनीति' के नाम से हितोपदेश की कहानियाँ (जो पद्य में लिखी जा चुकी थीं) ब्रजभाषा गद्य में लिखी। 'माधवविलास' और 'सभाविलास' नाम से ब्रजभाषा पद्य के संग्रह ग्रंथ भी इन्होंने प्रकाशित किए थे। इनकी 'लालचंद्रिका' नाम की बिहारी सतसई की टीका भी प्रसिद्ध है। इन्होंने अपना एक निज का प्रेस कलकत्तो में (पटलडाँगे) में खोला था जिसे ये संवत् 1881 में फोर्टविलियम कॉलेज की नौकरी से पेंशन लेने पर, आगरे लेते गए। आगरे में प्रेस जमाकर ये एक बार फिर कलकत्ते गए जहाँ इनकी मृत्यु हुई। अपने प्रेस का नाम इन्होंने 'संस्कृत प्रेस' रखा था, जिसमें अपनी पुस्तकों के अतिरिक्त ये रामायण आदि पुरानी पोथियाँ भी छापा करते थे। इनके प्रेस की छपी पुस्तकों की लोग बहुत आदर करते थे। +4. सदल मिश्र ये बिहार के रहनेवाले थे। फोर्टविलियम कॉलेज में काम करते थे। जिस प्रकार उक्त कॉलेज के अधिकारियों की प्रेरणा से लल्लूलाल ने खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयार की उसी प्रकार इन्होंने भी। इनका 'नासिकेतोपाख्यान' भी उसी समय लिखा गया जिस समय 'प्रेमसागर'। पर दोनों की भाषा में बहुत अंतर है। लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान स्थान पर समावेश। इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहाँ तक हो सकता है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है। पर इनकी भाषा भी साफ सुथरी नहीं। ब्रजभाषा के भी कुछ रूप हैं और पूरबी बोली के शब्द तो स्थान स्थान पर मिलते हैं। 'फूलन्ह के बिछौने', 'चहुँदिस', 'सुनि', 'सोनन्ह के थंभ' आदि प्रयोग ब्रजभाषा के हैं, 'इहाँ', 'मतारी', 'बरते थे', 'जुड़ाई', 'बाजने', 'लगा', 'जौन' आदि पूरबी शब्द हैं। भाषा के नमूने के लिए 'नासिकेतोपाख्यान' से थोड़ा सा अवतरण नीचे दिया जाता है , +इस प्रकार के नासिकेत मुनि यम की पुरी सहित नरक का वर्णन कर फिर जौन जौन कर्म किए से जो भोग होता है सो सब ऋषियों को सुनाने लगे कि गौ, ब्राह्मण, माता पिता, मित्र, बालक, स्त्री, स्वामी, वृद्ध गुरु इनका जो बधा करते हैं वो झूठी साक्षी भरते, झूठ ही कर्म में दिन रात लगे रहते हैं, अपनी भार्य्या को त्याग दूसरे की स्त्री को ब्याहते, औरों की पीड़ा देख प्रसन्न होते हैं और जो अपने धर्म से हीन पाप ही में गड़े रहते हैं वो माता-पिता की हित की बात को नहीं सुनते, सबसे बैर करते हैं, ऐसे जो पापी जन हैं सो महा डेरावने दक्षिण द्वार से जा नरकों में पड़ते हैं। +गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपर्युक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो में मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्व की है। मुंशी सदासुख ने लेखनी भी चारों में पहले उठाई अत: गद्य का प्रवर्तन करनेवालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए। +संवत् 1860 के लगभग हिन्दी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखंड परंपरा उस समय से नहीं चली। इधर उधर दो-चार पुस्तकें अनगढ़ भाषा में लिखी गई हों तो लिखी गई हों पर साहित्य के योग्य स्वच्छ सुव्यवस्थित भाषा में लिखी कोई पुस्तक संवत् 1915 के पूर्व की नहीं मिलती। संवत् 1881 में किसी ने 'गोरा बादल री बात' का, जिसे राजस्थानी पद्यों में जटमल ने संवत् 1680 में लिखा था, खड़ी बोली के गद्य में अनुवाद किया। अनुवाद का थोड़ासा अंश देखिए , +गोरा बादल की कथा गुरु के बल, सरस्वती के मेहरबानगी से पूरन भई। तिस वास्ते गुरु कूँ व सरस्वती कूँ नमस्कार करता हूँ। ये कथा सोल: से असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई। ये कथा में दो रस हैं वीररस व सिंगाररस है, सो कथा मोरछड़ो नाँव गाँव का रहने वाला कबेसर। +उस गाँव के लोग भोहोत सुखी हैं। घर घर में आनंद होता है, कोई घर में फकीर दीखता नहीं। +संवत् 1860 और 1915 के बीच का काल गद्यरचना की दृष्टि से प्राय: शून्य ही मिलता है। संवत् 1914 के बलवे के पीछे ही हिन्दी गद्य साहित्य की परंपरा अच्छी तरह चली। +संवत् 1860 के लगभग हिन्दी गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई उसका उस समय यदि किसी ने लाभ उठाया तो ईसाई धर्मप्रचारकों ने, जिन्हें अपने मत को साधारण जनता के बीच फैलाना था। सिरामपुर उस समय पादरियों का प्रधान अड्डा था। विलियम केरे (ॅपससपंउ ब्ंतमल) तथा और कई अंगरेज पादरियों के उद्योग से इंजील का अनुवाद उत्तर भारत की कई भाषाओं में हुआ। कहा जाता है कि बाइबिल का हिन्दी अनुवाद स्वयं केरे साहब ने किया। संवत् 1866 में उन्होंने 'नए धर्म नियम' का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया और संवत् 1875 में समग्र ईसाई धर्म पुस्तक का अनुवाद पूरा हुआ। इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि इन अनुवादकों ने सदासुख और लल्लूलाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिल्कुल दूर रखा, इससे यही सूचित होता है कि फारसीअरबी मिली भाषा से साधारण जनता का लगाव नहीं था जिसके बीच मत का प्रचार करना था। जिस भाषा में साधारण हिन्दू जनता अपने कथापुराण कहतीसुनती आती थी उसी भाषा का अवलंबन ईसाई उपदेशकों को आवश्यक दिखाई पड़ा। जिस संस्कृत मिश्रित भाषा का विरोध करना कुछ लोग एक फैशन समझते हैं उससे साधारण जनसमुदाय उर्दू की अपेक्षा कहीं अधिक परिचित रहा है और है। जिन अंग्रेजों को उत्तर भारत में रहकर केवल मुंशियों और खानसामों की ही बोली सुनने का अवसर मिलता है वे अब भी उर्दू या हिंदुस्तानी को यदि जनसाधारण की भाषा समझा करें तो कोई आश्चर्य नहीं। पर उन पुराने पादरियों ने जिस शिष्ट भाषा में जनसाधारण को धर्म और ज्ञान आदि के उपदेश सुनतेसुनाते पाया उसी को ग्रहण किया। +ईसाइयों ने अपनी धर्मपुस्तक के अनुवाद की भाषा में फारसी और अरबी के शब्द जहाँ तक हो सका है नहीं लिए हैं और ठेठ ग्रामीण शब्द तक बेधाड़क रखे गए हैं। उनकी भाषा सदासुख और लल्लूलाल के ही नमूने पर चली है। उसमें जो कुछ विलक्षणतासी दिखाई पड़ती है वह मूल विदेशी भाषा की वाक्यरचना और शैली के कारण। 'प्रेमसागर' के समान ईसाई धर्मपुस्तक में भी 'करने वाले' के स्थानपर 'करनहारे', 'तक' के स्थान पर 'लौ', 'कमरबंद' के स्थान पर 'पटुका' प्रयुक्त हुए हैं। पर लल्लूलाल के इतना ब्रजभाषापन नहीं आने पाया है। 'आय', 'जाय' का व्यवहार न होकर 'आके', 'जाके' व्यवहृत हुए हैं। सारांश यह कि ईसाई मतप्रचारकों ने विशुद्ध हिन्दी का व्यवहार किया है। एक नमूना नीचे दिया जाता है , +तब यीशु योहन से बपतिस्मा लेने को उस पास शालील से यर्दन के तीर पर आया। परंतु योहन यह कह कर उसे बर्जने लगा कि मुझे आपके हाथ से बपतिस्मा लेना अवश्य है और क्या आप मेरे पास आते हैं! यीशु ने उसको उत्तर दिया कि अब ऐसा होने दे क्योंकि इसी रीति से सब धर्म को पूरा करना चाहिए। यीशु बपतिस्मा लेके तुरन्त जल के ऊपर आया और देखो उसके लिए स्वर्ग खुल गया और उसने ईश्वर के आत्मा को कपोत के नाईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा, और देखो यह आकाशवाणी हुई कि यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अति प्रसन्न हूँ। +इसके आगे ईसाइयों की पुस्तकें और पंफलेट बराबर निकलते रहे। उक्त 'सिरामपुर प्रेस' से संवत् 1893 में 'दाऊद के गीतें' नाम की पुस्तक छपी जिसकी भाषा में कुछ फारसी अरबी के बहुत चलते शब्द भी रखे मिलते हैं। पर इसके पीछे अनेक नगरों से बालकों की शिक्षा के लिए ईसाइयों के छोटे मोटे स्कूल खुलने लगे और शिक्षा संबंधी पुस्तकें भी निकलने लगीं। इन पुस्तकों की हिन्दी भी वैसी ही सरल और विशुद्ध होती थी जैसी 'बाइबिल' के अनुवाद की थी। आगरा, मिर्जापुर, मुंगेर आदि जिले उस समय ईसाइयों के प्रचार के मुख्य केंद्र थे। +अंग्रेजी की शिक्षा के लिए कई स्थानों पर स्कूल और कॉलेज खुल चुके थे जिनमें अंग्रेजी के साथ हिन्दी, उर्दू की पढ़ाई भी कुछ चलती थी। अत: शिक्षा संबंधी पुस्तकों की माँग संवत् 1900 के पहले ही पैदा हो गई थी। शिक्षा संबंधिनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए संवत् 1890 के लगभग आगरा में पादरियों की एक 'स्कूल बुक सोसाइटी' स्थापित हुई थी जिसमें संवत् 1894 में इंग्लैंड के एक इतिहास का और संवत् 1896 में मार्शमैन साहब के 'प्राचीन इतिहास का अनुवाद', 'कथासार' के नाम से प्रकाशित किया। 'कथासार' के लेखक या अनुवादक पं. रतनलाल थे। इसके संपादक पादरी मूर साहब ;श्रण् श्रण् डववतमद्ध ने अपने छोटे से अंग्रेजी वक्तव्य में लिखा था कि यदि सर्वसाधारण से इस पुस्तक को प्रोत्साहन मिला तो इसका दूसरा भाग 'वर्तमान इतिहास' भी प्रकाशित किया जायगा। भाषा इस पुस्तक की विशुद्ध और पंडिताऊ है। 'की' के स्थान पर 'करी' और 'पाते हैं' के स्थान पर 'पावते हैं' आदि प्रयोग बराबर मिलते हैं। भाषा का नमूना यह है , +परंतु सोलन की इन अत्युत्ताम व्यवस्थाओं से विरोधभंजन न हुआ। पक्षपातियों के मन का क्रोध न गया। फिर कुलीनों में उपद्रव मचा और इसलिए प्रजा की सहायता से पिसिसटे्रटस नामक पुरुष सबों पर पराक्रमी हुआ। इसने सब उपाधियों को दबाकर ऐसा निष्कंटक राज्य किया कि जिसके कारण वह अनाचारी कहाया, तथापि यह उस काल में दूरदर्शी और बुद्धि मानों में अग्रगण्य था। +आगरे की उक्त सोसाइटी के लिए संवत् 1897 में पंडित ओंकार भट्ट ने 'भूगोल सार' और संवत् 1904 में पं. बद्रीलाल शर्मा ने 'रसायन प्रकाश' लिखा। कलकत्तो में भी ऐसी ही एक स्कूल बुक सोसाइटी थी जिसने 'पदार्थ विद्यासागर' (संवत् 1903) आदि कई वैज्ञानिक पुस्तकें निकाली थीं। इसी प्रकार कुछ रीडरें भी मिशनरियों के छापेखाने से निकली थीं , जैसे 'आजमगढ़ रीडर' जो इलाहाबाद मिशन प्रेस से संवत् 1897 में प्रकाशित हुई थी। +बलवे के कुछ पहले ही मिर्जापुर में ईसाइयों का एक 'आरफेन प्रेस' खुला था जिससे शिक्षा संबंधिनी कई पुस्तकें शेरिंग साहब के संपादन में निकली थीं, जैसे , भूचरित्रदर्पण, भूगोलविद्या, मनोरंजक वृत्तांत, जंतुप्रबंध, विद्यासार, विद्वान संग्रह। ये पुस्तकें संवत् 1912 और 1919 के बीच की हैं। तब से मिशन सोसाइटियों के द्वारा बराबर, विशुद्ध हिन्दी में पुस्तकें और पंफलेट आदि छपते आ रहे हैं जिनमें कुछ खंडन मंडन, उपदेश और भजन आदि रहा करते थे। 'आसी' और 'जान' के भजन देशी ईसाइयों मे बहुत प्रचलित हुए और अब तक गाए जाते हैं। सारांश यह कि हिन्दी गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा है। शिक्षा संबंधिनी पुस्तकें तो पहले पहल उन्होंने तैयार कीं। इन बातों के लिए हिन्दी प्रेमी उनके सदा कृतज्ञ रहेंगे। +कहने की आवश्यकता नहीं कि ईसाइयों के प्रचारकार्य का प्रभाव हिंदुओं की जनसंख्या पर ही पड़ रहा था। अत: हिंदुओं के शिक्षित वर्ग के बीच स्वधर्म रक्षा की आकुलता दिखाई पड़ने लगी। ईसाई उपदेशक हिंदू धर्म की स्थूल और बाहरी बातों को लेकर ही अपना खंडन-मंडन चलाते आ रहे थे। यह देखकर बंगाल में राजा राममोहन राय उपनिषद् और वेदांत का ब्रह्मज्ञान लेकर उसका प्रचार करने खड़े हुए। नूतन शिक्षा के प्रभाव से पढ़े लिखे लोगों में से बहुतों के मन में मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जातिपाँति, छुआछूत आदि के प्रति अश्रध्दा हो रही थी। अत: राममोहन राय ने इन बातों को अलग करके शुद्ध ब्रह्मोपासना का प्रवर्तन करने के लिए 'ब्रह्मसमाज' की नींव डाली। संवत् 1872 में उन्होंने वेदांत सूत्रों के भाष्य का हिन्दी अनुवाद करके प्रकाशित कराया था। संवत् 1886 में उन्होंने 'बंगदूत' नाम का एक संवाद पत्र भी हिन्दी में निकाला। राजा साहब की भाषा में एकआधा जगह कुछ बँग्लापन जरूर मिलता है, पर उसका रूप अधिकांश में वही है जो शास्त्रज्ञ विद्वानों के व्यवहार में आता था। नमूना देखिए , +जो सब ब्राह्मण सांग वेद अध्ययन नहीं करते सो सब व्रात्य हैं, यह प्रमाण करने की इच्छा करके ब्राह्मण धर्मपरायण श्री सुब्रह्मण्य शास्त्रीजी ने जो पत्र सांगवेदाधययनहीन अनेक इस देश के ब्राह्मणों के समीप पठाया है, उसमें देखा जो उन्होंने लिखा है , वेदाधययनहीन मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष होने शक्ता नहीं। +कई नगरों में, जिनमें कलकत्ता मुख्य था, अब छापेखाने हो गए थे। बंगाल से कुछ अंग्रेजी और कुछ बँग्ला के पत्र भी निकलने लगे थे जिनके पढ़नेवाले भी हो गए थे। इस परिस्थिति में पं. जुगुलकिशोर ने, जो कानपुर के रहनेवाले थे, संवत् 1883 में 'उदंत मार्तंड' नाम का एक संवाद पत्र निकाला जिसे हिन्दी का पहला समाचार पत्र समझना चाहिए जैसा कि उसके इस लेख से प्रकट होता है , +यह उदंत मार्तंड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बँगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ ओ समझ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करें ओ अपने भाषे की उपज न छोड़ें इसलिए श्रीमान गवरनर जनरल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा। जो कोई प्रशस्त लोग इस खबर के कागज के लेने की इच्छा करें तो अमड़ा तला की गली 37 अंक मार्तंड छापाघर में अपना नाम ओ ठिकाना भेजने ही से सतवारे के सतवारे यहाँ के रहने वाले घर बैठे ओ बाहिर के रहने वाले डाक पर कागज पाया करेंगे। +यह पत्र एक ही वर्ष चलकर सहायता के अभाव में बंद हो गया। इसमें 'खड़ी बोली' का 'मध्यदेशीय भाषा' के नाम से उल्लेख किया गया है। भाषा का स्वरूप दिखाने के लिए कुछ और उदाहरण दिए जाते हैं , +1. एक यशी वकील वकालत का काम करते करते बुङ्ढा होकर अपने दामाद को यह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला , हे महाराज! आपने जो फलाने का पुराना वो संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ। यह सुनकर वकील पछता करके बोला , तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बड़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठाकर के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भलीभाँति अपना दिन कटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप कर समझा था कि तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसे खो बैठे। +2. 19 नवंबर को अवधबिहारी बादशाह के आवने की तोपें छूटीं। उस दिन तीसरे पहर को र्प्टांलग साहिब ओ हेल साहिब ओ मेजर फिडल लार्ड साहिब की ओर से अवधबिहारी की छावनी में जा करके बड़े साहिब का सलाम कहा और भोर होके लार्ड साहिब के साथ हाजिरी करने का नेवता किया। फिर अवधबिहारी बादशाह के जाने के लिए कानपुर के तले गंगा में नावों की पुलबंदी हुई और बादशाह बड़े ठाट से गंगा पार हो गवरनर जेनरल बहादुर के सन्निद्ध गए। +रीतिकाल के समाप्त होते होते अंग्रेजी राज्य देश में पूर्ण रूप में स्थापित हो गया। इस राजनीतिक घटना के साथ देशवासियों की शिक्षाविधि में भी परिवर्तन हो चला। अंगरेज सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार की व्यवस्था की। संवत् 1854 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी के डाइरेक्टरों के पास अंग्रेजी की शिक्षा द्वारा भारतवासियों को शिक्षित बनाने का परामर्श भेजा गया था। पर उस समय उस पर कुछ न हुआ। पीछे राजा राममोहन राय प्रभृति कुछ शिक्षित और प्रभावशाली सज्जनों के उद्योग से अंग्रेजी की पढ़ाई के लिए कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की स्थापना हुई जिसमें से लोग अंग्रेजी पढ़ पढ़कर निकलने और सरकारी नौकरियाँ पाने लगे। देशी भाषा पढ़कर भी कोई शिक्षित हो सकता है, यह विचार उस समय तक लोगों को न था। अंग्रेजी के सिवाय यदि किसी भाषा पर ध्यान जाता था तो संस्कृत या अरबी पर। संस्कृत की पाठशालाओं और अरबी के मदरसों को कंपनी की सरकार से थोड़ी बहुत सहायता मिलती आ रही थी पर अंग्रेजी के शौक के सामने इन पुरानी संस्थाओं की ओर से लोग उदासीन होने लगे। इनको जो सहायता मिलती थी धीरे धीरे वह भी बंद हो गई। कुछ लोगों ने इन प्राचीन भाषाओं की शिक्षा का पक्ष ग्रहण किया था पर मेकाले ने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा का इतने जोरों के साथ समर्थन किया और पूरबी साहित्य के प्रति ऐसी उपेक्षा प्रकट की कि अंत में संवत् 1892 (मार्च 7, सन् 1835) में कंपनी की सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे धीरे अंग्रेजी के स्कूल खुलने लगे। +अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था हो जाने पर अंग्रेजी सरकार का ध्यान अदालती भाषा की ओर गया। मोगलों के समय में अदालती कार्रवाइयाँ और दफ्तर के सारे काम फारसी भाषा में होते थे जब अंग्रेजों का आधिापत्य हुआ तब उन्होंने भी दफ्तरों में वही परंपरा जारी रखी। +दफ्तरों की भाषा फारसी रहने तो दी गई, पर उस भाषा और लिपि से जनता के अपरिचित रहने के कारण लोगों को जो कठिनता होती थी उसे कुछ दूर करने के लिए संवत् 1860 में, एक नया कानून जारी होने पर, कंपनी सरकार की ओर से यह आज्ञा निकाली गई , +किसी को इस बात का उजूर नहीं होए कि ऊपर के दफे का लीखा हुकुम सभसे वाकीफ नहीं है, हरी एक जिले के कलीकटर साहेब को लाजीम है कि इस आईन के पावने पर एक केता इसतहारनामा निचे के तरह से फारसी व नागरी भाखा के अच्छर में लिखाय कै...कचहरी में लटकावही। अदालत के जजसाहिब लोग के कचहरी में भी तमामी आदमी के बुझने के वास्ते लटकावही (अंग्रेजी सन् 1803 साल, 31 आईन 20 दफा)। +फारसी के अदालती भाषा होने के कारण जनता को कठिनाइयाँ होती थीं, उनका अनुभव अधिाकाधिक होने लगा। अत: सरकार ने संवत् 1893 (सन् 1836ई ) में 'इश्तहारनामे' निकाले कि अदालती सब काम देश की प्रचलित भाषाओं में हुआ करें। हमारे संयुक्त प्रदेश के सदर बोर्ड की तरफ से जो 'इश्तहारनामा' हिन्दी में निकलता था उसकी नकल नीचे दी जाती है , +इश्तहारनामा : बोर्ड सदर +पच्छाँह के सदर बोर्ड के साहिबों ने यह ध्यान किया है कि कचहरी के सब काम फारसी जबान में लिखा पढ़ा होने से सब लोगों का बहुत हर्ज पड़ता है और बहुत कलप होता है, और जब कोई अपनी अर्जी अपनी भाषा में लिख के सरकार में दाखिल करने पावे तो बड़ी बात होगी। सबको चैन आराम होगा। इसलिए हुक्म दिया गया है कि 1244 की कुवार बदी प्रथम से जिसका जो मामला सदर व बोर्ड में हो सो अपना अपना सवाल अपनी हिन्दी को बोली में और पारसी के नागरी अच्छरन में लिखे दाखिल करे कि डाक पर भेजे और सवाल जौन अच्छरन में लिखा हो तौने अच्छरन में और हिन्दी बोली में उस पर हुक्म लिखा जायगा। मिति 29 जुलाई, सन् 1836 ई.। +इस इश्तहारनामे में स्पष्ट कहा गया है कि बोली 'हिन्दी' ही हो, अक्षर नागरी के स्थान पर फारसी भी हो सकते हैं। खेद की बात है कि यह उचित व्यवस्था चलने न पाई। मुसलमानों की ओर से इस बात का घोर प्रयत्न हुआ कि दफ्तरों में हिन्दी रहने न पाए, उर्दू चलाई जाय। उनका चक्र बराबर चलता रहा यहाँ तक कि एक वर्ष बाद ही अर्थात् संवत् 1894 (सन् 1837 ई.) में उर्दू हमारे प्रांत के सब दफ्तरों की भाषा कर दी गई। +सरकार की कृपा से खड़ी बोली का अरबी फारसीमय रूप लिखने पढ़ने की अदालती भाषा होकर सबके सामने आ गया। जीविका और मान मर्यादा की दृष्टि से उर्दू सीखना आवश्यक हो गया। देश भाषा के नाम पर लड़कों को उर्दू ही सिखाई जाने लगी। उर्दू पढ़े लिखे लोग ही शिक्षित कहलाने लगे। हिन्दी की काव्यपरंपरा यद्यपि राजदरबारों के आश्रय में चली चलती थी पर उसके पढ़नेवालों की संख्या भी घटती जा रही थी। नवशिक्षित लोगों का लगाव उसके साथ कम होता जा रहा था। ऐसे प्रतिकूल समय में साधारण जनता के साथ उर्दू पढ़े लिखे लोगों की जो भी थोड़ी बहुत दृष्टि अपने पुराने साहित्य की बनी हुई थी, वह धर्मभाव से। तुलसीकृत रामायण्ा की चौपाइयाँ और सूरदास जी के भजन आदि ही उर्दूग्रस्त लोगों का कुछ लगाव 'भाखा' से भी बनाए हुए थे। अन्यथा अपने परंपरागत साहित्य के नवशिक्षित लोगों का मन अधिकांश कालचक्र के प्रभाव से विमुख हो रहा था। श्रृंगाररस की भाषा कविता का अनुशीलन भी गाने बजाने आदि के शौक की तरह इधर उधर बना हुआ था। इस स्थिति का वर्णन करते हुए स्वर्गीय बाबू बालमुकुंद गुप्त लिखते हैं, +जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू बन गई।...हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटीफूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी। +संवत् 1902 में यद्यपि राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग में नहीं आए थे पर विद्याव्यसनी होने के कारण अपनी भाषा हिन्दी की ओर उनका ध्यान था। अत: इधर उधर दूसरी भाषाओं में समाचार पत्र निकलते देख उन्होंने उक्त संवत् में उद्योग करके काशी से 'बनारस अखबार' निकलवाया। पर अखबार पढ़नेवाले पहले पहल नवशिक्षितों में मिल सकते थे जिनकी लिखने पढ़ने की भाषा उर्दू ही हो रही थी। अत: इस पत्र की भाषा भी उर्दू ही रखी गई, यद्यपि अक्षर देवनागरी के थे। यह पत्र बहुत ही घटिया कागज पर लीथो में छपता था। भाषा इसकी यद्यपि गहरी उर्दू होती थी पर हिन्दी की कुछ सूरत पैदा करने के लिए बीच में 'धार्मात्मा', 'परमेश्वर', 'दया' ऐसे कुछ शब्द भी रख दिए जाते थे। इसमें राजा साहब भी कभी कभी कुछ लिख दिया करते थे। इस पत्र की भाषा का अंदाजा नीचे उध्दृत अंश से लग सकता है , +यहाँ जो नया पाठशाला कई साल से जनाब कप्तान किट साहिब बहादुर के इहतिमाम और धार्मात्माओं के मदद से बनता है उसका हाल कई दफा जाहिर हो चुका है।...देखकर लोग उस पाठशाले के किते के मकानों की खूबियाँ अकसर बयान करते हैं और उनके बनने के खर्च की तजबीज करते हैं कि जमा से जियादा लगा होगा और हर तरह से लायक तारीफ के हैं। सो यह सब दानाई साहिब ममदूह की है। +इस भाषा को लोग हिन्दी कैसे समझ सकते थे? अत: काशी से ही एक दूसरा पत्र 'सुधाकर' बाबू तारामोहन मित्र आदि कई सज्जनों के उद्योग से संवत् 1907 में निकला। कहते हैं कि काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषी सुधाकरजी का नामकरण इसी पत्र के नाम पर हुआ था। जिस समय उनके चाचा के हाथ में डाकिए ने यह पत्र दिया था ठीक उसी समय भीतर से उनके पास सुधाकरजी के उत्पन्न होने की खबर पहुँची थी। इस पत्र की भाषा बहुत कुछ सुधारी हुई थी तथा ठीक हिन्दी थी, पर यह पत्र कुछ दिन चला नहीं। इसी समय के लगभग अर्थात् संवत् 1909 में आगरे से मुंशी सदासुखलाल के प्रबंध और संपादन में 'बुद्धि प्रकाश' निकला जो कई वर्ष तक चलता रहा। 'बुद्धि प्रकाश' की भाषा उस समय को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी। नमूना देखिए , +कलकत्ते के समाचार +इस पश्चिमीय देश में बहुतों को प्रगट है कि बंगाले की रीति के अनुसार उस देश के लोग आसन्नमृत्यु रोगी को गंगातट पर ले जाते हैं और यह तो नहीं करते कि उस रोगी के अच्छे होने के लिए उपाय करने में काम करें और उसे यत्न से रक्षा में रक्खें वरन् उसके विपरीत रोगी को जल के तट पर ले जाकर पानी में गोते देते हैं और 'हरी बोल', 'हरी बोल' कहकर उसका जीव लेते हैं। +स्त्रियों की शिक्षा के विषय +स्त्रियों में संतोष और नम्रता और प्रीत यह सब गुण कर्ता ने उत्पन्न किए हैं, केवल विद्या की न्यूनता है, जो यह भी हो तो स्त्रिायाँ अपने सारे ऋण से चुक सकती हैं और लड़कों को सिखानापढ़ाना जैसा उनसे बन सकता है वैसा दूसरों से नहीं। यह काम उन्हीं का है कि शिक्षा के कारण बाल्यावस्था में लड़कों को भूलचूक से बचावें और सरलसरल विद्या उन्हें सिखाएँ। +इस प्रकार हम देखते हैं कि अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी विक्रम की बीसवीं शताब्दी के आरंभ के पहले से ही हिन्दी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी, उसमें पुस्तकें छपने लगीं, अखबार निकलने लगे। पद्य की भाषा ब्रजभाषा ही बनी रही। अब अंगरेज सरकार का ध्यान देशी भाषाओं की शिक्षा की ओर गया और उसकी व्यवस्था की बात सोची जाने लगी। हिन्दी को अदालतों से निकलवाने में मुसलमानों को सफलता हो चुकी थी। अब वे इस प्रयत्न में लगे कि हिन्दी को शिक्षाक्रम में भी स्थान न मिले, उसकी पढ़ाई का भी प्रबंध न होने पाए। अत: सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए जब जगहजगह मदरसे खुलने की बात उठी और सरकार यह विचारने लगी कि हिन्दी का पढ़ना सब विद्यार्थियों के लिए आवश्यक रखा जाय तब प्रभावशाली मुसलमानों की ओर से गहरा विरोध खड़ा किया गया। यहाँ तक कि तंग आकर सरकार को अपना विचार छोड़ना पड़ा और उसने संवत् 1905 (सन् 1848) में यह सूचना निकाली , +ऐसी भाषा का जानना सब विद्यार्थियों के लिए आवश्यक ठहराना जो मुल्क की सरकारी और दफ्तरी जबान नहीं है, हमारी राय में ठीक नहीं है। इसके सिवाय मुसलमान विद्यार्थी, जिनकी संख्या देहली कॉलेज में बड़ी है, इसे अच्छी नजर से नहीं देखेंगे। +हिन्दी के विरोध की यह चेष्टा बराबर बढ़ती गई। संवत् 1911 के पीछे जब शिक्षा का पक्का प्रबंध होने लगा तब यहाँ तक कोशिश की गई कि वर्नाक्यूलर स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा जारी ही न होने पाए। विरोध के नेता थे सर सैयद अहमद साहब जिनका अंग्रेजों के बीच बड़ा मान था। वे हिन्दी को एक गँवारी बोली बताकर अंग्रेजों को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार चेष्टा करते आ रहे थे। इस प्रांत के हिंदुओंमेंराजाशिवप्रसाद अंग्रेजों के उसी ढंग के कृपापात्र थे जिस ढंग से सर सैयद अहमद। अत: हिन्दी की रक्षा के लिए उन्हें खड़ा होना पड़ा और वे बराबर इस संबंध में यत्नशील रहे। इससे हिन्दी उर्दू का झगड़ा बीसों वर्ष तक , भारतेंदु के समय तक , चलता रहा। +'गार्सां द तासी' एक फरांसीसी विद्वान थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् 1896 में 'हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास' लिखा था जिसमें उर्दू के कवियों के साथ हिन्दी के भी कुछ विद्वान कवियों का उल्लेख था। संवत् 1909 (5 दिसंबर, सन् 1852) के अपने व्याख्यान में उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं की युगपद् सत्ता इन शब्दों में स्वीकार की थी , +उत्तर के मुसलमानों की भाषा यानी हिंदुस्तानी उर्दू पश्चिमोत्तार प्रदेश (अब संयुक्त प्रांत) की सरकारी भाषा नियत की गई है। यद्यपि हिन्दी भी उर्दू के साथसाथ उसी तरह बनी हुई है जिस तरह वह फारसी के साथ थी। बात यह है कि मुसलमान बादशाह सदा से एक हिन्दी सेक्रेटरी, जो हिन्दीनवीस कहलाता था और एक फारसी सेक्रेटरी, जिसको फारसीनवीस कहते थे, रखा करते थे, जिससे उनकी आज्ञाएँ दोनों भाषाओं में लिखी जायँ। इस प्रकार अंगरेज सरकार पश्चिमोत्तार प्रदेश में हिंदू जनता के लिए प्राय: सरकारी कानूनों का नागरी अक्षरों में हिन्दी अनुवाद भी उर्दू कानूनी पुस्तकों के साथ देती है। +तासी के व्याख्यानों से पता लगता है कि उर्दू के अदालती भाषा नियत हो जाने पर कुछ दिन सीधी भाषा और नागरी अक्षरों में भी कानूनों और सरकारी आज्ञाओं के हिन्दी अनुवाद छपते रहे। जान पड़ता है कि उर्दू के पक्षपातियों का जोर जब बढ़ा तब उनका छपना एकदम बंद हो गया। जैसा कि अभी कह आए हैं राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के समय तक हिन्दीउर्दू का झगड़ा चलता रहा। गार्सां द तासी ने भी फ्रांस में बैठेबैठे इस झगड़े में योग दिया। ये अरबीफारसी के अभ्यासी और हिंदुस्तानीया उर्दू के अध्यापक थे। उस समय के अधिकांश और यूरोपियनों के समानउनका भी मजहबी संस्कार प्रबल था। यहाँ जब हिन्दी-उर्दू का सवाल उठा तब सर सैयद अहमद, जो अंग्रेजों से मेलजोल रखने की विद्या में एक ही थे, हिन्दी विरोध में और बल लाने के लिए मजहबी नुसखा भी काम में लाए। अंग्रेजों को सुझाया गया कि हिन्दी हिंदुओं की जबान है, जो 'बुतपरस्त' हैं और उर्दू मुसलमानों की जिनके साथ अंग्रेजों का मजहबी रिश्ता है , दोनों 'सामी' या 'पैगंबरी' मत के माननेवाले हैं। +जिस गार्सां द तासी ने संवत् 1909 के आसपास हिन्दी और उर्दू दोनों का रहना आवश्यक समझा था और कभी कहा था कि , +यद्यपि मैं खुद उर्दू का बड़ा भारी पक्षपाती हूँ, लेकिन मेरे विचार में हिन्दी को विभाषा या बोली कहना उचित नहीं। +वही गार्सां द तासी आगे चलकर, मजहबी कट्टरपन की प्रेरणा से, सर सैयद अहमद की भरपेट तारीफ करके हिन्दी के संबंध में फरमाते हैं , +इस वक्त हिन्दी की हैसियत भी एक बोली (डायलेक्ट) की सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग अलग ढंग से बोली जाती है। +हिन्दी उर्दू का झगड़ा उठने पर आपने महजबी रिश्ते के खयाल से उर्दू का पक्ष ग्रहण किया और कहा , +हिन्दी में हिंदू धर्म का आभास है , वह हिंदू धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं। इसके विपरीत उर्दू में इसलामी संस्कृति और आचार व्यवहार का संचय है। इस्लाम भी 'सामी' मत है और एकेश्वरवाद उसका मूल सिध्दांत है; इसीलिए इसलामी तहजीब में ईसाई या मसीही तहजीब की विशेषताएँ पाई जाती हैं। +संवत् 1927 के अपने व्याख्यान में गार्सां द तासी ने साफ खोलकर कहा , +मैं सैयद अहमद खाँ जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा नहीं कहना चाहता हूँ। उर्दू भाषा और मुसलमानों के साथ मेरा जो लगाव है वह कोई छिपी हुई बात नहीं है। मैं समझता हूँ कि मुसलमान लोग कुरान को तो आसमानी किताब मानते ही हैं, इंजील की शिक्षा को भी अस्वीकार नहीं करते; पर हिंदू लोग मूर्तिपूजक होने के कारण इंजील की शिक्षा नहीं मानते। +परंपरा से चली आती हुई देश की भाषा का विरोध और उर्दू का समर्थन कैसे कैसे भावों की प्रेरणा से किया जाता रहा है, यह दिखाने के लिए इतना बहुत है। विरोध प्रबल होते हुए भी जैसे देश भर में प्रचलित अक्षरों और वर्णमाला को छोड़ना असंभव था वैसे ही परंपरा से चले आते हुए हिन्दी साहित्य को भी। अत: अदालती भाषा उर्दू होते हुए भी शिक्षा विधान में देश की असली भाषा हिन्दी को भी स्थान देना ही पड़ा। काव्यसाहित्य तो प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा था। अत: जिस रूप में वह था उसी रूप में उसे लेना ही पड़ा। गद्य की भाषा को लेकर खींचतान आरंभ हुई। इसी खींचतान के समय में राजा लक्ष्मण और राजा शिवप्रसाद मैदान में आए। +संदर्भ +1. अपनी कहानी का आरंभ ही उन्होंने इस ढंग से किया है , जैसे लखनऊ के भाँड़ घोड़ा कुदाते हुए महिफल में आते हैं। +प्रकरण 2 +गद्य साहित्य का आविर्भाव +किस प्रकार हिन्दी के नाम से नागरी अक्षरों में उर्दू ही लिखी जाने लगी थी, इसकी चर्चा 'बनारस अखबार' के संबंध में कर आए हैं। संवत् 1913 में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। उस समय दूसरे विभागों के समान शिक्षाविभाग में भी मुसलमानों का जोर था जिनके मन में 'भाखापन' का डर बराबर समाया रहता था। वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिए 'भाखा' संस्कृत से लगाव रखनेवाली 'हिन्दी', न सीखनी पड़े। अत: उन्होंने पहले तो उर्दू के अतिरिक्त हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती कामों में उर्दू ही काम में लाई जाती है तब एक और जबान का बोझ डालने से क्या लाभ? 'भाखा' में हिंदुओं की कथावार्ता आदि कहते सुन वे हिन्दी को 'गँवारी' बोली भी कहा करते थे। इस परिस्थिति में राजा शिवप्रसाद को हिन्दी की रक्षा के लिए बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। हिन्दी का सवाल जब आता तब मुसलमान उसे 'मुश्किल जबान' कहकर विरोध करते। अत: राजा साहब के लिए उस समय यही संभव दिखाई पड़ा कि जहाँ तक हो सके ठेठ हिन्दी का आश्रय लिया जाय जिसमें कुछ फारसीअरबी के चलते शब्द भी आएँ। उस समय साहित्य के कोर्स के लिए पुस्तकें नहीं थीं। राजा साहब स्वयं तो पुस्तकें तैयार करने में लग ही गए, पं. श्रीलाल और पं. वंशीधार आदि अपने कई मित्रों को भी उन्होंने पुस्तकें लिखने मेंं लगाया। राजा साहब ने पाठयक्रम में उपयोगी कई कहानियाँ आदि लिखीं , जैसे राजा भोज का सपना, वीरसिंह का वृत्तांत, आलसियों को कोड़ा इत्यादि। संवत् 1909 और 1919 के बीच शिक्षा संबंधी अनेक पुस्तकें हिन्दी में निकलीं जिनमें से कुछ का उल्लेख किया जाता है , +पं. वंशीधार ने, जो आगरा नार्मल स्कूल के मुदर्रिस थे, हिन्दी उर्दू का एक पत्र निकाला था जिसके हिन्दी कॉलम का नाम 'भारतखंडामृत' और उर्दू कॉलम का नाम 'आबेहयात' था। उनकी लिखी पुस्तकों के नाम ये हैं , +1. पुष्पवाटिका (गुलिस्ताँ के एक अंग का अनुवाद, संवत् 1909) +2. भारतवर्षीय इतिहास (संवत् 1913) +3. जीविका परिपाटी (अर्थशास्त्र की पुस्तक, संवत् 1913) +4. जगत् वृत्तांत (संवत् 1915) +पं. श्रीलाल ने, संवत् 1909 में 'पत्रमालिका' बनाई। गार्सां द तासी ने इन्हें कई पुस्तकों का लेखक कहा है। +बिहारीलाल ने गुलिस्ताँ के आठवें अध्याय का हिन्दी अनुवाद संवत् 1919 में किया। +पं. बद्रीलाल ने डॉ. बैलंटाइन के परामर्श के अनुसार संवत् 1919 में 'हितोपदेश' का अनुवाद किया जिसमें बहुत सी कथाएँ छाँट दी गई थीं। उसी वर्ष 'सिध्दांतसंग्रह' (न्यायशास्त्र) और 'उपदेश पुष्पावती' नाम की दो पुस्तकें और निकली थीं। +यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि प्रारंभ में राजा साहब ने जो पुस्तकें लिखीं वे बहुत ही चलती सरल हिन्दी में थीं, उनमें उर्दूपन नहीं भरा था जो उनकी पिछली किताबों (इतिहासतिमिरनाशक आदि) में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए 'राजा भोज का सपना' से कुछ अंश उध्दृत किया जाता है , +वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी महाराज भोज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत् में ब्याप रही है। बड़ेबड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते। सेना उसकी समुद्र के तरंगों का नमूना और खजाना उसका सोने चाँदी और रत्नों की खान से भी दूना। उसके दान ने राजा कर्ण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया। +अपने 'मानवधर्मसार' की भाषा उन्होंने अधिक संस्कृतगर्भित रखी है। इसका पता इस उध्दृत अंश से लगेगा , +मनुस्मृति हिंदुओं का मुख्य धर्मशास्त्र है। उसको कोई भी हिंदू अप्रामाणिक नहीं कह सकता। वेद में लिखा है कि मनु जी ने जो कुछ कहा है उसे जीव के लिए औषधिा समझना; और बृहस्पति लिखते हैं कि धर्म शास्त्राचार्यों में मनु जी सबसे प्रधान और अति मान्य हैं क्योंकि उन्होंने अपने धर्मशास्त्र में संपूर्ण वेदों का तात्पर्य लिखा है।...खेद की बात है कि हमारे देशवासी हिंदू कहलाके अपने मानवधर्मशास्त्र को न जानें और सारे कार्य्य उसके विरुद्ध करें। +'मानवधर्मसार' की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं है। प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिन्दी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबीफारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो। यद्यपि अपने 'गुटका' में जो साहित्य की पाठयपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए रखा, पर संवत् 1917 के पीछे उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगा जो बराबर बना क्या रहा, कुछ न कुछ बढ़ता ही गया। इसका कारण चाहे जो समझिए। या तो यह कहिए कि अधिकांश शिक्षित लोगों की प्रवृत्ति देखकर उन्होंने ऐसा किया अथवा अंगरेज अधिाकारियों का रुख देखकर। अधिकतर लोग शायद पिछले कारण को ही ठीक समझेंगे। जो हो, संवत् 1917 के उपरांत जो इतिहास, भूगोल आदि की पुस्तकें राजा साहब ने लिखीं उनकी भाषा बिल्कुल उर्दूपन लिए है। 'इतिहासतिमिरनाशक' भाग-2 की अंग्रेजी भूमिका में, जो संवत् 1864 की लिखी है, राजा साहब ने साफ लिखा है कि मैंने 'बैताल पचीसी' की भाषा का अनुकरण किया है , +प् उंल इम चंतकवदमक वित ेंलपदह ं मिू ूवतके ीमतम जव जीवेम ूीव ंसूंले नतहम जीम मगबसनेपवद व िच्मतेपंद ूवतकेए मअमद जीवेम ूीपबी ींअम इमबवउम वनत ीवनेमीवसक ूवतकेए तिवउ वनत भ्पदकप इववो ंदक नेम पद जीमपत ेजमंक ैंदोतपज ूवतके ुनपजम वनज व िचसंबम ंदक ेंिीपवद वत जीवेम बवनतेम मगचतमेपवदे ूीपबी बंद इम जवसमतंजमक वदसल ंउवदह ं तनेजपब चवचनसंजपवदण् +प् ींअम ंकवचजमक जव ं बमतजंपद मगजमदजए जीम संदहनंहम व िजीम ष्ठंपजंस चंबीपेपष् +लल्लूलालजी के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि 'बैताल पचीसी' की भाषा बिल्कुल उर्दू है। राजा साहब ने अपने इस उर्दूवाले पिछले सिध्दांत का 'भाषा का इतिहास' नामक जिस लेख में निरूपण किया है, वही उनकी उस समय की भाषा का एक खास उदाहरण है, अत: उसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है , +हम लोगों को जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन शब्दों को लेना चाहिए कि जो आम फहम और खासपसंद हों अर्थात् जिनको जियादा आदमी समझ सकते हैं और जो यहाँ के पढ़े लिखे, आलिमफाजिल, पंडित, विद्वान की बोलचाल में छोड़े नहीं गए हैं और जहाँ तक बन पड़े हम लोगों को हरगिज गैरमुल्क के शब्द काम में न लाने चाहिए और न संस्कृत की टकसाल कायम करके नए नए ऊपरी शब्दों के सिक्के जारी करने चाहिए; जब तक कि हम लोगों को उसके जारी करने की जरूरत न साबित हो जाय अर्थात् यह कि उस अर्थ का कोई शब्द हमारी जबान में नहीं है, या जो है अच्छा नहीं है, या कविताई की जरूरत या इल्मी जरूरत या कोई और खास जरूरत साबित हो जाय। +भाषा संबंधी जिस सिध्दांत का प्रतिपादन राजा साहब ने किया है उसके अनुकूल उनकी यह भाषा कहाँ तक ठीक है, पाठक आप समझ सकते हैं। 'आमफहम', 'खासपसंद', 'इल्मी जरूरत' जनता के बीच प्रचलित शब्द कदापि नहीं हैं। फारसी के 'आलिमफाजिल' चाहे ऐसे शब्द बोलते हों पर संस्कृत हिन्दी के 'पंडित विद्वान' तो ऐसे शब्दों से कोसों दूर हैं। किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होता है। अत: साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है। इस प्रवृत्ति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक रूप रंग, आचार व्यवहार आदि का योग रहता है उसी प्रकार परंपरा से चले आते हुए साहित्य का भी। संस्कृत शब्दों में थोड़े बहुत मेल से भाषा का जो रुचिकर साहित्यिक रूप हजारों वर्षों से चला आता था उसके स्थान पर एक विदेशी रूप रंग की भाषा गले में उतारना देश की प्रकृति के विरुद्ध था। यह प्रकृतिविरुद्ध भाषा खटकी तो बहुत लोगों को होगी, पर असली हिन्दी का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मण सिंह ही आगे बढ़े। उन्होंने संवत् 1918 में 'प्रजाहितैषी' नाम का एक पत्र आगरे से निकाला और 1919 में 'अभिज्ञान शाकुंतल' का अनुवाद बहुत ही सरस और विशुद्ध हिन्दी में प्रकाशित किया। इस पुस्तक की बड़ी प्रशंसा हुई और भाषा के संबंध में मानो फिर से लोगों की ऑंख खुली। राजा साहब ने उस समय इस प्रकार की भाषा जनता के सामने रखी , +अनसूया , (हौले प्रियंवदा से) सखी! मैं भी इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रगट) महात्मा! तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़ यहाँ पधाारे हो? क्या कारन है जिससे तुमने अपने कोमल गात को कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है? +यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रसिक शब्द लिए हुए है। रघुवंश के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में राजा लक्ष्मण सिंहजी ने भाषा के संबंध में अपना मत स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है। +हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी पारसी के। परंतु कुछ अवश्य नहीं है कि अरबी पारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी पारसी के शब्द भरे हों। +अब भारत की देशभाषाओं के अध्ययन की ओर इंगलैंड के लोगों का भी ध्यान अच्छी तरह जा चुका था। उनमें जो अध्ययनशील और विवेकी थे, जो अखंड भारतीय साहित्य परंपरा और भाषा परंपरा से अभिज्ञ हो गए थे, उन पर अच्छी तरह प्रकट हो गया था कि उत्तरीय भारत की असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप क्या है। इन अंगरेज विद्वानों में फ्रेडरिक पिंकाट का स्मरण हिन्दी प्रेमियों को सदा बनाए रखना चाहिए। इनका जन्म संवत् 1893 में इंगलैंड में हुआ। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंदन की प्रसिद्ध ऐलन ऐंड कंपनी (ॅण् भ्ण्। ससमद ंदक ब्वण् 13 ँजमतसवव चसंबमए च्ंसस डंससए ैण् ॅण्) के विशालछापेखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिए बराबर उद्योग करते रहे। +संस्कृत की चर्चा पिंकाट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिन्दी और उर्दू का अभ्यास किया। इंगलैंड में बैठे ही बैठे उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा हिन्दी है, अत: जीवन भर ये उसी की सेवा और हितसाधना में तत्पर रहे। उनके हिन्दी लेखों, कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर भारतेंदुकाल के भीतर की जाएगी। +संवत् 1947 में उन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से संबंध तोड़ा और गिलवर्ट ऐंड रिविंगटन (ळपसइमतज ंदक त्पअपदहजवद ब्समतामदूमसस स्वदकवद) नामक विख्यात व्यवसाय कार्यालय में पूर्वीय मंत्री (व्तपमदज। कअपेमत ंदक म्गचमतज) नियुक्त हुए। उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापार पत्र 'आईन सौदागरी' उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिंकाट साहब करते थे। उन्होंने उसमें कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए भी रखे। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी के लेख वे ही लिखते थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित होनेवाले हिन्दी समाचार पत्रों (जैसे हिंदोस्तान, आर्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्ध रण भी उस पत्र के हिन्दी विभाग में रहते थे। +भारत का हित वे सच्चे हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मणसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि हिन्दी लेखकों से उनका बराबर हिन्दी में पत्रव्यवहार रहता था। उस समय के प्रत्येक हिन्दी लेखक के घर में पिंकाट साहब के दो-चार पत्र मिलेंगे। हिन्दी के लेखकों और ग्रंथकारों का परिचय इंगलैंडवालों को वहाँ के पत्रों में लेख लिखकर वे बराबर दिया करते थे। संवत् 1952 में (नवंबर सन् 1895) में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार करने हिंदुस्तान में आए, पर साल भर से कुछ ऊपर ही यहाँ रह पाए थे कि लखनऊ में उनका देहांत (7 फरवरी, 1896) हो गया। उनका शरीर भारत की मिट्टी में ही मिला। +संवत् 1919 में जब राजा लक्ष्मणसिंह ने 'शकुंतला नाटक' लिखा तब उसकी भाषा देख वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उसका एक बहुत सुंदर परिचय उन्होंने लिखा। बात यह थी कि यहाँ के निवासियों पर विदेशी प्रकृति और रूप-रंग की भाषा का लादा जाना वे बहुत अनुचित समझते थे। अपना यह विचार उन्होंने अपने उस अंग्रेजी लेख में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है जो उन्होंने बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री के 'खड़ी बोली का पद्य' की भूमिका के रूप में लिखा था। देखिए, उसमें वे क्या कहते हैं , +फारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू या हिंदुस्तानी) के अदालती भाषा बनाए जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। पश्चिमोत्तार प्रदेश के निवासी, जिनकी यह भाषा कही जाती है, इसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किये जाते हैं। +पहले कहा जा चुका है कि शिवप्रसाद ने उर्दू की ओर झुकाव हो जाने पर भी साहित्य की पाठयपुस्तक 'गुटका' में भाषा का आदर्श हिन्दी ही रखा। उक्त गुटका में उन्होंने 'राजा भोज का सपना', 'रानी केतकी की कहानी' के साथ ही राजा लक्ष्मणसिंह के 'शकुंतला नाटक' का भी बहुत सा अंश रखा। पहला गुटका शायद संवत् 1924 में प्रकाशित हुआ था। +संवत् 1919 और 1924 के बीच कई संवाद पत्र हिन्दी में निकले। 'प्रजाहितैषी' का उल्लेख हो चुका है। संवत् 1920 में 'लोकमित्र' नाम का एक पत्र ईसाईधर्म प्रचार के लिए आगरे (सिकंदरे) से निकला था जिसकी भाषा शुद्ध हिन्दी होती थी। लखनऊ से जो 'अवध अखबार' (उर्दू) निकलने लगा था उसके कुछ भाग में हिन्दी के लेख भी रहते थे। +जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में रहकर हिन्दी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे। संवत् 1920 और 1937 के बीच नवीन बाबू ने भिन्नभिन्न विषयों की बहुत सी हिन्दी पुस्तकें तैयार कीं और दूसरों से तैयार कराईं। ये पुस्तकें बहुत दिनों तक वहाँ कोर्स में रहीं। पंजाब में स्त्री शिक्षा का प्रचार करनेवालों में ये मुख्य थे। शिक्षा प्रचार के साथ साथ समाज सुधार आदि के उद्योग में भी बराबर रहा करते थे। ईसाइयों के प्रभाव को रोकने के लिए किस प्रकार बंगाल में ब्रह्मसमाजकी स्थापना हुई थी और राजा राममोहन राय ने हिन्दी के द्वारा भी उसके प्रचार की व्यवस्था की थी, इसका उल्लेख पहले हो चुका है। नवीनचंद्र ने ब्रह्मसमाज के सिध्दांतों के प्रचार के उद्देश्य से समय समय पर कई पत्रिकाएँ भी निकालीं। संवत्1924 (मार्च, सन् 1867) में उनकी 'ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका' निकली जिसमें शिक्षासंबंधी तथा साधारण ज्ञान विज्ञानपूर्ण लेख भी रहा करते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि शिक्षा विभाग द्वारा जिस हिन्दी गद्य के प्रचार में ये सहायक हुए वह शुद्ध हिन्दी गद्य था। हिन्दी को उर्दू के झमेले में पड़ने से ये सदा बचाते रहे। +हिन्दी की रक्षा के लिए उन्हें उर्दू के पक्षपातियों से उसी प्रकार लड़ना पड़ता था जिस प्रकार यहाँ राजा शिवप्रसाद को। विद्या की उन्नति के लिए लाहौर में 'अंजुमन लाहौर' नाम की एक सभा स्थापित थी। संवत् 1923 के उसके एक अधिावेशन में किसी सैयद हादी हुसैन खाँ ने एक व्याख्यान देकर उर्दू को ही देश में प्रचलित होने के योग्य कहा, उस सभा की दूसरी बैठक में नवीनबाबू ने खाँ साहब के व्याख्यान का पूरा खंडन करते हुए कहा , +उर्दू के प्रचलित होने से देशवासियों को कोई लाभ न होगा क्योंकि वह भाषा खास मुसलमानों की है। उसमें मुसलमानों ने व्यर्थ बहुत से अरबी फारसी के शब्द भर दिए हैं। पद्य या छंदोबद्ध रचना के भी उर्दू उपयुक्त नहीं। हिंदुओं का यहर् कत्ताव्य है कि ये अपनी परंपरागत भाषा की उन्नति करते चलें। उर्दू में आशिकी कविता के अतिरिक्त किसी गंभीर विषय को व्यक्त करने की शक्ति ही नहीं है। +नवीन बाबू के इस व्याख्यान की खबर पाकर इसलामी तहबीज के पुराने हामी, हिन्दी के पक्के दुश्मन गार्सां द तासी फ्रांस में बैठे बैठे बहुत झल्लाए और अपने एक प्रवचन में उन्होंने बड़े जोश के साथ हिन्दी का विरोध और उर्दू का पक्षमंडन किया तथा नवीन बाबू को कट्टर हिंदू कहा। अब यह फरांसीसी हिन्दी से इतना चिढ़ने लगा था कि उसके मूल पर ही उसने कुठार चलाना चाहा और बीम्स साहब (डण् ठमंउमे) का हवाला देते हुए कह डाला कि हिन्दी तो एक पुरानी भाषा थी जो संस्कृत से बहुत पहले प्रचलित थी, आर्यों ने आकर उसका नाश किया, और जो बचे खुचे शब्द रह गए उनकी व्युत्पत्तिा भी संस्कृत से सिद्ध करने का रास्ता निकाला। इसी प्रकार जब जहाँ कहीं हिन्दी का नाम लिया जाता तब तासी बड़े बुरे ढंग से विरोध में कुछ न कुछ इस तरह की बातें कहता। +सर सैयद अहमद का अंगरेज अधिकारियों पर कितना प्रभाव था, यह पहले कहा जा चुका है। संवत् 1925 में इस प्रांत के शिक्षा विभाग के अधयक्ष हैवेल ;डण् ैण् भ्ंमनससद्ध साहब ने अपनी यह राय जाहिर की कि , +यह अधिक अच्छा होता यदि हिंदू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी 'बोली' में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। +इस राय को गार्सां द तासी ने बड़ी खुशी के साथ अपने प्रवचन में शामिल किया। इसी प्रकार इलाहाबाद इंस्टीटयूट के एक अधिावेशन में (संवत् 1925) जब यह विवाद हुआ था कि 'देसी जबान' हिन्दी को मानें या उर्दू को, तब हिन्दी के पक्ष में कई वक्ता उठकर बोले थे। उन्होंने कहा था कि अदालतों में उर्दू जारी होने का यह फल हुआ है कि अधिकांश जनता , विशेषत: गाँवों की , जो उर्दू से सर्वथा अपरिचित है, बहुत कष्ट उठाती है, इससे हिन्दी का जारी होना बहुत आवश्यक है। बोलने वालों में से किसी किसी ने कहा कि केवल अक्षर नागरी के रहें और कुछ लोगों ने कहा कि भाषा भी बदलकर सीधी सादी की जाय। इस पर भी गार्सां द तासी ने हिन्दी के पक्ष में बोलने वालों का उपहास किया था। +उसी काल में इंडियन डेली न्यूज के एक लेख में हिन्दी प्रचलित किए जाने की आवश्यकता दिखाई गई थी। उसका भी जवाब देने तासी साहब खड़े हुए थे। 'अवध अखबार' में जब एक बार हिन्दी के पक्ष में लेख छपा था तब भी उन्होंने उसके संपादक की राय का जिक्र करते हुए हिन्दी को एक 'भद्दी बोली' कहा था जिसके अक्षर भी देखने में सुडौल नहीं लगते। +शिक्षा के आंदोलन के साथ ही साथ ईसाई मत का प्रचार रोकने के लिए मतमतांतर संबंधी आंदोलन देश के पश्चिमी भागों में भी चल पड़े। पैगंबरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और संवत् 1920 से उन्होंने अनेक नगरों में घूम घूम कर व्याख्यान देना आरंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूरतक प्रचलित साधु हिन्दी भाषा में ही होते थे। स्वामी जी ने अपना 'सत्यार्थप्रकाश' तो हिन्दी या आर्यभाषा में प्रकाशित ही किया, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिन्दी दोनों में किए। स्वामी जी के अनुयायी हिन्दी को 'आर्यभाषा' कहते थे। स्वामी जी ने संवत् 1922 में 'आर्यसमाज' की स्थापना की और सब आर्यसमाजियों के लिए हिन्दी या आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया। संयुक्त प्रांत के पश्चिमी जिलों और पंजाब में आर्य समाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। पंजाबी बोली में लिखित साहित्य न होने से और मुसलमानों के बहुत अधिक संपर्क में पंजाबवालों की लिखने पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। आज जो पंजाब में हिन्दी की पूरी चर्चा सुनाई देती है इन्हीं की बदौलत है। +संवत् 1920 के लगभग ही विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान श्रध्दाराम फुल्लौरी के व्याख्यानों और कथाओं की धूम पंजाब में आरंभ हुई। जालंधार के पादरी गोकुलनाथ के व्याख्यानों के प्रभाव से कपूरथला नरेश महाराज रणबीरसिंह ईसाई मत की ओर झुक रहे थे। पं. श्रध्दाराम जी तुरंत संवत् 1920 में कपूरथले पहुँचे और उन्होंने महाराज के सब संशयों का समाधान करके प्राचीन वर्णाश्रम धर्म का ऐसा सुंदर निरूपण किया कि सब लोग मुग्धा हो गए। पंजाब में सब छोटे बड़े स्थानों में घूमकर पं. श्रध्दाराम जी उपदेश और वक्तृताएँ देते तथा रामायण, महाभारत आदि की कथाएँ सुनाते। उनकी कथाएँ सुनने के लिए दूर दूर से लोग आते और सहòों आदमियों की भीड़ लगती थी। उनकी वाणी में अद्भुत आकर्षण था और उनकी भाषा बहुत जोरदार होती थी। स्थान स्थान पर उन्होंने धर्मसभाएँ स्थापित कीं और उपदेशक तैयार किए। उन्होंने पंजाबी और उर्दू में भी कुछ पुस्तकें लिखी हैं। पर अपनी मुख्य पुस्तकें हिन्दी में ही लिखी हैं। अपना सिध्दांतग्रंथ 'सत्यामृतप्रवाह' उन्होंने बड़ी प्रौढ़ भाषा में लिखा है। वे बड़े ही स्वतंत्र विचार के मनुष्य थे और वेदशास्त्र के यथार्थ अभिप्राय को किसी उद्देश्य से छिपाना अनुचित समझते थे। इसी से स्वामी दयानंद की बहुत सी बातों का विरोध वे बराबर करते रहे। यद्यपि वे बहुत सी बातें कह और लिख जाते थे जो कट्टर अंधविश्वासियों को खटक जाती थीं और कुछ लोग इन्हें नास्तिक तक कह देते थे पर जब तक वे जीवित रहे सारे पंजाब के हिंदू उन्हें धर्म का स्तंभ समझते रहे। +पं. श्रध्दारामजी कुछ पद्यरचना भी करते थे। हिन्दी गद्य में तो उन्होंने बहुत कुछ लिखा और वे हिन्दी भाषा के प्रचार में बराबर लगे रहे। संवत् 1924 में उन्होंने 'आत्मचिकित्सा' नाम की एक अध्यात्मसंबंधी पुस्तक लिखी जिसे संवत् 1928 में हिन्दी में अनुवाद करके छपाया। इसके पीछे 'तत्वदीपक', 'धर्मरक्षा', 'उपदेश संग्रह', (व्याख्यानों का संग्रह), 'शतोपदेश' (दोहे) इत्यादि धर्मसंबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने अपना एक बड़ा जीवनचरित (1400 पृष्ठों के लगभग) लिखा था जो कहीं खो गया। 'भाग्यवती' नाम का एक सामाजिक उपन्यास भी संवत् 1934 में उन्होंने लिखा, जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई। +अपने समय के वे सच्चे हितैषी और सिद्ध हस्त लेखक थे। संवत् 1938 में उनकी मृत्यु हुई। जिस दिन उनका देहांत हुआ उस दिन उनके मुँह से सहसा निकला कि 'भारत में भाषा के लेखक दो हैं , एक काशी में; दूसरा पंजाब में। परंतु आज एक ही रह जाएगा।' कहने की आवश्यकता नहीं कि काशी के लेखक से अभिप्राय हरिश्चंद्र से था। +राजा शिवप्रसाद 'आमफहम' और 'खासपसंद' भाषा का उपदेश ही देते रहे, उधर हिन्दी अपना रूप आप स्थिर कर चली। इस बात में धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों ने भी बहुत कुछ सहायता पहुँचाई। हिन्दी गद्य की भाषा किस दिशा की ओर स्वभावत: जाना चाहती है, इसकी सूचना तो काल अच्छी तरह दे रहा था। सारी भारतीय भाषाओं का साहित्य चिरकाल से संस्कृत की परिचित और भावपूर्ण पदावली का आश्रय लेता चला आ रहा था। अत: गद्य के नवीन विकास में उस पदावली का त्याग और किसी विदेशी पदावली का सहसा ग्रहण कैसे हो सकता था? जब कि बँग्ला, मराठी आदि अन्य देशी भाषाओं का गद्य परंपरागत संस्कृत पदावली का आश्रय लेता हुआ चल पड़ा था तब हिन्दी गद्य उर्दू के झमेले में पड़कर कब तक रुका रहता? सामान्य संबंधसूत्र को त्यागकर दूसरी देशी भाषाओं से अपना नाता हिन्दी कैसे तोड़ सकती थी? उनकी सगी बहन होकर एक अजनबी के रूप में उनके साथ वह कैसे चल सकती थी जबकि यूनानी और लैटिन के शब्द यूरोप के भिन्न भिन्न मूलों से निकली हुई देशी भाषाओं के बीच एक प्रकार का साहित्यिक संबंध बनाए हुए हैं तब एक ही मूल से निकली हुई आर्य भाषाओं के बीच उस मूल भाषा के साहित्यिक शब्दों की परंपरा यदि संबंधसूत्र के रूप में चली आ रही है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? +कुछ अंगरेज विद्वान संस्कृतगर्भित हिन्दी की हँसी उड़ाने के लिए किसी अंग्रेजी वाक्य में उसी भाषा में लैटिन के शब्द भरकर पेश करते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि अंग्रेजी का लैटिन के साथ मूल संबंध नहीं है, पर हिन्दी, बँग्ला, मराठी, गुजराती आदि भाषाएँ संस्कृत के ही कुटुंब की हैं , उसी के प्राकृत रूपों से निकली हैं। इन आर्यभाषाओं का संस्कृत के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध है। इन भाषाओं के साहित्य की परंपरा को भी संस्कृत साहित्य की परंपरा का विस्तार कह सकते हैं। देशभाषा के साहित्य को उत्तराधिकार में जिस प्रकार संस्कृत साहित्य के कुछ संचित शब्द मिले हैं उसी प्रकार विचार और भावनाएँ भी मिली हैं। विचार और वाणी की इस धारा से हिन्दी अपने को विच्छिन्न कैसे कर सकती थी? +राजा लक्ष्मणसिंह के समय में ही हिन्दी गद्य की भाषा अपने भावी रूप का आभास दे चुकी थी। अब आवश्यकता ऐसे शक्तिसम्पन्न लेखकों की थी जो अपनी प्रतिभा और उद्भावना के बल से उसे सुव्यवस्थित और परिमार्जित करते और उसमें ऐसे साहित्य का विधान करते जो शिक्षित जनता की रुचि के अनुकूल होता। ठीक इसी परिस्थिति में भारतेंदु का उदय हुआ। +आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान +प्रकरण 1 +सामान्य परिचय +भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को भी नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषासंस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्तकंठ से स्वीकार किया और वे वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए। मुंशी सदासुख की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूरबीपन था। राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे की बोलचाल का पुट उसमें कम न था। भाषा का निखरा हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पद्य की ब्रजभाषा का भी बहुत कुछ संस्कार किया। पुराने पड़े हुए शब्दों को हटाकर काव्यभाषा में भी वे बहुत कुछ चलतापन और सफाई लाए। +आठ मास बीते, जजमान! अब तौ करौ दच्छिना दान + +द्विवेदीमंडल के बाहर की काव्यभूमि: +द्विवेदीजी के प्रभाव से हिन्दी काव्य ने जो स्वरूप प्राप्त किया उसके अतिरिक्त और अनेक रूपों में भी भिन्न भिन्न कवियों की काव्यधारा चलती रही। कई एक बहुत अच्छे कवि अपने अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करते रहे जिनमें मुख्य राय देवी प्रसाद 'पूर्ण', पं. नाथूरामशंकर शर्मा, पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही', पं. सत्यनारायण कविरत्न, लाला भगवानदीन, पं. रामनरेश त्रिपाठी, पं. रूपनारायण पांडेयहैं। +इन कवियों में से अधिकांश तो दोरंगी कवि थे, जो ब्रजभाषा में तो श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैयों या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे। बात यह थी कि खड़ी बोली का प्रचार बराबर बढ़ता दिखाई पड़ता था और काव्य के प्रवाह के लिए कुछ नई नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थीं। देशदशा, समाजदशा, स्वदेशप्रेम, आचरणसंबंधी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर जीवन के कुछ और पक्षों की ओर भी बढ़ी, पर गहराई के साथ नहीं। त्याग, वीरता, उदारता, सहिष्णुता इत्यादि के अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग पद्यबद्ध हुए जिनके बीच बीच में जन्मभूमि प्रेम, स्वजाति गौरव आत्मसम्मान की व्यंजना करने वाले जोशीले भाषण रखे गए। जीवन की गूढ़, मार्मिक या रमणीय प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ी। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने कुछ ध्यान कल्पित प्रबंध की ओर दिया। +दार्शनिकता का पुट राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की रचनाओं में कहीं कहीं दिखाई पड़ता है, पर किसी दार्शनिक तथ्य को हृदयग्राह्य रसात्मक रूप देने का प्रयास उनमें भी नहीं पाया जाता। उनके 'वसंतवियोग' में भारतदशासूचक प्राकृतिक विभूति के नाना चित्रों के बीच बीच में कुछ दार्शनिक तत्व रखे गए हैं और अंत में आकाशवाणी द्वारा भारत के कल्याण के लिए कर्मयोग और भक्ति का उपदेश दिलाया गया है। प्रकृतिवर्णन की ओर हमारा काव्य कुछ अधिक अग्रसर हुआ पर प्राय: वहीं तक रहा जहाँ तक उसका संबंध मनुष्य के सुख सौंदर्य की भावना से है। प्रकृति के जिन सामान्य रूपों के बीच नरजीवन का विकास हुआ है, जिन रूपों से हम बराबर घिरे रहते आए हैं उनके प्रति वह राग या ममता न व्यक्त हुई जो चिर सहचरों के प्रति स्वभावत: हुआ करती है। प्रकृति के प्राय: वे ही चटकीले भड़कीले रूप लिए गए जो सजावट के काम के समझे गए। सारांश यह कि जगत और जीवन के नानारूपों और तथ्यों के बीच हमारे हृदय का प्रसार करने में वाणी वैसी तत्पर न दिखाई पड़ी। +8. राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' , पूर्णजी का उल्लेख 'पुरानी धारा' के भीतर हो चुका है। वे ब्रजभाषा काव्य परंपरा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे और जब तक जीवित रहे, अपने 'रसिक समाज' द्वारा उस परंपरा की पूरी चहल पहल बनाए रहे। उक्त समाज की ओर से 'रसिक वाटिका' नाम की एक पत्रिका निकली थी जिसमें उस समय के प्राय: सब व्र्रजभाषा कवियों की सुंदर रचनाएँ छपती थीं। जब संवत् 1977 में पूर्णजी का देहावसान हुआ उस समय उक्त समाज निरवलंब सा हो गया, और , +रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ ओर हेरैं, +कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश) +पूर्णजी सनातनधर्म के बड़े उत्साही अनुयायी तथा अध्ययनशील व्यक्ति थे। उपनिषद् और वेदांत में उनकी अच्छी गति थी। सभा समाजों के प्रति उनका बहुत उत्साह रहता था और उसके अधिावेशनों में वे अवश्य कोई न कोई कविता पढ़ते थे। देश में चलनेवाले आंदोलनों (जैसे , स्वदेशी) को भी उनकी वाणी प्रतिध्वनित करती थी। भारतेंदु, प्रेमघन आदि प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी में भी देशभक्ति और राजभक्ति का समन्वय पाया जाता है। बात यह है कि उस समय तक देश के राजनीतिक प्रयत्नों में अवरोधा या विरोध का बल नहीं आया था और लोगों की पूरी तरह धाड़क नहीं खुली थी। अत: उनकी रचना में यदि एक ओर 'स्वदेशी' पर देशभक्तिपूर्ण पद्य मिलें और दूसरी ओर सन् 1911 वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन, तो आश्चर्य न करना चाहिए। +प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी पहले नूतन विषयाेंे की कविता भी ब्रजभाषा में करते थे, जैसे , +विगत आलस की रजनी भई। रुचिर उद्यम की द्युति छै गई +उदित सूरज है नव भाग को। अरुन रंग भये अनुराग को +तजि बिछौनन को अब भागिए। भरत खंड प्रजागण जागिए +इस प्रकार 'संग्रामनिंदा' आदि अनेक विषयों पर उनकी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही हैं। पीछे खड़ी बोली की कविता का प्रचार बढ़ने पर बहुत सी रचना उन्होंने खड़ी बोली में भी की, जैसे , 'अमलतास', 'वसंतवियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन् (1910) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (1967) का स्वागत' इत्यादि। 'स्वदेशी', 'देशोध्दार' आदि पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में हैं। 'वसंतवियोग' बहुत बड़ी कविता है जिसमें कल्पना अधिक सचेष्ट मिलती है। उसमें भारतभूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में यह उद्यान सत्वगुणप्रधान तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से सम्पन्न था और इसके माली देवतुल्य थे। पीछे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य ऐसे) कुछ काल के लिए उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके माली साधना और तपस्या के लिए कैलास मानसरोवर की ओर जाते हैं जहाँ आकाशवाणी होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पच्छिमी शासन' होगा तब उन्नति का आयोजन होगा। 'अमलतास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़ पौधो झुलसे से रहते हैं और कहीं प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमलतास चारों ओर फूलकर अपनी पीतप्रभा फैला देता है। इससे कवि भक्ति के महत्व का संकेत ग्रहण करता है , +देख तव वैभव, द्रुमकुल संत! बिचारा उसका सुखद निदान। +करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान +रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमलतास तूभक्त। +इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त +पूर्णजी की कविताओं का संग्रह 'पूर्ण संग्रह' के नाम से प्रकाशित हो चुकाहै। उनकी खड़ी बोली की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं , +नंदन वन का सुना नहीं है किसने नाम। +मिलता है जिसमें देवों को भी आराम +उसके भी वासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग। +आकर के इस कुसुमाकर में, करते हैं नंदन रुचि त्याग +है उत्तर में कोट शैल सम तुंग विशाल। +विमल सघन हिमवलित ललित धावलित सब काल +हे नरदक्षिण! इसके दक्षिण-पश्चिम, पूर्व। +है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व +पवन देवता गगन पंथ से सुघन घटों में लाकरनीर। +सींचा करते हैं यह उपवन करके सदा कृपागंभीर +कर देते हैं बाहर भुनगों का परिवार। +तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार +पक्षीगृह विचार तरुगण को नहीं हिलाते हैं गजवृंद। +हंस भृंग हिंसा के भय से छाते नहीं बंद अरविंद +धोनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर क्षीर, +तब कुछ दुहते हैं गौओं को चतुर अहीर। +लेते हैं हम मधुकोशों से मधु जो गिरे आप ही आप। +मक्खी तक निदान इस थल की पाती नहीं कभी संताप +सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान। +कर सकते हो देश का सभी तरह कल्यान +सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो। +करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो +जो हो तुममें जान, आपदा भारी सारी। +हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी +पं. नाथूराम शंकर शर्मा. +इनका जन्म संवत् 1916 में और मृत्यु 1989 में हुई। वे अपना उपनाम 'शंकर' रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्ध हस्त थे। पं. प्रतापनारायण मिश्र के वे साथियों में थे और उस समय के कवि समाजों में बराबर कविता पढ़ा करते थे। समस्यापूर्ति वे बड़ी ही सटीक और सुंदर करते थे जिनसे उनका चारों ओर पदक, पगड़ी, दुशाले आदि से सत्कार होता था। 'कवि व चित्रकार', 'काव्यसुधाकर', 'रसिक मित्र' आदि पत्रों में उनकी अनूठी पूर्तियाँ और ब्रजभाषा की कविताएँ बराबर निकला करती थीं। छंदों के सुंदर नपे तुले विधान के साथ ही उनकी उद्भावनाएँ भी बड़ी अनूठी होती थीं। वियोग का यह वर्णन पढ़िए , +शंकर नदी नद नदीसन के नीरन की +भाप बन अंबर तें ऊँची चढ़ जाएगी। +दोनों ध्रुव छोरन लौं पल में पिघल कर +घूम घूम धारनी धुरी सी बढ़ जाएगी +झारेंगे अंगारे ये तरनि तारे तारापति +जारैंगे खमंडल में आग मढ़ जाएगी। +काहू बिधि विधि की बनावट बचैगी नाहिं +जो पै वा वियोगिनी की आह कढ़ जाएगी +पीछे खड़ी बोली का प्रचार होने पर वे उसमें बहुत अच्छी रचना करने लगे। उनकी पदावली कुछ उद्दंडता लिए होती थी। इसका कारण यह है कि उनका संबंध आर्यसमाज से रहा जिसमें अंधाविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के उग्र विरोध की प्रवृत्ति बहुत दिनों तक जागृत रही। उसकी अंतर्वृत्तिा का आभास उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। 'गर्भरंडा रहस्य' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य उन्होंने विधवाओं की बुरी परिस्थिति और देवमंदिरों के अनाचार आदि दिखाने के उद्देश्य से लिखा था। उसका एक पद्य देखिए , +फैल गया हुड़दंग होलिका की हलचल में। +फूल फूल कर फाग फला महिला मंडलमें +जननी भी तज लाज बनी ब्रजमक्खी सबकी। +पर मैं पिंड छुड़ाय जवनिका में जा दबकी +फबतियाँ और फटकार इनकी कविताओं की एक विशेषता है। फैशन वालों पर कही हुई 'ईश गिरिजा को छोड़ि ईशु गिरिजा में जाय' वाली प्रसिद्ध फबती इन्हीं की है। पर जहाँ इनकी चित्तवृत्ति दूसरे प्रकार की रही है, वहाँ की उक्तियाँ बड़ी मनोहर भाषा में है। यह कवित्त ही लीजिए , +तेज न रहेगा तेजधाारियों का नाम को भी, +मंगल मयंक मंद मंद पड़ जायँगे। +मीन बिन मारे मर जायँगे सरोवर में, +डूब डूब 'शंकर' सरोज सड़ जायँगे +चौंक चौंक चारों ओर चौकड़ी भरेंगे मृग, +खंजन खिलाड़ियों के पंख झड़ जायँगे। +बोलो इन अंखियों की होड़ करने को अब, +विस्व से अड़ीले उपमान अड़ जायँगे +पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'. +ये हिन्दी के एक बड़े ही भावुक और सरसहृदय कवि हैं। ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। इनकी बहुत सी कविताएँ 'त्रिाशूल' के नाम से निकली हैं। उर्दू कविता भी इनकी बहुत ही अच्छी होती है। इनकी पुरानी ढंग की कविताएँ 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधानिधि' और 'साहित्यसरोवर' आदि में बराबर निकलती रहीं। पीछे इनकी प्रवृत्ति खड़ी बोली की ओर हुई। इनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं , 'प्रेमपचीसी', 'कुसुमांजलि', 'कृषकक्रंदन'। इस मैदान में भी इन्होंने अच्छी सफलता पाई। एक पद्य नीचे दिया जाता है , +तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ। +तू है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ +तू है महानद तुल्य तो मैं एक बूँद समान हूँ। +तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ +पं. रामनरेश त्रिपाठी. +त्रिपाठीजी का नाम भी खड़ी बोली के कवियों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भाषा की सफाई और कविता के प्रसादगुण पर इनका बहुत जोर रहता है। काव्यभाषा में लाघव के लिए कुछ कारक चिद्दों और संयुक्त क्रियाओं के कुछ अंतिम अवयवों को छोड़ना भी (जैसे 'कर रहा है' के स्थान पर 'कर रहा' या करते हुए' के स्थान पर 'करते') ये ठीक नहीं समझते। काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (रोमांटिसिज्म) का आभास पं. श्रीधार पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 'मिलन', 'पथिक' और 'स्वप्न' नामक इनके तीनों खंडकाव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चलती है जिसपर मनुष्य मात्र का हृदय स्वभावत: ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधाकर अपनी भावना के अनुकूल स्वच्छंद संचरण के लिए कवि ने नूतन कथाओं की उद्भावना की है। कल्पित आख्यानों की ओर यह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलाष सूचित करता है। इन प्रबंधों में नरजीवन जिन रूपों में ढालकर सामने लाया गया है, ये मनुष्यमात्र का मर्मस्पर्श करने वाले हैं तथा प्रकृति के स्वच्छंद और रमणीय प्रसार के बीच अवस्थित होने के कारण शेष सृष्टि से विच्छिन्न नहीं प्रतीत होते। +स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया। त्रिपाठीजी के उपर्युक्त तीनों काव्य देशभक्ति के भाव से प्रेरित हैं। देशभक्ति का यह भाव उनके मुख्य पात्रों को जीवन के कई क्षेत्रों में सौंदर्य प्रदान करता दिखाई पड़ता है , कर्म के क्षेत्र में भी, प्रेम के क्षेत्र में भी। ये पात्र कई तरफ से देखने में सुंदर लगते हैं। देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठीजी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं। +त्रिपाठीजी ने भारत के प्राय: सब भागों में भ्रमण किया है, इससे इनके प्रकृतिवर्णन में स्थानगत विशेषताएँ अच्छी तरह आ सकी हैं। इनके 'पथिक' में दक्षिण भारत के रम्य दृश्यों का बहुत विस्तृत समावेश है। इसी प्रकार इनके 'स्वप्न' में उत्ताराखंडऔर कश्मीर की सुषमा सामने आती है। प्रकृति के किसी खंड के संश्लिष्ट चित्रण की प्रतिभा इनमें अच्छी है। सुंदर आलंकारिक साम्य खड़ा करने में भी इनकी कल्पना प्रवृत्त होती है पर झूठे आरोपों द्वारा अपनी उड़ान दिखाने या वैचित्रय खड़ा करने के लिए नहीं। +'स्वप्न' नामक खंड काव्य तृतीय उत्थान काल के भीतर लिखा गया है जबकि 'छायावाद' नाम की शाखा चल चुकी थी, इससे उस शाखा का भी रंग कहीं कहीं इसके भीतर झलक मारता है, जैसे , +प्रिय की सुधिसी ये सरिताएँ, ये कानन कांतार सुसज्जित। +मैं तो नहीं किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित। +जिसके प्रेमपत्र आते हैं प्राय: सुखसंवाद सन्निहित +अत: इस काव्य को लेकर देखने से थोड़ी थोड़ी इनकी सब प्रवृत्तियाँ झलक जाती हैं। इसके आरंभ में हम अपनी प्रिया में अनुरक्त वसंत नामक एक सुंदर और विचारशील युवक को जीवन की गंभीर वितर्कदशा में पाते हैं। एक ओर उसे प्रकृति की प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रियतमा के साहचर्य का प्रेमसुख लीन रखना चाहता है, दूसरी ओर समाज के असंख्य प्राणियों का कष्ट क्रंदन उसे उध्दार के लिए बुलाता जान पड़ता है। दोनों पक्षों के बहुत से सजीव चित्र बारी बारी से बड़ी दूर तक चलते हैं। फिर उस युवक के मन में जगत् और जीवन के संबंध में गंभीर जिज्ञासाएँ उठती हैं। जगत् के इस नाना रूपों का उद्गम कहाँ है? सृष्टि के इन व्यापारों का अंतिम लक्ष्य क्या है? यह जीवन हमें क्यों दिया गया है? इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह सोचता है , +इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर, +बहता रहता हूँ विमोहवश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर। +रात दिवस ही बूँदों द्वारा तन घट से परिमित यौवन जल; +है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल +कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है, वह सारा खेल खड़ा करने वाले उस छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है कि मैं उसके अन्वेषण में क्यों न चल पड़न्नँ। +उसकी प्रिया सुमना उसे दिन रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और अव्यवस्थित देखकर कर्म मार्ग पर स्थिर हो जाने का उपदेश देती है , +सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार द्रव्य बल। +मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल +मन की अमित तरंगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख +इसके उपरांत देश पर शत्रु चढ़ाई करता है और राजा उसे रोकने में असमर्थ होकर घोषणा करता है कि प्रजा अपनी रक्षा कर ले। इसपर देश के झुंड के झुंड युवक निकल पड़ते हैं और उनकी पत्नियाँ और माताएँ गर्व से फूली नहीं समाती हैं। देश की इस दशा में वसंत को घर में पड़ा देख उसकी पत्नी सुमना को अत्यंत लज्जा होती है और वह अपने पति से स्वदेश के इस संकट के समय शस्त्रा ग्रहण करने को कहती है। जब वह देखती है कि उसका पति उसी के प्रेम के कारण नहीं उठता है तब वह अपने को ही प्रिय केर् कत्ताव्यपथ का बाधक समझती है। वह सुनती है कि एक रुग्णा वृध्दा यह देखकर कि उसका पुत्र उसी की सेवा के ध्यान से युद्ध पर नहीं जाता है, अपना प्राण त्याग कर देती है। अंत में सुमना अपने को वसंत के सामने से हटाना ही स्थिर करती है और चुपचाप घर से निकल पड़ती है। वह पुरुष वेष में वीरों के साथ सम्मिलित होकर अत्यंत पराक्रम के साथ लड़ती है। उधर वसंत उसके वियोग में प्रकृति के खुले क्षेत्र में अपनी प्रेम वेदना की पुकार सुनाता फिरता है, पर सुमना उस समय प्रेमक्षेत्र से दूर थी , +अर्ध्द निशा में तारागण से प्रतिबिंबित अति निर्मल जलमय। +नीलझील के कलित कूल पर मनोव्यथा का लेकर आश्रय +नीरवता में अंतस्तल का मर्म करुण स्वर लहरी में भर। +प्रेम जगाया करता था वह विरही विरह गीत गा गा कर +भोजपत्र पर विरहव्यथामय अगणित प्रेमपत्र लिख लिखकर। +डाल दिए थे उसने गिरि पर, नदियों के तट पर, वनपथ पर +पर सुमना के लिए दूर थे ये वियोग के दृश्य कदंबक। +और न विरही की पुकार ही पहुँच सकी उसके समीप तक +अंत में वसंत एक युवक (वास्तव में पुरुष वेष में सुमना) के उद्बोधा से निकल पड़ता है और अपनी अद्भुत वीरता द्वारा सबका नेता बनकर विजय प्राप्त करता है। राजा यह कहकर कि 'जो देश की रक्षा करे वही राजा' उसको राज्य सौंप देता है। उसी समय सुमना भी उसके सामने प्रकट हो जाती है। +स्वदेशभक्ति की भावना कैसे मार्मिक और रसात्मक रूप में कथा के भीतर व्यक्त हुई है, यह उपर्युक्त सारांश द्वारा देखा जा सकता है। जैसाकि हम पहले कह आए हैं त्रिपाठीजी की कल्पना मानवहृदय के सामान्य मर्मपथ पर चलनेवाली है। इनका ग्रामगीत संग्रह करना इस बात को और भी स्पष्ट कर देता है। अत: त्रिपाठीजी हमें स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रकृत पथ पर दिखाई पड़ते हैं। इनकी रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं , +चारु चंद्रिका से आलोकित विमलोदक सरसी के तट पर, +बौरगंधा से शिथिल पवन में कोकिल का आलाप श्रवण कर। +और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि; +हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि +किंतु उसी क्षण भूख प्यास से विकल वस्त्र वंचित अनाथगण, +'हमें किसी की छाँह चाहिए' कहते चुनते हुए अन्नकण, +आ जाते हैं हृदय द्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण , +हाय! मुझे धिाक् है जो इनका कर न सका मैं कष्टनिवारण। +उमड़घुमड़ कर जब घमंड से उठता है सावन में जलधार, +हम पुष्पित कदंब के नीचे झूला करते हैं प्रतिवासर। +तड़ित्प्रभा या घनगर्जन से भय या प्रेमोद्रेक प्राप्त कर, +वह भुजबंधान कस लेती है, यह अनुभव है परम मनोहर। +किंतु उसी क्षण वह गरीबिनी, अति विषादमय जिसके मँहपर, +घुने हुए छप्पर की भीषण चिंता के हैं घिरे वारिधार, +जिसका नहीं सहारा कोई, आ जाती है दृग के भीतर, +मेरा हर्ष चला जाता है एक आह के साथ निकल कर +प्रतिक्षण नूतन भेष बनाकर रंगबिरंग निराला। +रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिदमाला +नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है। +घन पर बैठ बीच में बिचरूँ, यही चाहता मन है +सिंधुविहंग तरंग पंख को फड़का कर प्रतिक्षण में। +है निमग्न नित भूमि अंड के सेवन में, रक्षण में +मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू। +मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में। +बनकर किसी के ऑंसू मेरे लिए बहा तू। +मैं देखता तुझे था माशूक के वदन में +स्वर्गीय लाला भगवानदीन. +दीनजी के जीवन का प्रारंभिक काल उस बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ था जहाँ देश की परंपरागत पुरानी संस्कृति अभी बहुत कुछ बनी हुई है। उनकी रहन सहन बहुत सादी और उनका हृदय सरल और कोमल था। उन्होंने हिन्दी के पुराने काव्यों का नियमित रूप में अध्ययन किया था इससे वे ऐसे लोगों से कुढ़ते थे जो परंपरागत हिन्दी साहित्य की कुछ भी जानकारी प्राप्त किए बिना केवल थोड़ी सी अंग्रेजी शिक्षा के बल पर हिन्दी कविताएँ लिखने लग जाते थे। बुंदेलखंड में शिक्षित वर्ग के बीच और सर्वसाधारण में भी हिन्दी कविता का सामान्य रूप में प्रचार चला आ रहा है। ऋतुओं के अनुसार जो त्योहार और उत्सव रखे गए हैं, उनके आगमन पर वहाँ लोगों में अब भी प्राय: वही उमंग दिखाई देती है। विदेशी संस्कारों के कारण वह मारी नहीं गई है। लाला साहब वही उमंगभरा हृदय लेकर छतरपुर से काशी आ रहे। हिन्दी शब्दसागर के संपादकों में एक वे भी थे। पीछे हिंदू विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक हुए। हिन्दी साहित्य की व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिए काशी में उन्होंने एक साहित्य विद्यालय खोला जो उन्हीं के नाम से अब तक बहुत अच्छे ढंग पर चला जा रहा है। कविता में वे अपना उपनाम 'दीन' रखते थे। +लालाजी का जन्म संवत् 1924 (अगस्त 1866) में और मृत्यु 1987 (जुलाई,1930) में हुई। +पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे 'लक्ष्मी' के संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे। खड़ी बोली में उन्होंने वीरों के चरित्र लेकर बोलचाल की कड़कड़ाती भाषा में जोशीली रचना की है। खड़ी बोली की कविताओं का तर्ज उन्होंने प्राय: मुंशियाना ही रखा था। बद्द या छंद भी उर्दू के रखते थे और भाषा में चलते अरबी या फारसी शब्द भी लाते थे। इस ढंग से उनके तीन काव्य निकले हैं , 'वीर क्षत्राणी', 'वीर बालक' और 'वीर पंचरत्न'। लालाजी पुराने हिन्दी काव्य और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। बहुत से प्राचीन काव्यों की नए ढंग की टीकाएँ करके उन्होंने अध्ययन के अभिलाषियों का बड़ा उपकार किया है। रामचंद्रिका, कविप्रिया, दोहावली, कवितावली, बिहारी सतसई आदि की इनकी टीकाओं ने विद्यार्थियों के लिए अच्छा मार्ग खोल दिया। भक्ति और श्रृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति चमत्कार वे अच्छा लाते थे। +उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए , +सुनि मुनि कौसिक तें साप को हवाल सब, +बाढ़ी चित करुना की अजब उमंग है। +पदरज डारि करे पाप सब छारि, +करि नवल सुनारि दियो धामहू उतंग है। +'दीन' भनै ताहि लखि जात पतिलोक, +ओर उपमा अभूत को सुझानों नयो ढंग है। +कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु, +पद तें उड़ाई ऋषिपतिनीपतंग है +वीरों की सुमाताओं का यश जो नहींगाता। +वह व्यर्थ सुकवि होने का अभिमान जनाता +जो वीरसुयश गाने में है ढील दिखाता। +वह देश के वीरत्व का है मान घटाता +सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का। +वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का +इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'नवीन बीन' या 'नदीमें दीन' में है। +पं. रूपनारायण पांडेय. +पांडेयजी ने यद्यपि ब्रजभाषा में भी बहुत कुछ कविता की है, पर इधर अपनी खड़ी बोली की कविताओं के लिए ही ये अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बहुत उपयुक्त विषय कविता के लिए चुने हैं और उनमें पूरी रसात्मकता लाने में समर्थ हुए हैं। इनके विषय के चुनाव में ही भावुकता टपकती है, जैसे , दलित कुसुम, वनविहंगम, आश्वासन। इनकी कविताओं का संग्रह 'पराग' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। पांडेयजी की 'वनविहंगम' नाम की कविता में हृदय की विशालता और सरसता का बहुत अच्छा परिचय मिलता है। 'दलित कुसुम' की अन्योक्ति भी बड़ी हृदयग्राहिणी है। संस्कृत और हिन्दी दोनों के छंदों में खड़ी बोली को इन्होंने बड़ी सुघड़ाई से ढाला है। यहाँ स्थानाभाव से हम दो ही पद उध्दृत कर सकते हैं , +अहह! अधम ऑंधाी, आ गई तू कहाँ से? +प्रलय घनघटासी छा गई तू कहाँ से? +परदुखसुख तू ने, हा! न देखा न भाला। +कुसुम अधाखिला ही, हाय! यों तोड़ डाला +बन बीच बसे थे फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोती कहीं। +दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं +बढ़ने लगा नित्य नया नया नेह, नईनई कामना होती रही। +कहने का प्रयोजन है इतना, उनके सुख की रही सीमा नहीं +पं. सत्यनारायण 'कविरत्न'. +खड़ी बोली की खरखराहट (जो तब तक बहुत कुछ बनी हुई थी) के बीच 'वियोगी हरि' के समान स्वर्गीय पं. सत्यनारायण 'कविरत्न' (जन्म संवत् 1936, मृत्यु 1975) भी ब्रज की मधुरवाणी सुनाते रहे। रीतिकाल के कवियों की परंपरा पर न चलकर वे या तो भक्तिकाल के कृष्णभक्त कवियों के ढंग पर चले हैं अथवा भारतेंदुकाल की नूतन कविता की प्रणाली पर। ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रजपति का प्रेम उनके हृदय की संपत्ति थी। ब्रज के अतीत दृश्य उनकी ऑंखों में फिरा करते थे। इंदौर के पहले साहित्य सम्मेलन के अवसर पर ये मुझे वहाँ मिले थे। वहाँ की अत्यंत काली मिट्टी देख वे बोले, 'या माटी को तो हमारे कन्हैया न खाते'। +अंग्रेजी की ऊँची शिक्षा पाकर भी उन्होंने अपनी चाल ढाल ब्रजमंडल के ग्रामीण भलेमानसों की ही रखी। धोती, बगलबंदी और दुपट्टा, सिर पर एक गोल टोपी; यही उनका वेष रहता था। ये बाहर जैसे सरल और सादे थे, भीतर भी वैसे ही थे। सादापन दिखावे के लिए धारण किया हुआ नहीं है, स्वभावत: है, यह बात उन्हें देखते ही और उनकी बातें सुनते ही प्रकट हो जाती थी। बाल्यकाल से लेकर जीवनपर्यंत वे आगरा से डेढ़ कोस पर ताजगंज के पास धााँधाूपुर गाँव में ही रहे। उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था। उनका जन्म और बाल्यकाल, विवाह और गार्हस्थ, सब एक दुखभरी कहानी के संबद्ध खंड थे। वे थे ब्रजमाधुरी में पगे जीव, उनकी पत्नी थीं आर्यसमाज के तीखेपन में पली महिला। इस विषमता की विरसता बढ़ती ही गई और थोड़े ही अवस्था में कविरत्नजी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई। +ब्रजभाषा की कविताएँ वे छात्राावस्था से ही लिखने लगे थे। वसंतागमन पर वर्षा के दिनों में वे रसिए आदि ग्रामगीत अपढ़ ग्रामीणों में मिलकर निस्संकोच गाते थे। सवैया पढ़ने का ढंग उनका ऐसा आकर्षक था कि सुननेवाले मुग्धा हो जाते थे। जीवन की घोर विषमताओं के बीच भी वे प्रसन्न और हँसमुख दिखाई देते थे। उनके लिए उनका जीवन ही एक काव्य था, अत: जो बातें प्रत्यक्ष उनके सामने आती थीं, उन्हें काव्य का रूप रंग देते उन्हें देर नहीं लगती थी। मित्रों के पास वे प्राय: पद्य में पत्र लिखा करते थे जिनमें कभी कभी उनके स्वभाव की झलक भी रहती थी, जैसे स्वर्गीय पद्मसिंहजी के पास भेजी हुई इस कविता में , +जो मों सों हँसि मिलै होत मैं तासु निरंतर चेरो। +बस गुन ही गुन निरखत तिह मधिा सरल प्रकृति को प्रेरो +यह स्वभाव को रोग जानिए, मेरो बस कछु नाहीं। +नित नव विकल रहत याही सो सहृदय बिछुरन माहीं +सदा दारुयोषित सम बेबस आज्ञा मुदित प्रमानै। +कोरो सत्य ग्राम को वासी कहा 'तकल्लुफ' जानै +किसी का कोई अनुरोध टालना उनके लिए असंभव था। यह जानकर बराबर लोग किसी न किसी अवसर के उपयुक्त कविता बना देने की प्रेरणा उनसे किया करते थे और वे किसी को निराश न करते थे। उनकी वही दशा थी जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर इंशा की लखनऊ दरबार में हो गई थी। इससे उनकी अधिकांश रचनाएँ सामयिक हैं और जल्दी में जोड़ी हुई प्रतीत होती हैं, जैसे , स्वामी रामतीर्थ, तिलक गोखले, सरोजिनी नायडू इत्यादि की प्रशस्तियाँ, लोकहितकर आयोजनों के लिए अपील (हिंदू विश्वविद्यालय के लिए लंबी अपील देखिए), दुख और अन्याय के निवारण के लिए पुकार (कुली प्रथा के विरुद्ध 'पुकार' देखिए)। +उन्होंने जीती जागती ब्रजभाषा ली है। उनकी ब्रजभाषा उसी स्वरूप में बँधी न रहकर जो काव्यपरंपरा के भीतर पाया जाता है, बोलचाल के चलते रूपों को लेकर चली है। बहुत से ऐसे शब्द और रूपों का उन्होंने +व्यवहार किया है जो परंपरागत काव्यभाषा में नहीं मिलते। +'उत्तररामचरित' और 'मालतीमाधव' के अनुवादों में श्लोकों के स्थान पर उन्होंने बड़े मधुर सवैये रखे हैं। मकाले के अंग्रेजी खंडकाव्य 'होरेशस' का पद्यबद्ध अनुवाद उन्होंने बहुत पहले किया था। कविरत्नजी की बड़ी कविताओं में 'प्रेमकली' और 'भ्रमरदूत' विशेष उल्लेख योग्य हैं। 'भ्रमरदूत' में यशोदा ने द्वारका में जा बसे हुए कृष्ण के पास संदेश भेजा है। उसकी रचना नंददास के 'भ्रमरगीत' के ढंग पर की गई है, पर अंत में देश की वर्तमान दशा और अपनी दशा का भी हलका सा आभास कवि ने दिया है। सत्यनारायण जी की रचना के कुछ नमूने देखिए , +अलबेली कहु बेलि द्रुमन सों लिपटि सुहाई। +धाोयेधाोये पातन की अनुपम कमनाई +चातक शुक कोयल ललित बोलत मधुरे बोल। +कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल +निरखि घन की घटा। +लखि वह सुषमा जाल लाल निज बिन नंदरानी। +हरि सुधि उमड़ी घुमड़ी तन उर अति अकुलानी +सुधि बुधिा तजि माथौ पकरि, करि करि सोच अपार। +दृगजल मिस मानहु निकरि बही विरह की धार +कृष्ण रटना लगी। +कौने भेजौं दूत, पूत सों बिथा सुनावै। +बातन में बहराइ जाइ ताको यहँ लावै +त्यागि मधुपुरी को गयो छाँड़ि सबन के साथ। +सात समुंदर पै भयो दूर द्वारकानाथ +जाइगो को उहाँ? +नित नव परत अकाल, काल को चलत चक्र चहुँ। +जीवन को आनंद न देख्यो जात यहाँ कहुँ +बढ़यो जथेच्छाचार कृत जहँ देखौ तहँ राज। +होत जात दुर्बल विकृत दिन दिन आर्यसमाज +दिनन के फेर सों। +जे तजि मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी। +तिन्हैं बिदेसी तंग करत दै बिपदा खासी +नारीशिक्षा अनादरत जे लोग अनारी। +ते स्वदेश अवनति प्रचंड पातक अधिकारी +निरखि हाल मेरो प्रथम लेहु समुझि सब कोइ। +विद्याबल लहि मति परम अबला सबला होइ +लखौं अजमाइ कै। +भयो क्यों अनचाहत को संग? +सब जग के तुम दीपक, मोहन! प्रेमी हमहुँ पतंग +लखि तब दीपति, देहशिखा में निरत, बिरह लौं लागी। +खींचति आप सों आप उतहि यह, ऐसी प्रकृति अभागी +यद्यपि सनेह भरी तव बतियाँ, तउ अचरज की बात। +योग वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात +संदर्भ +1. संवत् 1967 में प्रकाशित हो गया। + +काव्यखंड (संवत् 1975): +प्रकरण 4 +नई धारा : तृतीय उत्थान : वर्तमान काव्यधाराएँ. +द्वितीय उत्थान के समाप्त होते होते खड़ी बोली में बहुत कुछ कविता हो चुकी थी। इन 25-30 वर्षों के भीतर वह बहुत कुछ मँजी, इसमें संदेह नहीं, पर इतनी नहीं जितनी उर्दू काव्य क्षेत्र के भीतर जाकर मँजी है। जैसा पहले कह चुके हैं, हिन्दी में खड़ी बोली के पद्यप्रवाह के लिए तीन रास्ते खोले गए , उर्दू या फारसी की बÐों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिन्दी के छंदों का। इनमें से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिन्दी काव्य का निकालाहुआ अपना मार्ग नहीं। अत: शेष दो मार्गों का ही थोड़े में विचार किया जाता है। +इसमें तो कोई संदेह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का माधुर्य अन्यत्रा दुर्लभ है, पर उनमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भावधारा के मेल में पूरी तरह से स्वच्छंद होकर नहीं चल सकती। इसी से संस्कृत के लंबे समासों का बहुत कुछ सहारा लेना पड़ता है। पर संस्कृत पदावली के अधिक समावेश से खड़ी बोली की स्वाभाविक गति के प्रसार के लिए अवकाश कम रहता है। अत: वर्णवृत्तों का थोड़ा बहुत उपयोग किसी बड़े प्रबंध के भीतर बीच में ही उपयुक्त हो सकता है। तात्पर्य यह कि संस्कृत पदावली का अधिक आश्रय लेने से खड़ी बोली के मँजने की संभावना दूर ही रहेगी। +हिन्दी के सब तरह के प्रचलित छंदों में खड़ी बोली की स्वाभाविक वाग्धारा का अच्छी तरह खपने के योग्य हो जाना ही उनका मँजना कहा जाएगा। हिन्दी के प्रचलित छंदों में दंडक और सवैया भी हैं। सवैया यद्यपि वर्णवृत्त है, पर लय के अनुसार लघुगुरु का बंधान उसमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में। मात्रिाक छंदों में तो कोई अड़चन ही नहीं है। प्रचलित मात्रिाक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए छंदों का विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं। +खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगों का ध्यान क्रमश: गया है और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिन्दी के प्रचलित छंदों में तथा नए गढ़े हुए छंदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरण सिंहजी कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है। +खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जाएगा जबकि पद्यों में उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ बैठेंं। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका हिन्दी पर पूरा अधिकार है, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरण सिंहजी ऐसे कवियों की लेखनी से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे लोगों को जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट समागम द्वारा भाषा पर पूरा अधिकार नहीं प्राप्त किया है, संस्कृत की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अंग्रेजी पद्यों के वाक्यखंडों के शब्दानुवाद जोड़ जोड़ कर, हिन्दी कविता के नए मैदान में उतरते देख आशंका भी होती है। ऐसे लोग हिन्दी जानने या उसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं समझते। पर हिन्दी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं? +नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि 'तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचारस्वातंत्रय में बाधा आती है।' +नए नए छंदों की योजना के संबंध में हमें कुछ नहीं कहना है। यह बहुत अच्छी बात है। 'तुक' भी कोई ऐसी अनिवार्य वस्तु नहीं। चरणों के भिन्न भिन्न प्रकार के मेल चाहे जितने किए जायँ, ठीक हैं। पर इधर कुछ दिनों से बिना छंद (मीटर) के पद्य भी , बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं , निरालाजी ऐसे नई रंगत के कवियों में देखने में आते हैं। यह अमेरिका के एक कवि वाल्ट ह्निटमैन ;ँसज ॅीपजउंदद्ध की नकल है, जो पहले बँग्ला में थोड़ी बहुत हुई। बिना किसी प्रकार की छंदोव्यवस्था की अपनी पहली रचना 'लीव्स ऑफ ग्रास' उसने सन् 1855 ई. में प्रकाशित की। उसके उपरांत और भी बहुत सी रचनाएँ इसी प्रकार की मुक्त या स्वच्छंद पंक्तियों में निकलीं, जिनके संबंध में एक समालोचक ने लिखाहै , +ष्ष्। बींवे व िपउचतमेपवदेए जीवनहीज व िमिमसपदहे जीतवूद जवहमजीमत ूपजीवनज तीलउमए ूीपबी उंजजमते सपजजसमए ूपजीवनज उमजतमए ूीपबी उंजजमते उवतम ंदक वजिमद ूपजीवनज तमेंवदए ूीपबी उंजजमते उनबीण्ष्ष्1 +सारांश यह कि उसकी ऐसी रचनाओं में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धि तत्व का भी प्राय: अभाव है। उसकी वे ही कविताएँ अच्छी मानी और पढ़ी गईं जिनमें छंद और तुकांत की व्यवस्था थी। +पद्यव्यवस्था से मुक्त काव्यरचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीतकाव्यों के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई राग रागनियाँ हैं। पर योरप में संगीत के बड़े बड़े उस्ताद (कंपोजर्स) अपनी अलग अलग नादयोजना या स्वरमैत्राी चलाया करते हैं। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में हुआ। वहाँ की देखादेखी हिन्दी में भी चलाया गया। 'निरालाजी' का तो इनकी ओर प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव केवल नाद पर अवलंबित नहीं। +छंदों के अतिरिक्त वस्तुविधान और अभिव्यंजनशैली में भी कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुईं जिससे अनेकरूपता की ओर हमारा काव्य कुछ बढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे। इस समन्वय से रहित जो अनेकरूपता होगी यह भिन्न भिन्न वस्तुओं की होगी, एक ही वस्तु की नहीं। अत: काव्यत्व यदि बना रहे तो काव्य का अनेक रूप-धारण करके भिन्न भिन्न शाखाओं में प्रवाहित होना उसका विकास ही कहा जाएगा। काव्य के भिन्न भिन्न रूप एक दूसरे के आगे पीछे भी आविर्भूत हो सकते हैं और साथ साथ भी निकल और चल सकते हैं। पीछे आविर्भूत होनेवाला रूप पहले से चले आते हुए रूप से अवश्य ही श्रेष्ठ या समुन्नत हो, ऐसा कोई नियम काव्यक्षेत्र में नहीं है। अनेक रूपों की धारणा करनेवाला तत्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य और आभ्यंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिए काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता है और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल सकता है। +प्रथम उत्थान के भीतर हम देख चुके हैं कि किस प्रकार काव्य को भी देश की बदलती हुई स्थिति और मनोवृत्ति के मेल में लाने के लिए भारतेंदु मंडल ने कुछ प्रयत्न किया पर यह प्रयत्न केवल सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की ओर हृदय को थोड़ा प्रवृत्त करके रह गया। राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त करनेवाली वाणी भी दबी सी रही। उसमें न तो संकल्प की दृढ़ता और न्याय के आग्रह का जोश था, न उलटफेर की प्रबल कामना का वेग। स्वदेश प्रेम व्यंजित करनेवाला यह स्वर अवसाद और खिन्नता का स्वर था, आवेश और उत्साह का नहीं। उसमें अतीत के गौरव का स्मरण और वर्तमान Ðास का वेदनापूर्ण अनुभव ही स्पष्ट था। अभिप्राय यह कि यह प्रेम जगाया तो गया, पर कुछ नया नया सा होने के कारण उस समय काव्यभूमि पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित न हो सका। +कुछ नूतन भावनाओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्ध ति में किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेंदुकाल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा ही रहने दी गई और उसकी अभिव्यंजनाशक्ति का कुछ विशेष प्रसार न हुआ। काव्य को बँधी हुई प्रणालियों से बाहर निकाल कर जगत् और जीवन के विविधा पक्षों की मार्मिकता झलकाने वाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति भी न दिखाई पड़ी। +द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमश: अग्रसर होने लगी; यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाईपड़ा। स्वदेशगौरव और स्वदेशप्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और 'भारत भारती' ऐसी पुस्तक निकली। इस भावना का प्रसार तो हुआ पर इसकी अभिव्यंजना में प्रातिभ प्रगल्भता न दिखाईपड़ी। +शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के समय से ही रह रहकर थोड़ी बहुत होती आ रही थी वह 'सरस्वती' निकलने के साथ ही कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो तीन वर्षों के भीतर ही ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया है कि अब नायिका भेद और श्रृंगार में ही बँधो रहने का जमाना नहीं है, संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हें लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदीजी बराबर जोर देते रहे और कहते रहे कि 'कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है।' द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादन काल में कविता में नयापन लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिए वे नएनए विषयोंका नयापन या नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका अनुगामी। रीतिकाल की श्रृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा , +इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके जिन्हाेंने इस विषय पर न मालूम क्या क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं; वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैये, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। +द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्यक्षेत्र का विस्तार बढ़ा, बहुत से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैये लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे अधिकतर साधारण गद्यनिबंधों के रूप में ही हुई हों, पर प्रवृत्ति अनेक विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र वर्णन के लिए मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप, व्यापार कैसे सुखद, सजीले और सुहावने लगते हैं, अधिकतर यही देख दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर साहचर्य से उत्पन्न उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य जीवन को रखकर उसके प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई। रहस्यमयी सत्ता के अक्षरप्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ। द्वितीय उत्थानकाल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के पद्यों में ढालने में ही लगा। +तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस देशप्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदुकाल में चली थी वह उत्तरोत्तर प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत अंग्रेजी के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन की प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति संबंधी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्राय: मिला पाया जाता है। देश की दुखदशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उस दुखदशा में उध्दार के लिए कवि लोग दयामय भगवान को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धांधाों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिए वे देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक देशभक्ति की वाणी में विशेष बल और वेग न दिखाई पड़ा। बात यह थी कि राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा साल भर में एक बार धूमधाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आता था। अत: द्विवेदीकाल की देशभक्ति संबंधी रचनाओं में शासनपद्ध ति के प्रति असंतोष तो व्यंजित होता था पर कर्म में तत्पर कराने का, आत्मत्याग करनेवाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे नहीं बढ़े थे। +तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव में राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही 'स्वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदान' होने को प्रोत्साहित करने लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदायों को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की घोर आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पच्छिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी पहुँची। दूसरे देशों का धान खींचने के लिए योरप में महायंत्राप्रवर्तन का जो क्रम चला उससे पूँजी लगाने वाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धानराशि इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिए भोजन, वस्त्र मिलना भी कठिन हो गया। अत: एक ओर तो योरप में मशीन की सभ्यता के विरुद्ध टालस्टाय की धर्मबुद्धि जगानेवाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गाँधाीजी ने किया; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की ओर प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद और समाजवाद नामक सिध्दांत चले जिन्होंने रूस में अत्यंत उग्र रूप धारण करके भारी उलटफेर कर दिया। +अब संसार के प्राय: सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिए खुले हुए हैं। इससे एक भूखंड में उठी हुई हवाएँ दूसरे भूखंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही पहुँच जाती हैं। यदि उनका सामंजस्य दूसरे भूखंड की परिस्थिति के साथ हो जाता है तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते हैं। इसी नियम के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ भी किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन, अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट् परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले। श्री रामधाारीसिंह 'दिनकर', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई कवियों की वाणी द्वारा ये भिन्न भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए। ऐसे समय में कुछ ऐसे भी आंदोलन दूसरे देशों की देखादेखी खड़े होते हैं जिनकी नौबत वास्तव में नहीं आई रहती। योरप में जब देश बड़े बड़े कल कारखानों से भर गए हैं और जनता का बहुत सा भाग उसमें लग गया है तब मजदूर आंदोलन की नौबत आई है। यहाँ अभी कल कारखाने केवल चल खड़े हुए हैं और उनमें काम करने वाले थोड़े से मजदूरों की दशा खेत में काम करने वाले करोड़ों अच्छे अच्छे किसानों की दशा से कहीं अच्छी है। पर मजदूर आंदोलन साथ लग गया। जो कुछ हो, इन आंदोलनों का तीव्र स्वर हमारी काव्यवाणी में सम्मिलित हुआ। +जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक 'वाद' का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिए सब क्षेत्रों में स्वत: एक चरम साधय बन जाता है। 'क्रांति' के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिन्दी काव्य क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा भी प्रकट हुई। सब बातों में परिवर्तन ही परिवर्तन की यह कामना कहाँ तक वर्तमान परिस्थिति के स्वंतत्रा पर्यालोचन का परिणाम है और कहाँ तक केवल अनुकृत है, नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य दिखाई पड़ता है कि इस परिवर्तनवाद के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक हो जाने से जगत और जीवन के स्वरूप की यह अनुभूति ऐसे कवियों में कम जग पाएगी जिसकी व्यंजना काव्य को दीर्घायु प्रदान करती है। +यह तो हुई काल के प्रभाव की बात। थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि चली आती हुई काव्यपरंपरा की शैली से अतृप्ति या असंतोष के कारण परिवर्तन की कामना कहाँ तक जगी और उसकी अभिव्यक्ति किन किन रूपों में हुई। भक्तिकाल और रीतिकाल की चली आती हुई परंपरा के अंत में किस प्रकार भारतेंदुमंडल के प्रभाव से देशप्रेम और जातिगौरव की भावना को लेकर एक नूतन परंपरा की प्रतिष्ठा हुई, इसका उल्लेख हो चुका है। द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदीजी के प्रभाव से एक ओर उसमें भाषा की सफाई आई, दूसरी ओर उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्यार्थ निरूपक हो गया। अत: इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और पीछे 'छायावाद' कहलाया वह उसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा। +द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी, कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा काव्य का आनंद लेनेवालों को भी मालूम होती थी और बँग्ला या अंग्रेजी कविता का परिचय करनेवालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना, वेदना की विवृत्ति, शब्द प्रयोग की विचित्रता इत्यादि अनेक बातें देखने की आकांक्षा बढ़ती गई। +सुधार चाहने वालों में कुछ लोग नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त खड़ी बोली की कविता को ब्रजभाषा काव्य की सी ललित पदावली तथा रसात्मकता और मार्मिकता से समन्वित देखना चाहते थे। जो अंग्रेजी या अंग्रेजी के ढंग पर चली हुई बँग्ला की कविताओं से प्रभावित थे वे कुछ लाक्षणिक वैचित्रय, व्यंजक चित्रविन्यास और रुचिर अन्योक्तियाँ देखना चाहते थे। श्री पारसनाथ सिंह के किए हुए बँग्ला कविताओं के हिन्दी अनुवाद 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में संवत् 1967 (सन् 1910) से ही निकलने लगे थे। ग्रे, वड्र्सवर्थ आदि अंग्रेजी कवियों की रचनाओं के कुछ अनुवाद भी (जैसे जीतन सिंह द्वारा अनूदित वड्र्सवर्थ का 'कोकिल') निकले। अत: खड़ी बोली की कविता जिस रूप में चल रही थी उससे संतुष्ट न रहकर द्वितीय उत्थान के समाप्त होने से कुछ पहले ही कई कवि खड़ी बोली काव्य को कल्पना का नया रूप रंग देने और उसे अधिक अंतर्भाव व्यंजक बनाने में प्रवृत्त हुए जिनमें प्रधान थे सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधार पांडेय और बदरीनाथ भट्ट। कुछ अंग्रेजी ढर्रा लिए हुए जिस प्रकार की फुटकल कविताएँ और प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) बँग्ला में निकल रहे थे, उनके प्रभाव से कुछ विशृंखल वस्तुविन्यास और अनूठे शीर्षकों के साथ चित्रमयी, कोमल और व्यंजक भाषा में इनकी नए ढंग की रचनाएँ संवत्1970-71 से ही निकलने लगी थीं जिनमें से कुछ के भीतर रहस्य भावना भी रहतीथी। +मैथिलीशरण गुप्त. +गुप्तजी की 'नक्षत्रानिपात' (सन् 1914), अनुरोध (सन्1915), पुष्पांजलि (सन् 1917), स्वयं आगत (सन् 1918) इत्यादि कविताएँ ध्यान देने योग्य हैं। 'पुष्पांजलि' और 'स्वयं आगत' की कुछ पंक्तियाँ आगे देखिए , +(क) मेरे ऑंगन का एक फूल। +सौभाग्य भाव से मिला हुआ, +श्वासोच्छ्वासन से हिला हुआ, +संसार विटप से खिला हुआ, +झड़ पड़ा अचानक झूल झूल। +(ख) तेरे घर के द्वार बहुत हैं किससे होकर आऊँ मैं? +सब द्वारों पर भीड़ बड़ी है कैसे भीतर जाऊँ मैं! +इसी प्रकार गुप्तजी की और भी बहुत-सी गीतात्मक रचनाएँ हैं, जैसे , +(ग) निकल रही है उर से आह, +ताक रहे सब तेरी राह। +चातक खड़ा चोंच खोले है, सम्पुट खोले सीप खड़ी, +मैं अपना घट लिये खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी। +(घ) प्यारे! तेरे कहने से जो यहाँ अचानक मैं आया, +दीप्ति बढ़ी दीपों की सहसा, मैंने भी ली साँस कहा। +सो जाने के लिए जगत का यह प्रकाश है जाग रहा, +किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा। +निरुद्देश नख रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति; अहा +मुकुटधर पांडेय. +गुप्त जी तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष पद्ध ति या 'वाद' में न बँधाकर कई पद्ध तियों पर अब तक चले आ रहे हैं। पर मुकुटधार जी बराबर नूतन पद्ध ति ही पर चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक रचनाओं में 'ऑंसू', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने देखिए , +(क) हुआ प्रकाश तमोमय मग में, +मिला मुझे तू तत्क्षण जग में, +दंपति के मधुमय विलास में, +शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में, +वन्य कुसुम के शुचि सुवास में, +था तव क्रीड़ा स्थान +(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी, +ऑंखों के पानी में तर जा। +मेरे उर का छिपा खजाना, +अहंकार का भाव पुराना, +बना आज तू मुझे दिवाना, +तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा +(ग) जब संधया को हट जावेगी भीड़ महान्, +तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान। +शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक, +बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक +पं. बदरीनाथ भट्ट. +भट्टजी भी सन् 1911 के पहले से भी भावव्यंजक और अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए , +दे रहा दीपक जलकर फूल, +रोपी उज्ज्वल प्रभा पताका अंधकार हिय हूल। +श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी. +बख्शीजी के भी इस ढंग के कुछ गीत सन् 1915-16 के आसपास मिलेंगे। +ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण, सब रूपों पर प्रेमदृष्टि डालकर, उसके रहस्यभरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक अकृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाल रहे थे। भक्तिक्षेत्र में उपास्य की एकदेशीय या धर्मविशेष में प्रतिष्ठित भावना के स्थान पर सार्वभौम भावना की ओर बढ़ रहे थे जिसमें सुंदर रहयात्मक संकेत भी रहते थे। अत: हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को , विशेषत: श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधार पांडेय को , समझना चाहिए। इस दृष्टि से छायावाद का रूप रंग खड़ा करने वाले कवियों के संबंध में अंग्रेजी या बँग्ला की समीक्षाओं से उठती हुई इस प्रकार की पदावली का कोई अर्थ नहीं कि 'इन कवियों के मन में एक ऑंधाी उठ रही थी जिसमें आंदोलित होते हुए वे उड़े जा रहे थे; एक नूतन वेदना की छटपटाहट थी जिसमें सुख की मीठी अनुभूति भी लुकी हुई थी; रूढ़ियों के भार से दबी हुई युग की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिए हाथ पैर मार रही थी।' न कोई ऑंधाी थी, न तूफान, न कोई नई कसक थी, न वेदना, न प्राप्त युग की नाना परिस्थितियों का हृदय पर कोई नया आघात था, न उसका आहत नाद। इन बातों का कुछ अर्थ तब हो सकता था जब काव्य का प्रवाह ऐसी भूमियों की ओर मुड़ता जिनपर ध्यान न दिया गया रहा होता। छायावाद के पहले नए नए मार्मिक विषयों की ओर हिन्दी कविता प्रवृत्त होती आ रही थी। कसर थी तो आवश्यक और व्यंजक शैली की, कल्पना और संवेदना के अधिक योग की। तात्पर्य यह कि छायावाद जिस आकांक्षा का परिणाम था उसका लक्ष्य केवल अभिव्यंजना की रोचक प्रणाली का विकास था जो धीरे धीरे अपने स्वतंत्र ढर्रे पर श्री मैथिलीशरण गुप्त, श्री मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा हो रहा था। +गुप्तजी और मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा स्वच्छंद नूतन धारा चली ही थी कि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की उन कविताओं की धूम हुई जो अधिकतर पाश्चात्य ढाँचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थी। परंतु ईसाई संतों के छायाभास (फैंटसमाटा) तथा योरोपीय काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बँग्ला में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगी थीं। यह 'वाद' क्या प्रकट हुआ, ए